Wednesday, May 24, 2017

काव्यशास्त्रविनोद-७: संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर

मुक्तिबोध की एक अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध कविता "गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे" में वाचक की अंतरात्मा उसे यह चेतावनी देती है:
निष्कर्ष निर्झर लहर प्राकृत वन्य और असभ्य है
वह मान्य ड्राइंगरूम संस्कृति से तुम्हें हटवायेगी
वह कान पकड़ेगी, उठाकर फेंक देगी
अजनबी मैदान में
घर बार सब छुड़वायेगी
तुमको अजाने देश में
गिरि कंदरा में जंगलों में सब जगह
भटकायेगी।
प्रसंग वाचक के सत्य की राह में दीक्षित होने का है।आगे चलकर वाचक के अंतरतम से सिक्के का दूसरा पहलू भी उभरता है:
अतः आदेश उसके मान
यदि तुम निकल जाओ
वह जहाँ भी जाय
तो तुम पाओगे अभिप्रेत
संकट कष्ट के चट्टान के भीतर फँसा हीरा
निकल दमकायेगा चेहरा तुम्हारा श्याम
किन्तु यदि माना नहीं आदेश,
स्वयं निष्कर्ष तुमको रगड़ देंगे
नष्ट कर देंगे
जहाँ रुक जाओगे।
तय नहीं आधे किये जाते रास्ते
इस रास्ते पर धरमशाला डाकबंगला भी नहीं है
सत्य को अनुभूत करना सहज है
मुश्किल बहुत
उसके कठिन निष्कर्ष मार्गों पर चले चलना
क्रान्तिकारी और मध्यमार्गी चेतना के बीच एक बुनियादी अंतर यह होता है कि क्रांतिकारी चेतना अपने उद्देश्य की तार्किक परिणति को समझती है, और वहां तक पहुंचे बिना उसे सफलता का बोध नहीं होता। वह उद्देश्य कैसा भी अव्यावहारिक, अप्राप्य अथवा ख़तरनाक बताया जाता हो, वह अंतिम सांस तक उसके लिए प्रयत्न करती है। उसे अपने लक्ष्य में पूरा भरोसा होता है, और किसी निश्चित समय में उसे हासिल करने की ज़िद भी नहीं होती। व्यापक उद्देश्य पूरे समाज की ज़रूरत होते हैं और उन्हें पाने में कई पीढियां खप जाती हैं। इसलिए विषम परिस्थिति में निराशा उसमें घर नहीं कर पाती, विफलता के क्षण में वो नए रास्तों की खोज करती है। जबकि मध्यमार्गी-उदारवादी चेतना कई बार सामान्य मानवीय आवश्यकताओं और उद्देश्यों को भी अतिवादी और सैद्धांतिक मान लेती है। अपने उदारवादी लक्ष्यों की पूर्ति की राह में भी कई बार वह बीच में ही थक हार कर बैठ जाती है, और जो कुछ थोड़ा बहुत हासिल हुआ उसी को गनीमत मान लेती है।
बहरहाल, मध्यमार्ग की भी समाज में अपनी सकारात्मक भूमिका है, लेकिन फ़िलहाल यहाँ वह विचारणीय नहीं है। क्रांतिकारी उद्देश्यों को अधबीच में छोड़ने वाली कोई संस्था, संगठन या व्यक्ति इस सकारात्मकता का दावा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में इनके अंदर पाखंड और लफ़्फ़ाजी का बोलबाला हो जाता है, जो इन्हें पतन की अंधी सुरंग की ओर ले जाता है। इससे समाज में भी दिग्भ्रम, निराशा और पराजय की धारा बलवती होती है। हमारे समाज में चौतरफ़ा इसके साक्ष्य मिल सकते हैं। इसलिए विचार के अनुरूप व्यवहार अथवा ज्ञान के अनुरूप कर्म, जो मुक्तिबोध का सबसे पहला और सबसे बढ़कर सरोकार है, पर खरा उतरने की चेतावनी वाचक को उसके मन मस्तिष्क से ही मिलती है। व्यक्ति के अंतर्जगत की इस भूमिका को मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष या आत्मालोचन कहते थे, लेकिन आजकल मंगलेश डबराल जैसे उनके कुछ अन्यतम प्रशंसक इसे आत्मग्लानि और अपराधबोध कहते हैं। ऐसा वे बाक़ायदा ग्राम्शी को कोट करते हुए करते हैं कि ग्राम्शी ने ग्लानि और अपराधबोध को क्रांतिकारी भाव कहा था। हमारा यह कहना है कि ग्राम्शी ने किस सन्दर्भ में क्या कहा था यह देखना होगा, लेकिन एक बात तय है कि न तो उन्होंने यह सब मुक्तिबोध के बारे में कहा था और न ही ग्लानि और अपराधबोध के अलावा और किसी क्रान्तिकारी भाव के होने से इंकार किया था। ऐसे में इन सबको मुक्तिबोध के मत्थे मढ़ने का क्या तुक है। यह आपत्तिजनक इसलिए भी है कि मुक्तिबोध के विचारों के अनुसार, समझौतापरस्ती की राह चुनने वालों को अपराधबोध के सहारे क्रांतिकारी तो क्या सचाई का दावेदार भी मानना मुश्किल है, जैसा कि उपरोक्त काव्यांशों से स्पष्ट होता है।

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