Wednesday, May 24, 2017

काव्यशास्त्रविनोद-४: भाषा की भूमिका

गणेशशंकर विद्यार्थी ने कभी कहा था कि अगर मेरा देश ग़ुलाम हो रहा हो और मेरी भाषा भी दूषित हो रही हो तो, मैं पहले अपनी भाषा को बचाऊंगा क्योंकि भाषा बची रहेगी तो देश को आज़ाद कराया जा सकता है, लेकिन भाषा दूषित हो गई तो देश को ग़ुलाम होने से कोई रोक नहीं सकता। इस कथन से भाषा के महत्व पर कुछ प्रकाश पड़ता है। हममें से ज़्यादातर लोग भाषा को अभिव्यक्ति के माध्यम से अधिक कुछ नहीं समझते। जैसे ट्रेन या बस यात्रा के माध्यम हैं, वैसे ही भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। हमने जो अनुभव किया उसे भाषा में व्यक्त कर दिया। अगर वह ठीक ठाक से श्रोता अथवा पाठक तक पहुँच गया तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि भाषा का प्रयोग कैसे हुआ।कहने सुनने में यह बात चाहे जितनी अजीब लगती हो लेकिन व्यवहार में हम भाषा के साथ इसी तरह पेश आते हैं।
दरअसल, भाषा को इतना महत्व इसलिए दिया जाता है कि यह अभिव्यक्ति के साथ साथ अनुभूति का भी माध्यम है। भाषा का हर शब्द अपने अंदर किसी विशिष्ट अनुभव की स्मृति को धारण करता है। उस शब्द से परिचित होने का अर्थ है उसमें छुपी विशिष्ट अनुभूति से, उससे जुड़े तमाम विचारों से परिचित होना। इनसे परिचित होकर ही हम इनसे जुड़ी हुई या इनके बाद आने वाली धारणाओं की तरफ़ क़दम बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए दुःख, शोक, अवसाद, विषाद, पीड़ा, कष्ट, वेदना, यातना, यंत्रणा आदि एक ही वर्ग की भावनाओं को व्यक्त करने वाले शब्द हैं, लेकिन इनकी छायाएं अलग अलग हैं। जो व्यक्ति इन शब्दों को समझता है, वह अपने जीवन में इन शब्दों से जुड़ी भावनाओं को पहचान लेगा। अगर ऐसा नहीं है तो उसे इन भावनाओं में से किसी का सामना होने पर दुखद तो महसूस होगा लेकिन वह ठीक ठीक अपनी भावना को पहचान न सकेगा।
जीवन के सीमित कार्यव्यापार में संलग्न रहने वाले किसी व्यक्ति के मन में भी अनेक प्रकार की भावतरंगें उठती हैं, लेकिन कोई भाषा संपन्न व्यक्ति जैसे उन्हें अलग अलग पहचान सकता ही वैसा वह नहीं कर पाता, क्योंकि उसका काम सीमित शब्दावली से चल जाता है। उसकी शब्दसंपदा उसकी अनुभूतिक्षमता को निर्धारित करती है। किसी वस्तु को पहचानने का मतलब है उसके बारे में एक अवधारणा ग्रहण करना और उसके सहारे उस वस्तु का वर्गीकरण करना। गुड़, चीनी, बूरा, खाँड़, मिश्री जैसे शब्दों के साथ इनके अलग अलग स्वाद की अवधारणा भी हमारे दिमाग़ में सुरक्षित रहती है। अगर कोई व्यक्ति इन अवधारणाओं से परिचित नहीं है तो इन चीज़ों को आकस्मिक रूप से खाने के बावजूद वह अलग अलग इनके स्वाद की विशेषता को पहचान नहीं सकेगा। आकस्मिकता की शर्त इसलिए कि अगर वह व्यक्ति अक्सर इन चीज़ों को खाता है तो वह इनके नाम से परिचित न होने के बावजूद अपने दिमाग़ में इनके स्वाद के अनुसार इनका वर्गीकरण करना और किसी न किसी रूप में इन्हें संबोधित करना सीख जायेगा। इस प्रकार वह आवश्यक भाषा अर्जित कर लेगा। इसके बाद वह इनकी बारीकियों पर और ध्यान देकर अपनी अनुभूति क्षमता का विकास करने में सफल हो सकेगा। इसी अर्थ में भाषा अनुभूति का माध्यम होती है। वह हमारे अनुभवों की स्मृति को संरक्षित और वर्गीकृत करती है। उसके सहारे ही हम अनुभूतियों की यात्रा पर निकल पाते हैं।
भाषा से वंचित होने का अर्थ है अनुभूति के सूक्ष्म विभेदों से अपरिचित रह जाना और इस प्रकार मनुष्योचित गरिमा और संवेदना से युक्त जीवन की संभावना का न्यूनतम रह जाना। ख़ास तौर पर हमारे देश में जहाँ विशाल आबादी निरक्षर है, और जो पढ़े लिखे हैं वे भी भाषा की शक्ति के प्रति सचेत नहीं हैं, यह मुद्दा निर्णायक हो जाता है। भूमंडलीकरण के युग में देश दुनिया के बड़े बड़े कारपोरेट निगम और कंपनियां हमारे जल, जंगल,और ज़मीन पर गिद्धदृष्टि लगाये बैठी हैं। किसानों, दलितों और आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से बेदख़ल करके दर दर भटकने पर मजबूर किया जा रहा है। लोगों को जानवरों की तरह हाँका लगाकर खदेड़ने की तैयारी है। समृद्धि और सम्पन्नता के द्वीपों के इर्द गिर्द उगे बाड़ों में उन्हें संगीनों के बल पर क़ैद करके देश की धरती, पहाड़, जंगल,और नदियों का सौदा किया जाने वाला है। ऐसे में भाषा वह अकेला हथियार है जिसके बल पर लोग न्याय की अपनी मानवीय चाहत को बचा पाएंगे और उसके लिए लड़कर सत्ता के इस शिकंजे को तोड़ पाएंगे। इस पृष्ठभूमि में हम अच्छी तरह समझ सकते हैं कि भाषा का मुद्दा कितना अहम है और गणेशशंकर विद्यार्थी ने क्यों इसे देश को बचाने की पूर्वशर्त माना था।
यहाँ आकर हमारे सामने एक बात आईने की तरह साफ़ होनी चाहिए कि अगर हम देश, समाज, गरीब, दलित, आदिवासी, किसान, मज़दूर अथवा मध्यवर्ग के जीवन में कोई सकारात्मक बदलाव लाने के लिए काम करना चाहते हैं तो भाषा का सवाल हमारे एजेंडे में सबसे ऊपर होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो हमारी सारी क़वायद निष्फल हो जायेगी और हम अंग्रेज़ीदां बुद्धिजीवियों के पिछलग्गू बनकर रह जायेंगे।
अब लाख टके का सवाल यह है कि भाषा में आये प्रदूषण को कैसे पहचानें और उसके ख़ात्मे के लिए शुरुआत कहाँ से करें। इसका जवाब पाने के लिए हमें भाषा की बुनियादी इकाई वाक्य की छानबीन करनी होगी। वाक्य के विभिन्न अंगों संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण आदि पर नज़र डालते हैं तो एक दिलचस्प खींचतान दिखाई पड़ती है। कवि त्रिलोचन ने कहा था---
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है
ध्वनि से शब्द और भाषा का संकेत मिलता है। ध्वनिव्यवस्था के लिपिबद्ध संकेत को ही भाषा कहते हैं। ध्वनि कंपन से उत्पन्न होती है, यानी एक क्रिया जो ध्वनि-तरंगों को जन्म देती है। क्रिया में बल होने का और चाहे जो आशय हो, एक बात तो तय है कि बिना बल के क्रिया नहीं हो सकती और जहाँ सक्रियता है वहां निर्बलता नहीं रह सकती। यानि जहाँ क्रिया है वहां बल है। भाषा में क्रिया का वही स्थान है जो जीवन में क्रियाशीलता का है। भाषा की लहरों में जीवन की हलचल के होने का यही अभिप्राय है।
त्रिलोचन की ही एक दूसरी काव्यपंक्ति है--
"हिंदी की कविता उनकी कविता है जिनकी सांसों को आराम नहीं था"।
मीर तक़ी मीर ने कहा था---
क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सुरूरे-क़ल्ब
आया नहीं ये लफ़्ज़ तो हिंदी ज़ुबाँ के बीच
सांसों को आराम न होने का अभिप्राय भी इसी अहर्निश क्रियाशीलता से संबद्ध है। हाँ, उसमें बेचैनी और जुड़ जाती है।इसी बात को मीर ख़ूबसूरती के साथ कहते हैं कि दिल का सुकून (सुरूरे-क़ल्ब) नामका शब्द तो हिंदी भाषा में आया ही नहीं। यह कथन वैसे ही है जैसे हम किसी के आत्मविश्वास की सुचना देते हुए कहते हैं कि असंभव शब्द उसके शब्दकोष में ही नहीं है। तात्पर्य यह कि हिंदी बोलने वालों ने दिल के सुकून का अनुभव ही नहीं किया। उनकी सांसों को आराम नहीं था। ज़ाहिर है, हिंदी समाज को परिभाषित करने वाली उनकी बुनियादी विशेषता क्रियाशीलता है।वही उसे अर्थ देती है।
यहाँ आते आते एक बात साफ़ हो जाती है कि जिस प्रकार जीवन की प्राथमिक और बुनियादी इकाई मनुष्य का सौंदर्य और उसकी सार्थकता क्रिया पर टिकी हुई है, उसी प्रकार भाषा की बुनियादी इकाई वाक्य का सौंदर्य क्रिया पर टिका हुआ है। लेकिन हमारे समाज में कर्म के अवमूल्यन की प्रवृत्ति और विचारधारा भी न केवल वजूद में है, बल्कि ख़ासी मज़बूत है। वर्तमान समय में यह कोई अपनी राह तो नहीं बना पाती, लेकिन कर्मण्यता के महत्व को लेकर भ्रम फैलाती रहती है। ऐसे ही एक विचारक रामस्वरूप चतुर्वेदी हैं। ये अपनी किताब "हिंदी गद्य:विन्यास और विकास"(लोकभारती,2002) में लिखते हैं, "वाक्य-विन्यास में सहज प्रवाह का एक साक्ष्य तब माना जा सकता है जबकि वाक्य में सबसे महत्वपूर्ण तत्व क्रिया का विलोप हो जाय, और वाक्य शेष अवयवों के संतुलन पर तना रहे"(पृष्ठ 18)। यहाँ क्रिया को सबसे महत्वपूर्ण तत्व बताने की "सावधानी" तो बरती गई है, लेकिन किसी अनूठे कारण से उसके विलोप को ही अच्छे वाक्य की शर्त बता दिया गया है। आगे चलकर विभूतिभूषण वंदोपाध्याय और प्रसाद की रचनाओं के हवाले से वे वाक्य में क्रियाहीनता को बाक़ायदा एक मूल्य की तरह प्रस्तावित करते हैं। इस वैचारिकी की प्रतिध्वनि हमारे समय के एक प्रमुख कथाकार-चिंतक दूधनाथ सिंह की पुस्तक "महादेवी"(राजकमल,2009) में देखने को मिलती है। वे लिखते है, "कभी-कभी मुझे लगता है कि सर्वनामों के बिना उत्कृष्ट कविता संभव ही नहीं है। संज्ञाएँ और अलंकृतियां, अव्यय और क्रियापद- ये सब तो काव्य-रण के पिछले मोर्चे के योद्धा हैं। असली युद्ध तो सर्वनाम ही लड़ते हैं।"(पृष्ठ 59) सर्वनामों के अमूर्तन के सहारे कविता कई बार सामान्यीकरण के अपने लक्ष्य की साधना करती है, व्यक्तिगत से सार्वजनीन की यात्रा करती है। लेकिन संज्ञा की बनिस्बत इसकी नामरूपहीनता व्यक्तित्वों के विलोप की संभावना भी अपने अंदर छिपाये रहती है। कहना अनावश्यक है कि व्यक्तित्वों का विखंडन, पतन और अंततः उनका विघटन हमारे समय और समाज की प्रमुख विडंबनाओं में से एक है। इसलिए सर्वनाम की उपयोगिता को स्वीकार करते हुए भी उसे वाक्य का सबसे प्रमुख अंग नहीं माना जा सकता। आगे चलकर लेखक की रणनीति तब और स्पष्ट होती है जब वह प्रसाद के विषय में लगभग तोहमत के रूप में कहता है कि "लेकिन प्रसाद में छायावाद के प्रारम्भिक चरण के सारे लक्षण हैं। वे अक्सर क्रियापदों का दामन नहीं छोड़ते(पृष्ठ 65)।" इससे पता चलता है कि सर्वनाम को प्रमुखता देने की रणनीति क्रिया को देशनिकाला देने से जुड़ी हुई थी। इस रणनीति से न कविता का भला होगा न समाज का। हाँ, इससे हमारे समय में फैली धुंध और गहरी हो जायेगी।
बहरहाल, ताज्जुब इस बात का नहीं है कि इन विचारकों ने ये बातें लिखीं। सबके अपने विचार हैं और अगर वे खुलकर व्यक्त होते हैं तो हम उनका स्वागत करते हैं। ताज्जुब इस बात का है कि इन विचारों से हिंदी के किसी कवि-आलोचक के कान पर जूं नहीं रेंगी। ये विचार अपने तरीक़े से हमारी चेतना में सक्रिय रहे लेकिन कहीं कोई सवाल नहीं उठा। अकर्मण्यता और व्यक्तित्वहीनता को मूल्य बनाकर वैधता और प्रमाणिकता देने की कोशिशें जारी रहीं लेकिन हिंदी समाज का सामूहिक विवेक शायद घोड़े बेचकर सोता रहा। यह क़िस्सा कोई नया नहीं है। हमने अपनी भाषा के साथ जो लापरवाही बरती है और उसके जो दुष्परिणाम सामने आये हैं, उनकी चर्चा हम इस श्रंखला की अगली कड़ी में करेंगे।

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