Wednesday, May 24, 2017

काव्यशास्त्रविनोद-११: लोग सिर्फ़ लोग हैं,तमाम लोग,मार तमाम लोग (रघुवीर सहाय)

रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता "रामदास" का विषय भी आम लोगों का आचरण है। ये लोग न केवल खुलेआम हुई हत्या के निष्क्रिय दर्शक हैं, बल्कि कविता के अंत तक आते-आते इस हत्या की अनिवार्यता के उत्साही समर्थक हो जाते हैं। कविता की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें---
"सधे क़दम रख कर के आये/लोग सिमटकर आँख गड़ाये/ लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी/ निकल गली से तब हत्यारा/ आया उसने नाम पुकारा/ हाथ तौलकर चाकू मारा/ छूटा लोहू का फ़व्वारा/ कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी/ भीड़ ठेलकर लौट गया वह/ मरा पड़ा है रामदास यह/ देखो-देखो बार-बार कह/ लोग निडर उस जगह खड़े रह/ लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।"
यहाँ पहले तो हत्या का तमाशा देखते लोग हत्या होने के बाद मानो राहत की साँस लेते हैं, और उसकी अनिवार्यता का बखान करते हैं---कहा नहीं था......। इसके बाद वे इसका उत्सव-सा मनाने लगते हैं। हत्यारे के चले जाने के बाद बार-बार एक दूसरे को मृत रामदास का शव दिखाकर उसकी मौत का भरोसा दिलाते हैं। इतना ही नहीं वे उन लोगों को शर्मिंदा करने के लिए खोजते हैं, जिन्हें हत्या की अनिवार्यता में संदेह था। ज़ाहिर है वे इस रीत-नीत से असहमत लोग रहे होंगे। लेकिन वे भी गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब हैं। उन्हें खोजना उतना ही मुश्किल हो रहा है जितना आदतन ख़ुशामद न करने वालों को खोजना था। कवि जैसे कह रहा हो कि कहीं से ले आओ वह दिमाग़ जिसे हत्यारे की कामयाबी पर शक न हो।
दूसरी तरफ़, आम लोगों के रवैये में किसी प्रकार के अफ़सोस की झलक तक नहीं है। कवि का रुख़ भी उनके प्रति उतना ही निष्करुण है। वह लोगों के वहां खड़े रह जाने को उनकी "निडरता" की संज्ञा देकर उन पर अत्यधिक कठोर व्यंग्य करता है। लोगों की कमज़ोरियों या उनके पतन को वह मानो उनका चुनाव मानता है,और ख़ुद मनुष्यता का लबादा ओढ़कर कहीं ऊँचाई पर खड़ा रहता है।
इसका अर्थ यह क़तई नहीं कि लोग ऐसी कमज़ोरियों का प्रदर्शन नहीं करते। हत्यारे का सामना होने की आत्यंतिक स्थिति को छोड़ भी दें तो किसी की जान बचाने के लिए कई बार उन्हें अपनी मामूली सुविधाओं को छोड़ने में भी परेशानी होती है। आए दिन ऐसा देखने में आता है कि दुर्घटना का शिकार कोई व्यक्ति सड़क पर छटपटाता रहता है और लोग उसके पास से गुज़र जाते हैं। यही लोग दंगाइयों और अपराधियों को चुनाव भी जिताते हैं। लेकिन क्या यह सिक्के का सिर्फ़ एक पहलू नहीं है? यही आम लोग दूसरों के लिए जान भी देते हैं, ग़रीब और मासूम लोगों के इंसाफ के लिए लड़ते हैं, और मनुष्यता की नई से नई नज़ीर पेश करते हैं। यह बात और है कि हमारी व्यवस्था और ख़ासकर मीडिया की दिलचस्पी ऐसी चीज़ों में नहीं है इसलिए इनकी कहानियाँ कम सुनाई पड़ती हैं, लेकिन ये हर कहीं होते हैं। इसीलिए जब कोई कवि इनके होने से इनकार करता है तो वह जाने-अनजाने सत्ता और व्यवस्था की हाँ में हाँ मिला रहा होता है।
यह सच है कि हमारे देश के आम लोग ग़ुलामी, बंटवारे और आज़ादी के बाद भी जारी लूटतंत्र के इस क़दर सताए हुए हैं कि अनेक बार वे सामान्य मानवीय भावनाओं से भी वंचित जान पड़ते हैं। न्यूनतम मानवीय गरिमा से वंचित अपने देशवासियों को देखकर कवि उनसे प्रेम के कारण उनकी आलोचना करे और उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलाए, यह तो स्वाभाविक है। लेकिन अगर वह जनसमुदाय के पतन से अछूता रह जाने के जोश में मानवता को आभिजात्य की तरह धारण करता है और बाक़ी लोगों को लताड़ लगाता है तो उसे जनपक्षधर कवि कहना मुश्किल है। आइए देखें मुक्तिबोध ऐसी स्थिति का सामना होने पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं:
" ओ मेरे आदर्शवादी मन,/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,/ अब तक क्या किया?/ जीवन क्या जिया!!/उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,/ भूतों की शादी में कनात से तन गए,/ किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,"
आलोचना यहाँ भी सख़्त है, लेकिन आलोचना करने वाला ख़ुद को भी अपने देशवासियों के पतन का भागीदार और ज़िम्मेदार पाता है। अपने मन को सम्बोधित करके यह सब कहने का यही अभिप्राय है। अपने देशवासियों की नियति से आज़ाद होकर उसने शुद्धता का कोई बाना नहीं ओढ़ रखा है। "अँधेरे में" नामक इस कविता में अन्यत्र भी इस आशय के वक्तव्य हैं,मसलन:
"मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे ही कारण दुर्घट हुई यह घटना"।
असल में, रघुवीर सहाय की चेतना में जनता एक अचेतन समुदाय की तरह आती है जिसे कुछ ज्ञानवान लोग सही रास्ता दिखाते हैं। उनकी यह धारणा इतनी मज़बूत है कि उनके अपने समय में चलने वाले जनसंघर्ष भी इस पर खरोंच नहीं डाल पाते। जनता की शक्ति और उसकी भूमिका की समझ से कटी हुई यह चेतना किसी दौर में सीमित रूप से जनपक्षधर भूमिका भले ही निभा ले, वर्तमान संक्रमणकालीन दौर की लोकतांत्रिक चेतना से नहीं जुड़ पाती। जनता की भूमिका का अवमूल्यन करने वाली उनकी चेतना की एक और बानगी देखते चलें:
"जब एक महान संकट से गुज़र रहे हों/ पढ़े-लिखे जीवित लोग/ एक अधमरी अपढ़ जाति के संकट को दिशा देते हुए/ तब/आप समझ सकते हैं कि एक मरे हुए आदमी को/ मसखरी कितनी पसंद है"
(आज का पाठ है)
इस श्रृंखला में हमनेे जानबूझकर अब तक रघुवीर सहाय के एक परिपक्व संग्रह की सबसे चर्चित और प्रशंसित कविताओं का विश्लेषण किया है ताकि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं से ही उनकी सीमा भी प्रकट हो। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर इस मूल्यांकन की प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती थी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की जनता के प्रति अवमानना भरा रुख़ उनके किसी ख़ास दौर की विशेषता है।दरअसल, यह उनकी चेतना का ट्रेडमार्क है। इस बात को समझने के लिए हम उनके आरम्भिक और परवर्ती दौर की एक -एक कविता पर ग़ौर करेंगे। पहले एक शुरूअाती कविता "दुनिया"(1957) की अंतिम पंक्तियों पर नज़र डालें:
"लोग कुछ नहीं करते जो करना चाहिए तो लोग करते क्या हैं/ यही तो सवाल है कि लोग करते क्या हैं अगर कुछ करते हैं/ लोग सिर्फ़ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग/ लोग ही लोग हैं चारों तरफ़ लोग, लोग, लोग/ मुँह बाये हुए लोग और आँख चुंधियाते हुए लोग/ कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग/ खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग/ दुनिया एक बजबजाती हुई चीज़ हो गई है।"
ये पंक्तियां अपनी मिसाल आप हैं और इनपर कुछ भी कहना ग़ैरज़रूरी है। कवि की परवर्ती दौर की एक छोटी सी कविता "जब उसको गोली मारी गयी"(1984) देखें:
"जब उसको गोली मारी गयी/ फ़ोटो से जाना क्या पकता था चूल्हे पर/बेटे ने बैठकर अपना मुँह दिखलाया/ लाश का ढँका था मुँह।"
जैसा कि स्पष्ट है इस कविता में एक हत्या के बाद खिंची हुई तस्वीर के माध्यम से बात की गई है। चूल्हे पर पकता खाना और मृतक के बेटे का चेहरा भी तस्वीर में आ गया है। वैसे तो यह विवरण तथ्यपरक और मार्मिक हो सकता था, लेकिन कवि को संभवतः विश्वास नहीं है कि किसी की हत्या का शोक उसके यानी स्वयं कवि के अलावा किसी और को हो सकता है चाहे वह मृतक का अपना बेटा ही क्यों न हो। "बैठकर अपना मुँह दिखलाने" की बात से लगता है कि फ़ोटो में अपना चेहरा ठीक से आए इसके लिए प्रयास किया गया है, ख़ास तौर पर तब जब मृतक का चेहरा ढँका है। शव के चेहरे को ढँकना अत्यंत सामान्य प्रथा है और उसकी फोटो में उसके किसी प्रियजन की तस्वीर आ जाना भी उतनी ही सामान्य बात। ग़ौरतलब यह है कि कवि इस तकलीफ़देह परिस्थिति में भी चीजों को देखने का कौन सा कोण खोज लाता है। उसके संयोजन में यह सब मृत व्यक्ति के प्रति उपेक्षा और किंचित विश्वासघात की तरह प्रकट होता है। इस कविता में "रामदास" की संवेदना की निरंतरता को आसानी पहचाना जा सकता है, बस समय के साथ तमाशा देखते लोगों की भीड़ में रामदास का बेटा भी न केवल शामिल हो गया है बल्कि अपना दयनीय चेहरा दिखाकर उसने संभवतः "निर्धनता के बदले कुछ मांगने" का कारोबार भी शुरू कर दिया है।
कवि के मनोजगत की बुनावट को समझने के लिए इससे बेहतर साक्ष्य मिलना मुश्किल है।

काव्यशास्त्रविनोद-१०: एक मेरी मुश्किल है जनता (रघुवीर सहाय)

(१) एक दिन इसी तरह आयेगा---- रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जायेगी-----रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय-----रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजायेगा-----रमेश
(आने वाला ख़तरा)
(२) कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताक़त ही ताक़त होगी
और चीख़ न होगी
(बड़ी हो रही है लड़की)
(३) हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही है
...................…................................
हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो
सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय
(हँसो हँसो जल्दी हँसो)
ये तीनों उद्धरण रघुवीर सहाय के कविता संग्रह "हँसो हँसो जल्दी हँसो"(१९७०-७५) से लिए गए हैं। इन अंशों में दो बातें प्रमुखता से दिखाई पड़ती हैं। एक तो भारतीय लोकतंत्र की फ़ासिस्ट तानाशाही की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति, और दूसरी इस प्रवृत्ति का विरोध करने वाली शक्तियों की अत्यंत निराशाजनक अनुपस्थिति। अगर हम इन कविताओं के रचनाकाल पर ग़ौर करें तो पाएंगे कि एक तरफ़ यह दौर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में तानाशाही शक्तियों के उभार का है तो दूसरी तरफ़ नक्सलबाड़ी आंदोलन के बर्बर दमन और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जबरदस्त छात्र-युवा आंदोलन का भी है। इन्हीं प्रक्रियाओं की परिणति इमर्जेंसी में हुई थी। साफ़ दिखता है कि ऊपर उल्लिखित कविताओं में सत्ता की पहचान तो अचूक है लेकिन जनता के संघर्षों को इनमे पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। नतीजे के तौर पर इन कविताओं में घनघोर निराशावाद और भविष्यहीनता का माहौल दिखाई पड़ता है। सवाल यह है कि रघुवीर सहाय जिन्होंने स्वयं भी दिनमान के संपादक के रूप में उस दौर में महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका निभाई थी, अपनी कविता में कैसे जनता की शक्ति और उसके संघर्षों से पूरी तरह ग़ाफ़िल हो गए। यह सवाल इसलिए निर्णायक है कि इसके जवाब से उनके निराशावाद के स्रोत और उसकी वैधता का पता चलेगा। इसका जवाब ढूंढने के लिए हम उस दौर की उनकी कुछ और कविताओं के माध्यम से उनके भावजगत में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं।
उनकी प्रसिद्ध कविता "आने वाला ख़तरा" की आरंभिक पंक्तियां हैं:
"इस लज्जित और पराजित युग में/ कहीं से ले आओ वह दिमाग़/ जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता/कहीं से ले आओ निर्धनता/जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती/और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो....."
आम लोगों में पाई जाने वाली कमज़ोरियाँ ही इस कविता का प्रतिपक्ष है। इस बात के लिए निस्संदेह रघुवीर सहाय की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने सस्ती लोकप्रियता के लिए लोगों को अच्छी लगने वाली बातें कहने का आसान रास्ता न अपनाकर जनता को उसकी कमज़ोरियों की याद दिलाने की कोशिश की। अफ़सोस यह है कि यह आलोचना उन्होंने जनता का एक सदस्य अथवा हमसफ़र बनकर नहीं, नैतिकता के ऊंचे पायदान पर खड़े अभियोजक के रूप में की। कबीर ने गुरु की जो कल्पना की है उसमें सच्चे आलोचक के भी दर्शन होते हैं:
गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट
अंतर हाथ सहार दै बाहर मारै चोट
प्रेमचन्द ने गोदान के पहले ही पेज पर होरी से कहलवाया था कि "जब दूसरे के पांवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पांवों को सहलाने में ही कुसल है"। लेकिन रघुवीर सहाय को लोग अपनी किसी परिस्थिति के कारण नहीं, "आदतन" ख़ुशामद करते दीख पड़ते हैं। वह भी इतने सर्वव्यापी ढंग से कि ऐसा न करने वाले को मानो दिन में चिराग़ लेकर ढूँढना पड़ता है। मुक्तिबोध भी आम लोगों की कमज़ोरियों को चिह्नित करते हैं लेकिन वे लोग उनकी आत्मा के अंश से गढ़े जाते हैं इसलिए वे कभी अकेले नहीं छूटते। "अँधेरे में" का यह अंश देखें:
"अब तक क्या किया,/जीवन क्या जिया!!/ बताओ तो किस- किस के लिए तुम दौड़ गए/करुणा के दृश्यों से हाय मुँह मोड़ गए,/ बन गए पत्थर;/ बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,/ दिया बहुत-बहुत कम,/ मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!"
आलोचना मुक्तिबोध की भी पर्याप्त कठोर है लेकिन वे अपने लोगों से मुख़ातिब होते हैं, उनसे संवाद करते हैं, और उनकी लानत-मलामत करते हुए भी अफ़सोस और दुख महसूस करते हैं।इसीलिए वे अपने पाठकों को रूपांतरण की राह में आगे बढ़ने को प्रेरित कर पाते हैं।
इधर रघुवीर सहाय की कविता में "निर्धनता" है जो "अपने बदले में" कुछ न कुछ मांगती रहती है। ज़ाहिर है, यह शिकायत ग़रीबों से है जो बक़ौल कवि मानो अपना पेट बजाकर हमेशा कुछ मांगा ही करते हैं। बदले में एक बार फिर हमारा कवि ऐसा न करने वालों को "कहीं से" ढूंढ कर लाने की मांग करता है और आत्मसम्मान के सबूत के रूप में उन्हें "एक बार" आंख से आंख मिलाने को कहता है। यह नाज़ुक मसला ग़रीब और दुखी लोगों के प्रति नज़रिए से जुड़ा हुआ है। हर संवेदनशील कवि को इसका सामना करना पड़ता है। लेकिन प्रत्येक कवि इस पर एक जैसी प्रतिक्रिया नहीं देता। यहां हम आधुनिक हिंदी कविता के दो निर्माता कवियों की इसी विषय पर लिखी कविता उद्धृत करके उनकी संवेदना के बीच मौजूद फांक का अनुभव करेंगे। पहली कविता निराला की "भिक्षुक" है और दूसरी पंत की "वह बुड्ढा"। आइए पहले निराला की कविता का आरंभिक अंश देखें:
"वह आता------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता/ पथ पर आता।/ पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,/ चल रहा लकुटिया टेक,/ मुट्ठी भर दाने को----- भूख मिटाने को/ मुँंह फटी पुरानी झोली का फैलाता-------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।"
अब पंत की कविता "वह बुड्ढा" की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें:
"बैठ , टेक धरती पर माथा,/ वह सलाम करता है झुककर,/ उस धरती से पांव उठा लेने को/ जी करता है क्षणभर।...................गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,/ लुंगी से ढाँपे तन,/ नंगी देह भारी बालों से,/ वनमानुष सा लगता वह जन/ भूखा है: पैसे पा, कुछ गुनमुना,/ खड़ा हो, जाता वह नर,/ पिछले पैरों के बल उठ/ जैसे कोई चल रहा जानवर!/ काली नारकीय छाया निज/ छोड़ गया वह मेरे भीतर,/ पैशाचिक-सा कुछ दुखों से/ मनुज गया शायद उसमें मर!"
सम्भव है पन्त की कविता उस गरीब बुड्ढे व्यक्ति के प्रति हमदर्दी से शुरू हुई हो, लेकिन तुरन्त ही उनका आभिजात्य उनके मन में उसके प्रति नफ़रत भर देता है, और अंततःउसे जानवर के स्तर तक गिरा देता है। जबकि निराला की कविता में, भीख मांगने की मजबूरी में भी एक मनुष्य की भावनाओं का आलोड़न और उसको देखने वाले के मन में उसकी प्रतिक्रिया का मार्मिक अंकन हुआ है। यह जनसमुदाय से आत्मिक और भावनात्मक रूप से जुड़े हुए कवि की संवेदना और जनता के प्रति सहानुभूति के बनावटी आग्रह के बीच का फ़र्क़ है। दूसरी श्रेणी के कवि जनता का पक्ष चुनने के अपने निर्णय को इतना अधिक महत्व देते हैं कि मनमाफ़िक परिवर्तन न होने पर वे जनता पर ही खीज और झल्लाहट उतारने लगते हैं। रघुवीर सहाय की कविताएं उनको इसी श्रेणी में ले जाती हैं।
निर्धनता का अपने बदले में कुछ मांगना मूलतः "आत्मदया" की प्रवृत्ति है, यानी अपनी दुरवस्था का प्रदर्शन करके पूरी दुनिया से प्रेम, सहानुभूति वगैरह की अपेक्षा रखना। हमारे समाज की यह एक गहरी समस्या है जिसका सामना हमारे अनेक कवियों ने किया है। इनमे से रघुवीर सहाय से किंचित वरिष्ठ दो कवियों मुक्तिबोध और त्रिलोचन का एक-एक उद्धरण देखते हैं:
"दुखों के दाग़ों को तमगों-सा पहना,/अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,/ असंग बुद्धि व अकेले में सहना,/ ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गई तलघर,/ अब तक क्या किया,/ जीवन क्या जिया!!" (मुक्तिबोध,"अंधेरे में")
"जिस समाज मे तुम रहते हो/यदि उसकी करुणा ही करुणा/ तुमको यह जीवन देती है/ जैसे दुर्निवार निर्धनता/ बिल्कुल टूटा-फूटा बर्तन घर किसान के रक्खे रहती/ तो यह जीवन की भाषा में/ तिरस्कार से पूर्ण मरण है।" (त्रिलोचन, "जिस समाज में तुम रहते हो")
इन दोनों कविताओं में लोगों की आत्महीनता और आत्मदया की प्रवृत्ति को पहचानकर उसका प्रतिवाद किया गया है, लेकिन इस प्रवृत्ति के शिकार लोगों के प्रति हमदर्दी के साथ। यह हमदर्दी इस समझ से आती है कि ये कमज़ोरियाँ आम लोगों में उनकी परिस्थितियों के चलते आती हैं और मानव समाज के एक सदस्य के रूप में कहीं न कहीं हम भी उन परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन कमज़ोरियों में साझा करते हैं। मुक्तिबोध की कविता का पात्र "दुखों के दाग़ों को तमगे सा" पहनता है लेकिन समाज से कटे होने के कारण (असंग बुद्धि ) अपने मानसिक उद्वेलन को अकेले में सहता है जिससे उसकी ज़िन्दगी तहख़ाने में बदल जाती है।
त्रिलोचन की कविता में समाज की करुणा पर पूरी तरह से आश्रित व्यक्ति का जीवन भी "मरण" के ही समान माना गया है। लेकिन ऐसी परिस्थिति के शिकार व्यक्ति पर कोई आक्षेप न करते हुए उसे सहारा देकर सचाई बताने का यत्न किया गया है। इधर रघुवीर सहाय की कविता में जो मनोवृत्ति सक्रिय है उसे ग़रीबों और भिखारियों में कोई फ़र्क़ नहीं मालूम पड़ता। ग़रीबों से सिर्फ़ एक बार आंख मिलाने की मांग कुछ इस तरह की गई है जैसे आजकल कुछ लोग मुसलमानों से देशभक्ति प्रदर्शित करने का आग्रह करते हैं। अच्छा! तो आप ग़रीब होने के बावजूद आत्मसम्मान रखते हैं। ठीक है, एक बार आंख से आंख मिलाकर दिखाइए।
दरअसल, ये अतिसरलीकरण के दोष से ग्रस्त वक्तव्य हैं, जिनकी वास्तविक चोट उन्हीं लोगों पर पड़ती है जिनकी तरफ़दारी का दम कवि भरता है। यह कहने पर कि लोगों में शर्म, ग़ैरत और प्रतिरोध जैसे गुणों का ख़ात्मा हो गया है, चोट उन्हीं पर पड़ती है जो इन मानवीय गुणों को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे होते हैं। जो सचमुच बेग़ैरत और चाटुकार हैं उन्हें तो इस विचार से राहत ही मिलती है कि हम्माम में सभी नंगे हैं। जिस तरह सभी भारतीयों को भ्रष्ट कहने पर भ्रष्टाचारी की तो बांछें खिल जाती हैं और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जो व्यक्ति इन प्रलोभनों से परहेज कर रहा है, वह अपने को अकारण लांछित होता हुआ पाता है। इसी तरह आमलोगों को आदतन ख़ुशामद करने वाला, ग़रीबी का सौदा करने वाला, और आत्मसम्मान से हीन कहने पर जनसमुदाय में व्याप्त इन प्रवृत्तियों को बच निकलने की राह मिल जाती है-----जब सभी ऐसे ही हैं तो कोई क्या कर सकता है-----और इन प्रवृत्तियों से जूझने वाले लोग अन्यायपूर्ण ढंग से ख़ुद को कटघरे में खड़ा पाते हैं। इस प्रकार तमाम सदिच्छा के बावजूद ऐसे अतिसरलीकृत वक्तव्यों के निहितार्थ जनविरोधी होते हैं।
इस संबंध में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि आम लोगों में व्याप्त "ख़ुशामद" की जिस कमज़ोरी को यह कविता अपना निशाना बनाती है, उसके एक निकृष्ट रूप "आदतन ख़ुशामद" को अपने प्रतिपक्ष के रूप में चुनती है। यह चुनाव ही तय कर देता है कि कविता कोई नई ऊंचाई नहीं पा सकेगी। ख़ुशामद करने का आदी होने का अर्थ है, उसीमें संतुष्टि व सुख पाना, ग़ुलामी की मानसिकता में रच-बस जाना। ऐसे लोग भला किस सम्मान के योग्य होंगे? इस तरह अपने प्रतिपक्ष के हीनतर रूप को हमले के लिए चुनकर कविता अपने पतन की राह ख़ुद चुन लेती है।
(जारी)

काव्यशास्त्रविनोद-९: बहस की लोकतांत्रिक संस्कृति के पक्ष में

प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना कहा था।इसका एक अभिप्राय यह भी है कि साहित्य जीवन के तमाम पहलुओं के बारे में कुछ कहता है। इन पहलुओं का एक वर्गीकरण "आत्म" और "पर" के रूप में भी हो सकता है, यानी "अपने" और "दूसरों" के बारे में कुछ कहना। अपने बारे में बात करने के अपने ख़तरे हैं। आत्मदया, आत्मश्लाघा और आत्ममोह तक इनमें से तमाम ख़तरों की पहचान की जा चुकी है। फ़िलहाल हम यहां दूसरों के बारे में कही जाने वाली बात यानी परचर्चा की कुछ विशेषताओं पर ध्यान देंगे ताकि ऐसा करने वालों का ख़ुद का मूल्यांकन हो सके।
जब हम दूसरों के बारे में कुछ कहते हैं तो दूसरों से अधिक अपने बारे में बता रहे होते हैं। दूसरों के बारे में हम जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके बारे में हमारी राय होती है। इस राय के पीछे हमारा दृष्टिकोण होता है और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा होती है। हमारी राय किसी के बारे में पूरी तरह ग़लत भी हो सकती है, लेकिन उस राय में निहित हमारा दृष्टिकोण और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा हमारी असलियत को उजागर करने वाले प्रामाणिक और विश्वसनीय माध्यम होते हैं। कौवा और कोयल एक जैसे लगते हैं लेकिन जैसे ही मुँह खोलते है अपनी पहचान करा देते हैं।
इससे पहले "प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध" के प्रसंग में हमने ज़िक्र किया था कि जब हम किसी की आलोचना करते हैं तो उस समय हमारी अपनी शक्ति की भी परीक्षा होती है। अगर हम किसी सबल प्रतिपक्षी को मनमाने तर्कों से अत्यधिक कमज़ोर,हास्यास्पद अथवा अप्रासंगिक बताने लगते हैं तो इससे यही पता चलता है कि हमारी अपनी सामर्थ्य विरोधी के घुटनों तक ही पहुंच पाने की है इसलिए हम उसके पूरे क़द का अंदाज़ा न पाकर उसके घुटनों पर ही वार कर रहे हैं।
इस नज़रिये का रिश्ता हमारे लोकतांत्रिक रवैये से भी है। किसी वैचारिक संघर्ष में जब हम अपने विरोधी को उसकी समस्त शक्ति और संभावना के साथ देखते हैं तो उसके दृष्टिकोण में स्थित यत्किंचित सकारात्मकता को पहचानने और उसकी सराहना करने में सक्षम होते हैं।यहां तक कि इस दौरान कभी हम विरोधी के विचारों से प्रभावित होकर अपने दृष्टिकोण को बदलने को भी प्रेरित हो सकते हैं।यही वैचारिक बहस की ख़ूबसूरती है।अगर हम दोनों में से किसी भी एक पक्ष के रूपांतरण की संभावना को सिद्धांत रूप में स्वीकार नहीं करते तो सार्थक और ईमानदार बहस नहीं कर सकते। दूसरी तरफ़ अगर हम प्रतिपक्षी के संभावित प्रबलतम पक्ष से टकराते हुए उसका निषेध करने में सफल होते हैं तो उसका समूल विनाश हो जाता है। पुराने शत्रु की वापसी असंभव हो जाती है और संस्कृति के क्षेत्र में संघर्ष अगले चरण में पहुंच जाता है।
हिंदी कविता का इस दृष्टि से अध्ययन करने पर कुछ रोचक नतीजे निकलते हैं। अब तक रचनाकार के बयान के आधार पर ही उसके उद्देश्य और उसकी पक्षधरता की पहचान की जाती रही है। फिर इसी आधार पर बड़ी आसानी से रचना की अंतर्वस्तु खोज ली जाती है। उस अंतर्वस्तु की समाज में क्या भूमिका है यह पता लगाकर रचना की सामाजिक भूमिका की पड़ताल भी पूरी हो जाती है। दूसरे शब्दों में, अब तक हिंदी आलोचना ने रचना के अपने बारे में दिए गए वक्तव्य यानी रचनाकार की मंशा को एकांगी रूप से अत्यधिक महत्व दिया है। अगर हम रचना में दूसरों के प्रति व्यक्त किये गए नज़रियों, ख़ासकर विरोधी प्रवृत्तियों से संघर्ष के तौर-तरीक़ों पर ध्यान केंद्रित करें तो कई चौंकाने वाले परिणाम मिलते हैं। "काव्यशास्त्रविनोद" की आगामी कड़ियों में यही छानबीन की जाएगी।

काव्यशास्त्रविनोद-८: मुख़्तार साहब का सपना

(अमरकांत की कहानी "डिप्टी कलेक्टरी" पर कुछ विचार)

अमरकांत की कहानी डिप्टी कलेक्टरी हिंदी की कथा परम्परा में लगभग एक प्रतिमान की हैसियत पा चुकी है। शायद ही कोई आलोचक हो जिसने कभी न कभी इस पर विचार न किया हो। नामवर सिंह समेत लगभग सभी आलोचकों ने एक स्वर से इस कहानी को आज़ादी के बाद बनी व्यवस्था में सामान्य भारतीयों की आकान्क्षाओं की पूर्ति न हो पाने के चलते व्यवस्था से मोहभंग की कथा माना है। इसकी वजह कहानी में शकलदीप बाबू की अपने बेटे को डिप्टी कलेक्टर बनाने उत्कंठा; इसके लिए लम्बी प्रतीक्षा; और अंततः निराशा है।
ये शकलदीप बाबू कचहरी में काम करने वाले वही मुख़्तार साहब हैं जो कहानी शुरू होते ही पत्नी के सामने बेटे पर आगबबूला होते हैं क्योंकि वह बेरोज़गार है। दो बार इम्तेहान में असफल हो चुका है। पत्नी के विपरीत उनका मानना है कि तीसरी बार एग्ज़ाम देने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि "अगर सभी कुक्कुर काशी ही सेवेंगे तो हंडिया कौन चाटेगा?" बहरहाल वे शीघ्र ही चेत जाते हैं; पैसे की व्यवस्था करके खुद पूजा अर्चना में डूब जाते हैं। जिस दिन उनके बेटे को एग्जाम देने जाना है;स्टेशन पर आकर चलती गाड़ी में उसे प्रसाद देते हैं और किसी के पूछने पर बताते हैं कि पैसे दिए हैं। परिणाम आने से पहले ही वे रोज़ भोर में बेटे के चुन लिए जाने का सपना देखते हैं; जी भरकर मन के लड्डू खाते हैं और घूम घूम कर शेखी मारते हैं। परिणाम जब उल्टा निकलता है तो सकते में आकर चिन्तित होते हैं कि बेटा इस सदमे को कैसे झेलेगा। बेटे को सोता हुआ पाकर और उसकी साँस चलती हुई देख वे राहत की साँस लेते हैं।
हमारे समाज में डिप्टी क्लेक्टरी का एकमात्रअर्थ है अचानक अपने बराबर वालों से बहुत ऊपर उठ जाना। साहब बहादुर बन जाना। ब्रिटिश ब्यूरोक्रेसी का चरित्र ऐसा ही था लेकिन आज़ादी के बाद भी ये रवैया बदस्तूर क़ायम है। कहानी में इसी मानसिकता का पर्दाफाश किया गया है। नारायण के डिप्टी कलेक्टर होने की आशंका मात्र पर मानो पूरा शहर शकलदीप बाबू को बधाई देने उमड़ पड़ता है। कहानी की मनोरचना औपनिवेशिक है पर यह बाक़ायदा सूचना देकर आज़ादी के बाद घटती है। हमारी आज़ादी की यही विडंबना इस कहानी का मूल कथ्य है। यह किसी प्रतिक्षा या मोहभंग की कहानी नहीं है।
यह किसी पीढ़ी की कहानी भी नहीं है। ये संस्कार पूरे समाज के थे और आज भी बनेे हुए हैं। भीष्म साहनी की कहानी "चीफ की दावत" में शामनाथ बाबू युवा पीढ़ी के हैं। वे नौकरी में प्रमोशन के लिए अपनी माँ का और माँ जैसी ही लोक परम्परा का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ शकलदीप बाबू बेटे का इस्तेमाल करते हैं। नारायण नामका यह नौजवान पूरी कहानी में एक शब्द भी नहीं बोलता। न ही वह कहीं सामने आता है। उसके बारे में हर सूचना उसके माँ बाप की बातों और गतिविधियों से मिलती है। बेकारी में वो बाप की गालियाँ सुनता है;इम्तेहान की तैयारी करता है और असफल होकर सो जाता है। ज़ाहिर है की उसका चित्रण पिता की इच्छापूर्ति के साधन के रूप में हुआ है। अतीत के हाथों भविष्य के दुरूपयोग का यह चित्र जितना उदघाटक है उतना ही त्रासद।
डिप्टी कलेक्टरी का यह सपना शकलदीप बाबू ने कचहरी में मुख्तारी करते हुए पाला था। मुख्तारी के दाव पेंच का इस्तेमाल घर में करने से वे कतई नहीं चूकते। उनके सारे फैसले सफलता असफलता की संभावना से तय होते हैं। सफलता की उम्मीद में उन्होंने ज़मीं आसमान एक कर दिया था। असफल होने के बाद वे फिर कहेंगे---सभी कुक्कुर। नारायण इसे जानता है इसीलिये उसने इस बार जी जान लगा दिया था। कहानी में नारायण की मुक़म्मल ख़ामोशी और रिजल्ट के बाद पिता की बेचैनी के बरक्स शान्तिपूर्वक सोना इस बात का पर्याप्त सबूत है की यह अभियान उसका नहीं था। आलोचक इसे नोट नहीं कर सके क्योंकि उनकी संवेदना नारायण की अपेक्षा शकलदीप बाबू के निकट पड़ती थी।

काव्यशास्त्रविनोद-७: संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर

मुक्तिबोध की एक अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध कविता "गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे" में वाचक की अंतरात्मा उसे यह चेतावनी देती है:
निष्कर्ष निर्झर लहर प्राकृत वन्य और असभ्य है
वह मान्य ड्राइंगरूम संस्कृति से तुम्हें हटवायेगी
वह कान पकड़ेगी, उठाकर फेंक देगी
अजनबी मैदान में
घर बार सब छुड़वायेगी
तुमको अजाने देश में
गिरि कंदरा में जंगलों में सब जगह
भटकायेगी।
प्रसंग वाचक के सत्य की राह में दीक्षित होने का है।आगे चलकर वाचक के अंतरतम से सिक्के का दूसरा पहलू भी उभरता है:
अतः आदेश उसके मान
यदि तुम निकल जाओ
वह जहाँ भी जाय
तो तुम पाओगे अभिप्रेत
संकट कष्ट के चट्टान के भीतर फँसा हीरा
निकल दमकायेगा चेहरा तुम्हारा श्याम
किन्तु यदि माना नहीं आदेश,
स्वयं निष्कर्ष तुमको रगड़ देंगे
नष्ट कर देंगे
जहाँ रुक जाओगे।
तय नहीं आधे किये जाते रास्ते
इस रास्ते पर धरमशाला डाकबंगला भी नहीं है
सत्य को अनुभूत करना सहज है
मुश्किल बहुत
उसके कठिन निष्कर्ष मार्गों पर चले चलना
क्रान्तिकारी और मध्यमार्गी चेतना के बीच एक बुनियादी अंतर यह होता है कि क्रांतिकारी चेतना अपने उद्देश्य की तार्किक परिणति को समझती है, और वहां तक पहुंचे बिना उसे सफलता का बोध नहीं होता। वह उद्देश्य कैसा भी अव्यावहारिक, अप्राप्य अथवा ख़तरनाक बताया जाता हो, वह अंतिम सांस तक उसके लिए प्रयत्न करती है। उसे अपने लक्ष्य में पूरा भरोसा होता है, और किसी निश्चित समय में उसे हासिल करने की ज़िद भी नहीं होती। व्यापक उद्देश्य पूरे समाज की ज़रूरत होते हैं और उन्हें पाने में कई पीढियां खप जाती हैं। इसलिए विषम परिस्थिति में निराशा उसमें घर नहीं कर पाती, विफलता के क्षण में वो नए रास्तों की खोज करती है। जबकि मध्यमार्गी-उदारवादी चेतना कई बार सामान्य मानवीय आवश्यकताओं और उद्देश्यों को भी अतिवादी और सैद्धांतिक मान लेती है। अपने उदारवादी लक्ष्यों की पूर्ति की राह में भी कई बार वह बीच में ही थक हार कर बैठ जाती है, और जो कुछ थोड़ा बहुत हासिल हुआ उसी को गनीमत मान लेती है।
बहरहाल, मध्यमार्ग की भी समाज में अपनी सकारात्मक भूमिका है, लेकिन फ़िलहाल यहाँ वह विचारणीय नहीं है। क्रांतिकारी उद्देश्यों को अधबीच में छोड़ने वाली कोई संस्था, संगठन या व्यक्ति इस सकारात्मकता का दावा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में इनके अंदर पाखंड और लफ़्फ़ाजी का बोलबाला हो जाता है, जो इन्हें पतन की अंधी सुरंग की ओर ले जाता है। इससे समाज में भी दिग्भ्रम, निराशा और पराजय की धारा बलवती होती है। हमारे समाज में चौतरफ़ा इसके साक्ष्य मिल सकते हैं। इसलिए विचार के अनुरूप व्यवहार अथवा ज्ञान के अनुरूप कर्म, जो मुक्तिबोध का सबसे पहला और सबसे बढ़कर सरोकार है, पर खरा उतरने की चेतावनी वाचक को उसके मन मस्तिष्क से ही मिलती है। व्यक्ति के अंतर्जगत की इस भूमिका को मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष या आत्मालोचन कहते थे, लेकिन आजकल मंगलेश डबराल जैसे उनके कुछ अन्यतम प्रशंसक इसे आत्मग्लानि और अपराधबोध कहते हैं। ऐसा वे बाक़ायदा ग्राम्शी को कोट करते हुए करते हैं कि ग्राम्शी ने ग्लानि और अपराधबोध को क्रांतिकारी भाव कहा था। हमारा यह कहना है कि ग्राम्शी ने किस सन्दर्भ में क्या कहा था यह देखना होगा, लेकिन एक बात तय है कि न तो उन्होंने यह सब मुक्तिबोध के बारे में कहा था और न ही ग्लानि और अपराधबोध के अलावा और किसी क्रान्तिकारी भाव के होने से इंकार किया था। ऐसे में इन सबको मुक्तिबोध के मत्थे मढ़ने का क्या तुक है। यह आपत्तिजनक इसलिए भी है कि मुक्तिबोध के विचारों के अनुसार, समझौतापरस्ती की राह चुनने वालों को अपराधबोध के सहारे क्रांतिकारी तो क्या सचाई का दावेदार भी मानना मुश्किल है, जैसा कि उपरोक्त काव्यांशों से स्पष्ट होता है।

काव्यशास्त्रविनोद-६: सकारात्मक निषेध का पैमाना

आधुनिक सभ्यता का स्वतंत्रता और समानता लाने का दावा वैसे तो बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते कमज़ोर पड़ने लगा था पर इसके नवें दशक में एक ध्रुवीय दुनिया की स्थापना के साथ ही यह ख़ामख़याली साबित हो गया। विकास और नवनिर्माण के सपनों की जगह येनकेनप्रकारेण मतलबसिद्धि ने ले ली। गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और लूटखसोट को स्वीकार्य और कई बार प्रशंसनीय तक माना जाने लगा। ऐसे में मानवीय चेतना का विकास बाधित हुआ और चौतरफ़ा घुटन व्याप्त हो गई। इस परिस्थिति में हमारी चेतना में नकारात्मकता ने सकारात्मकता की जगह लेनी शुरू कर दी। अब हम ख़ुद अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप आगे बढ़ने के बजाय दूसरों की ख़ामियाँ तलाशने और उन्हें असफल करने की कोशिश में लग गए। वर्तमान में इसका सबसे अच्छा उदाहरण आम चुनावों में स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक देखने को मिलता है। इसमें हम प्रत्याशियों और उनकी पार्टियों को उनकी सकारात्मक योजना के आधार पर नहीं बल्कि कोई दूसरा, जिसे हम नापसन्द करते हैं, न जीत जाए इसलिए समर्थन देते हैं। इस नापसन्दगी का कारण व्यक्तिगत रंज़िश से लेकर जाति,धर्म,क्षेत्र,लिंग कुछ भी हो सकता है। यानी कोई भी ऐसा कारण जो मतदाता के रूप में हमें अपने स्वाभाविक सरोकारों और हितों से विमुख कर सकता हो। भारत से लेकर अमरीका तक होने वाले चुनावों में यह बात आसानी से देखी जा सकती है। दैनंदिन जीवन में भी हमारा आचरण इससे कुछ हटकर नहीं होता। शत्रु के शत्रु को मित्र बनाना हमारी समझदारी का चरम तकाज़ा बन गया है, इसलिए न तो हम अपनी सहमतियों में खरे होते हैं न असहमतियों में स्पष्ट। न जाने कब किससे काम पड़ जाये।
भाषा में प्रचलित कहावतें हमारी प्रवृत्तियों की सूचना देते हैं। अंग्रेज़ी की परंपरागत कहावत--- "ए मैन इज़ नोन बाय द कम्पनी ही कीप्स", अब सार्थक नहीं रह गयी है। हमारे साथी अब हमें परिभाषित नहीं करते क्योंकि हमारा साथ अब दूरगामी सहमति और साहचर्य पर आधारित नहीं रहा। अब तो हम किसी संयुक्त दुश्मन को रोकने के लिए तात्कालिक लक्ष्य से संचालित होकर हाथ मिलाते हैं। इसलिए अब हमारे विरोधी ही किसी हद तक हमें परिभाषित करते हैं। आज के दौर की कहावत होनी चाहिए--"ए परसन इज़ नोन बाय हिज/हर एनेमीज़"।
अपने विरोधियों को किसी प्रकार परास्त करने की इस प्रवृत्ति को अपने प्रतिपक्ष का नकारात्मक निषेध कह सकते हैं। ज़ाहिर है कि यह प्रवृत्ति हमें तात्कालिकता के दलदल में फँसा देती है और हम अंततः अपने ही विकास को अवरुद्ध करने लगते हैं। इससे बचने के लिए अपनी विरोधी शक्तियों की पहचान करने और उनसे लड़ने का नया नज़रिया विकसित करना होगा। सौभाग्य से हिंदी साहित्य में स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, लोकतंत्र, न्याय, इहलौकिकता और ऐंद्रियता को लेकर कोई विवाद नहीं है। इन मूल्यों के विरुद्ध खड़े होने वाले विचारों और रचनाओं को ही हमने अपने विरोधियों के रूप में पहचाना है और इसीसे आज हमारी पहचान है। यानी दुश्मनों की पहचान साफ़ है, उनकी क़तारबंदी भी दिख रही है, बस उनसे लड़ने के तरीक़े को तय करना है।
इस बिंदु तक आते आते हमारा विमर्श किसी युद्ध में आमने सामने खड़ी सेनाओं के रूपक में बदल गया है। युद्ध का यह रूपक वैसे तो उचित और कारगर है, लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए हमारा मैदाने-जंग साहित्य और संस्कृति है। इटली के प्रसिद्ध विचारक ग्राम्शी ने एक बात कही थी जो इस मोड़ पर हमें रास्ता दिखा सकती है। उन्होंने कहा था कि सैनिक संघर्ष में दुश्मन के सबसे कमज़ोर मोर्चे पर वार करना चाहिए और वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष में उसके सबसे मज़बूत मोर्चे पर। वे मानते हैं कि सैनिक शक्ति के बल पर केवल दमनकारी सत्ता का निर्माण किया जा सकता है जिसके माध्यम से सामंती युग में तो शासन किया जा सकता था, लेकिन आधुनिक युग में नागरिकों की सहमति किसी भी सत्ता के लिए अनिवार्य है और यह सहमति सांस्कृतिक -वैचारिक वर्चस्व से निर्मित होती है।
अब इस बात पर ग़ौर करें कि साहित्य, संस्कृति, विचार अथवा कला के मोर्चे पर दुश्मन के सबसे मज़बूत पक्ष से मुक़ाबला करने का क्या मतलब है। सैनिक संघर्ष में तो सबको पता है कि दुश्मन जहाँ कमज़ोर है वहीं प्रहार करके उसकी शक्ति को नष्ट करने की कोशिश होती है , अन्यथा मुंह की खानी पड़ती है और अपने सफाए का ख़तरा भी पैदा हो जाता है। लेकिन विचारों के क्षेत्र में ऐसा क्या है जो इसका उल्टा करने को विवश करता है।
रोज़मर्रा की बहसों में हम देखते हैं कि बहुत से लोग अपने प्रतिद्वंदी की बात का अन्यथाकरण करके या उसकी सबसे ओछी व्याख्या करके अपने औचित्य का प्रतिपादन करते हैं। मिसाल के लिए अगर आपने उनसे कहा कि राज्यसत्ता और उसके सशस्त्र बलों को नागरिकों के लोकतान्त्रिक अधिकारों का सम्मान करना चाहिए तो वे इसके वास्तविक सन्दर्भों के बारे में बात करने के बजाय सशस्त्र बलों की कुर्बानियों की चर्चा करते हुए आपकी बात को आतंकवाद समर्थक और देशद्रोही की कोटि में डाल देते हैं। इसी प्रकार अगर आप अतीत के किसी बड़े लेखक पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं तो उनका कोई समर्थक आपके तर्क पर विचार करने और उसका जवाब देने के बजाय आपके अपने योगदान की छानबीन करके आपको हैसियत बताने लगता है। सरकार की किसी अनुचित बात की आलोचना का जवाब देने के बजाय उसे देश को बदनाम करने की साज़िश के रूप में देखना भी ऐसी ही प्रवृत्ति का काम है।
बहुत पहले रेणु ने कहा था कि विचारों की दीवार में अगर हाथी की पूँछ के बराबर भी छेद छूट गया तो उस छेद से पूरा हाथी निकल जाता है। आशय यह कि कला, दर्शन, और विचार के क्ष्रेत्र में अगर कोई छोटी-सी असंगति या झोल हो तो उस विचार से वांछित नतीजे निकलना तो दूर अनर्थ होने की संभावना ही अधिक है। मसलन, अगर आप फ़ासीवाद का विरोध कर रहे हैं और उनको चोट भी पहुँचा रहे हैं, पर उनके अंधराष्ट्रवाद को लेशमात्र भी स्वीकार कर रहे हैं तो, आपको देरसवेर उनके सामने समर्पण करना होगा या उनसे निर्णायक पराजय झेलनी होगी।
यह बात ध्यान रखने की है कि हम विशुद्ध तर्कशास्त्रीय प्रविधी की चर्चा यहाँ नहीं कर रहे हैं। यहाँ प्रसंग सत्य और असत्य तथा न्याय और अन्याय की शक्तियों के बीच होने वाले सांस्कृतिक-वैचारिक संघर्ष का है। हिंदी साहित्य सत्य और न्याय की पक्षधर शक्तियों के साथ है, इसलिए उसे इन मुद्दों का ध्यान रखने की ज़रूरत है। असत्य और अन्याय की पक्षधर शक्तियाँ सही मायने में न तो कोई तर्क देती हैं , न बहस करती हैं। वे केवल गाल बजाना जानती हैं और निहित स्वार्थी तत्वों को एकजुट करके बलपूर्वक ख़ुद को सही ठहराने की कोशिश करती हैं। इसलिए यह विश्लेषण उनके किसी काम का नहीं है। हाँ, सत्य और न्याय की पक्षधर शक्तियों को यह जान लेना चाहिए कि उनकी दीवार के छेद से उनके विरोधी तो अपना हाथी निकल लेंगे लेकिन ख़ुद उन्हें अपने विरोधियों की दीवार की सबसे मज़बूत ईंट निकालनी होगी और उसे ध्वस्त करना होगा, अन्यथा हाथी तो क्या चूहा भी नहीं निकल सकता।
दूसरे शब्दों में, असत्य और अन्याय की शक्तियों के साथ चलने वाली इस सतत बहस में हमें अपने विपरीत पक्षों और विचारों के सर्वश्रेष्ठ को सामने लाकर उनका अतिक्रमण करना होता है। तभी हम सही मायने में उनका निषेध कर पाते हैं। अगर विरोधी पक्ष के तर्कों में तनिक भी संभावना शेष रह जाती है तो वह हमारी कमज़ोरी का साक्ष्य होती है, और उसके चलते हमारे सामने विरोधी विचारों की शक्ति बढ़ती चली जाती है। वे हमारी कमज़ोरी से शक्ति पाते हैं लेकिन हम उनकी कमज़ोरी से कोई शक्ति नहीं पाते। हम उनकी शक्ति और क्षमता से प्रतिस्पर्द्धा करके ही विचारों के संघर्ष में बढ़त हासिल करते हैं।
इस संबंध में एक बात और ध्यान रखने की है कि जब हम न्याय और अन्याय की शक्तियों के बीच विचार या कला के क्षेत्र में संघर्ष की बात करते हैं तो उसका आशय यह नहीं होता कि हमारे सामने हमेशा सचेत रूप से हमारा विरोध करने वाली शक्तियां ही होती हैं। प्रायः ऐसी शक्तियां अत्यन्त भोंडे स्तर पर सक्रिय होती हैं और विचारों के क्षेत्र में कोई वास्तविक चुनौती पेश नहीं कर पातीं। उनका ज़ोर जिसकी लाठी उसकी भैंस पर होता है और उसी के बल पर वे बहस का दिखावा करती हैं। विचारों के क्षेत्र में वास्तविक संघर्ष हमें ख़ुद अपने भीतर मौजूद, अपने पक्ष में पाई जाने वाली कमज़ोरियों, भ्रमों और भटकावों से चलाना पड़ता है। यही भ्रम और भटकाव हमारी वैचारिक दीवार में दरार बनाते हैं और अंततः हमें निहत्था करने के काम आते हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी प्रमुख संघर्ष इसी प्रवृत्ति से है। जैसा कि मुक्तिबोध ने कहा था:
बुरे अच्छे बीच के संघर्ष से भी उग्रतर
अच्छे और उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि सांस्कृतिक क्षेत्र के संघर्ष की प्रकृति पर समुचित ढंग से विचार किया जाए। हमारा इस संबंध में प्रस्ताव यही है कि विचार और रचना के क्षेत्र में हम जिस प्रवृत्ति को निशाना बनाते हैं अगर उसके सर्वश्रेष्ठ रूप को इस काम के लिए नहीं चुनते तो ग़लती करते हैं और हमारा निशाना चूक जाता है। अपने प्रतिपक्ष को उसकी समूची शक्ति और संभावना के साथ विचार या रचना का विषय बनाने पर ही हम उसका अतिक्रमण कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में प्रतिपक्ष की यत्किंचित सकारात्मकता हमारे अपने एजेंडे का अंग बन जाती है और प्रतिपक्ष पूरी तरह चुक कर निःसार हो जाता है। इसी प्रक्रिया को "प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध" करना कहते हैं।
रचना के क्षेत्र में यह प्रक्रिया तब घटित होती है जब रचनाकार अपने प्रतिपक्ष को भी सहानुभूति देता है, उसे अपनी आत्मा के अंश से रचता है। तभी पाठक अपने दिलो-दिमाग़ में छिपी उस बुराई को पहचानता है और उससे लड़ पाता है। यही रचना का उद्देश्य भी है। रचनाकार न्याय के पक्ष में होते हुए भी न्यायाधीश के ऊँचे आसन पर नहीं बैठता। सज़ा नहीं सुनाता। उसकी भूमिका एक ऐसे वक़ील की है जिसे अपराध के प्रति नफ़रत पैदा करने के साथ-साथ किसी इंसान के अपराधी बनने की प्रक्रिया की छानबीन करके उसे दुनिया के सामने लाना होता है ताकि इसकी पुनरावृत्ति से यथासंभव बचा जा सके।
कहते हैं कि आग में तपकर सोना कुंदन बनता है। संघर्ष के माध्यम से विकास प्रकृति का बुनियादी नियम है। इसलिए रचना में न्याय के पक्ष की सशक्त मौजूदगी के लिए आवश्यक है कि अन्याय भी सशक्त रूप में मौजूद हो। यहाँ सशक्त का मतलब भौतिक रूप से बलशाली और अत्याचारी किसी व्यक्ति से नहीं है। सांसारिक जीवन में शक्ति का यह अर्थ हो सकता है, लेकिन रचना में शक्ति व्यक्तित्व और चरित्र की ख़ूबियों से आती है। इन ख़ूबियों के बावजूद किसी व्यक्ति की कोई दुर्बलता उससे निकृष्टतम कोटि का अपराध करा सकती है। और तब वह हमारी घृणा का पात्र बने बिना हमारी रचना और हमारे सरोकार का विषय बन सकता है। उससे जूझते हुए, ख़ासकर उसकी ख़ूबियों से पार पाने के क्रम में हमारा अपना पक्ष भी विकसित होता है। जीवन में न्याय के पक्ष की वास्तविक कामयाबी इस बात पर निर्भर है कि वह अपने प्रतिपक्ष में मौजूद लेकिन तनिक सा भी न्यायोचित दृष्टिकोण रखने वालों को अपने पक्ष में जीत ले। रचना में इसके समानांतर चलने वाली प्रक्रिया प्रतिपक्ष के समस्त सकारात्मक पहलुओं को निचोड़कर उसे अतिक्रमित कर जाने वाली दृष्टि से ही संभव है।
लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ इस दृष्टि का स्वाभाविक रिश्ता बनता है। प्रतिपक्ष का सम्मान, उसे पूरा मौक़ा देना और उसमें मौजूद रंचमात्र सचाई को भी स्वीकार करना लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की बुनियादी अनिवार्यताएं हैं। कोई कह सकता है कि किसी गर्हित अन्याय को रचना का विषय बनाते हुए हम उसके कर्ताधर्ताओं के साथ सहानुभूति कैसे रख सकते हैं। असल में, यह दृष्टिकोण इसी समझ से जूझते हुए विकसित होता है। सामाजिक जीवन में तो गर्हित अपराधियों के प्रति घृणा का कुछ न कुछ औचित्य है, लेकिन रचना में हम इस दृष्टिकोण से संचालित होते हैं कि इंसान होने के कारण किसी दुसरे इंसान के पतन की कुछ ज़िम्मेदारी हम पर भी आयत होती है। इसलिए रचना में अपनी कल्पना से रचे गए पात्र में हम उन समस्त संभावनाओं का निवेश करते हैं जो उस पात्र को इंसान के दर्जे पर क़ायम रख सकती थीं। इसके बावजूद उसकी व्यक्तिगत, सामाजिक, पारिवारिक या मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों की कोई ऐसी ख़ासियत होती है जो उसे मनुष्यता के दर्जे से नीचे गिराने में कामयाब हो जाती है। इस तरह वह पात्र त्रासद विडम्बना का शिकार बनता है, और हम उसके पतन पर अट्टहास नहीं कर पाते, दिल ही दिल में दुखी होते हैं।बक़ौल गोरख पांडेय:
हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं
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काव्यशास्त्रविनोद-५: भाषा का स्वभाव

वाक्य में क्रिया की केंद्रीय भूमिका की नासमझी और उसके प्रति हमारी लापरवाही को एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। "पीना" हमारी भाषा की सबसे सहज क्रियाओं में से एक है। हम चाय या शरबत "पीते" हैं, लेकिन अंग्रेज़ी के सामने अपनी हीन भावना के चलते हमने अब उन्हें "लेना" शुरू कर दिया है। "टु टेक ए कप ऑफ़ टी" की तर्ज पर हम अब चाय या कॉफी "लेते" हैं, "पीते" नहीं। "आप चाय लेंगे या कॉफी" जैसे वाक्यांश अब आम तौर पर सुनने में आ जाते हैं। इसी क्रम में अब "ठंडा"या "गरम" लेने की बारी भी आ चुकी है। "पीना" की जगह "लेना" का प्रयोग कितना भ्रामक है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि अगर हम चाहते हैं कि हमारे परिवार का कोई सदस्य बाज़ार से चाय पीकर चला आये तो हम उससे यह नहीं कह सकते कि "बाज़ार से चाय लेकर आओ"। ऐसा कहने पर वह बाज़ार से चाय खऱीदकर तो ला सकता है, लेकिन पीकर नहीं आ सकता। यानी "पीना" क्रिया को अपदस्थ करने में अंग्रेज़ी अभी पूरी तरह से कामयाब नहीं हुई है। अभी इस प्रदूषण को पहचान कर इसे दूर किया जा सकता है।
यहाँ किसी "उदारतावादी" विद्वान को शुद्धतावाद का ख़तरा दिखाई पड़ सकता है और वह "भाखा बहता नीर" जैसी किसी उक्ति की आड़ में छुपने की कोशिश कर सकता है। इस संबंध में फ़िलहाल इतना ही कहना पर्याप्त है कि जैसे बहते हुए पानी में दूसरे स्रोतों का पानी भी आकर मिलता है तो उसका प्रवाह बढ़ता है, उसी प्रकार दूसरी भाषा के शब्दों को लेकर कोई भी भाषा समृद्ध होती है, लेकिन जब किसी भाषा पर उसके स्वभाव के विपरीत दूसरी भाषा की वाक्यरचना और क्रिया थोपी जाती है तो उस भाषा का वही हाल होता है जो हमने गंगा-यमुना के बहते हुए नीर का कर रखा है। इस मामले में भाषा की तुलना नदी के साथ उचित ही की गई है।
दूसरी बात अंग्रेज़ी के सामने हीन भावना की है। अंग्रेज़ी की इस भूमिका को समझ लेना इसलिए ज़रूरी है कि यह हमारी भाषा के प्रदूषण का लगभग एकमात्र स्रोत है। इसे एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। अंग्रेज़ी में पीने के लिए क्रिया "ड्रिंक" है, लेकिन सिगरेट का सुट्टा लगाने को वे "स्मोक करना" कहते हैं, जबकि हिंदी में इसे भी "पीना" ही कहते हैं। अब अगर अंग्रेज़ी के वाक्य में हिंदी की क्रिया का प्रयोग कर दें तो वाक्य बनेगा "आई ड्रिंक सिगरेट"।जब कभी मैं सामान्य पढ़े-लिखे हिन्दीभाषी लोगों के बीच इस वाक्य का ज़िक्र करता हूँ, उन्हें हंसी आ जाती है, जबकि अपनी भाषा में "पीने-लेने" के प्रसंग में इसी तरह की गलती करते हुए वे पूरी तरह सहज रहते हैं। इससे यह पता नहीं चलता कि हमारे लोग हिंदी से ज़्यादा अच्छी तरह अंग्रेज़ी को जानते- बरतते हैं। इससे सिर्फ़ यह पता चलता है कि अंग्रेज़ी की श्रेष्ठता और हिंदी की हीनता का भाव हमारे अवचेतन में घर कर चुका है। इसीलिए अंग्रेज़ी के वाक्य में हिंदी की क्रिया को घुसपैठ करते देखकर हम उसके दुःसाहस पर हंस पड़ते हैं। जबकि विदेशी भाषा होने के कारण अंग्रेज़ी के साथ यह बर्ताव व्याकरणिक रूप से ग़लत होने पर भी अधिक मानवीय और स्वाभाविक है। किसी ने कहा है कि अपनी भाषा में सामने आई क्रिया की ग़लती मुंह के कौर में आये बाल की तरह होती है जिसका एहसास हुए बिना नहीं रहता और जिसे नज़रंदाज़ करना बिलकुल नामुमकिन होता है। यह हमारी रग-रग में बसी ग़ुलामी का ही असर होगा कि हम अंग्रेज़ी के मामले में तो इस क़िस्म की संवेदनशीलता दिखाते हैं, लेकिन हिंदी के मामले में उदासीन बने रहते हैं।
इस उदासीनता को देखने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं।हम अपने आसपास ग़ौर करें तो पाते हैं कि हिंदी के किसी प्रयोग को लेकर कहीं कोई बहस दिखाई नहीं पड़ती। "अनस्थिरता" शब्द को लेकर महावीरप्रसाद द्विवेदी और बालमुकुंद गुप्त के बीच हुए लगभग सौ साल पुराने विवाद की चर्चा हम ऐसे करते हैं जैसे वे किसी और ग्रह से आये लोग थे जो ऐसी "मामूली" बातों पर अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा देते थे। आज़ादी के पहले तो फिर भी कुछ जवाब-सवाल होते थे, लेकिन उसके बाद ये तौर-तरीक़े शायद संदिग्ध मान लिए गए। इधर पिछले तीन दशक के बारे में तो मैं ख़ुद एक प्रत्यक्षदर्शी के रूप में कह सकता हूँ कि हिंदी के किसी प्रयोग को लेकर न कोई किसी को रोकता-टोकता है, न कोई किसी की बात काटता है। यह सब ग़ैरज़िम्मेदाराना अशिष्टाचार माना जाता है। एक-डेढ़ दशक पहले तक अभिनव ओझा नामके एक जागरूक पाठक की चिट्ठियाँ पत्र-पत्रिकाओं में दिखती थीं, जिनमें प्रकाशित रचनाओं में हुई भूलों की चर्चा होती थी। ऐसी कोशिशें भी हमारी उदासीनता की भेंट चढ़ गईं। ऐसा तब हुआ जबकि हिंदी में कम से कम एक अदद शिखरपुरुष, एक अदद कविकुलभूषण, एक अदद रसिक कलावंत, एक अदद दुर्वासा और लगभग एक दर्जन जनपक्षधर आलोचक सक्रिय हैं। इनके होने के बावजूद हिंदी में वैचारिक बहसों का स्तर ननद-भौजाई की हंसी-ठिठोली जैसा रह गया है। सामाजिक हलचलों और उथल-पुथल ने हमारे साहित्य को लोकतांत्रिक दिशा ज़रूर दी, लेकिन हमारी साहित्यिक संस्कृति ने उसका मार्ग प्रशस्त नहीं किया, उसकी राह में रोड़े ही अटकाए।
ग़ौरतलब है कि हम अपने वाक्यों में केवल क्रिया को नहीं बदलते बल्कि उसका काल और उसकी संभाव्यता को भी बदलकर अपने वाक्यों को पूरी तरह भोथरा कर लेते हैं। एक सर्वव्यापी उदाहरण लें। किसी भी उच्चस्तरीय साहित्यिक सभा-संगोष्ठी में बड़ी आसानी से संचालक को कहते हुए सुना जा सकता है---"अब मैं बुलाना चाहूँगा अलाँ साहब को जिन्होंने फलाँ क्षेत्र में चिलाँ तीर चलाये हैं"। न बुलाता हूँ, न बुलाना चाहता हूँ, बल्कि "आई उड लाइक टु काल यू" की तर्ज पर भविष्य में कभी ऐसा करने की इच्छा की घोषणा। सचमुच बुला लूँगा ऐसा कोई वादा भी नहीं। लेकिन "खग जानै खगही की भाषा" को चरितार्थ करते हुए वक्ता महोदय माइक पर नमूदार होते हैं और फ़रमाते हैं---"मैं फलाँ साहब का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा जिन्होंने मेरी इतनी ताऱीफ की"। इस तरह हिंदी का कारोबार भविष्य की अनिश्चित संभावना के रूप में चल रहा है, अथवा स्थगित है। हिंदी जैसी बाँकी, क्षिप्र और असरदार भाषा का दम ऐसे बोझिल और जड़ प्रयोगों से घुटता है।
एक उदाहरण और देखते चलें। हिंदी में भोजपुरी के प्रभाव से परसर्ग "ने" के विलोप पर तो कभी -कभी असहमति का अनौपचारिक इज़हार हो जाता है।यानी, मैंने कहा, मैंने खाया, मैंने गाया जैसे वाक्यों की जगह हम कहे, हम खाये, हम गाये जैसे वाक्यों को ख़ासतौर पर विद्यार्थियों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता क्योंकि इससे नौकरी के इंटरव्यू आदि में उनकी ग्रामीण जड़ों की पोल खुल सकती है। लेकिन निष्क्रियता की खुली वकालत करने वाले अंग्रेज़ी के "पैसिव वॉइस" के दबाव में हिंदी के वाक्यों के सौन्दर्य के मटियामेट होने पर मैंने किसी विद्वान को ध्यान देते नहीं देखा। हिंदी में कहते हैं कि"आपने जो किया वह मैंने देखा"। लेकिन आजकल की हिंदी में इसे कुछ यूँ कहते हैं, "आपके द्वारा किये गए कार्य को मैंने देखा"। आई सा द वर्क डन बाय यू।
कहने का आशय यह कि इंग्लैंड जैसे छोटे से द्वीप की अपनी भौगोलिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों में विकसित भाषा के प्रयोग अगर भारतीय उपमहाद्वीप के विस्तृत भूभाग में जन्मी और पली-बढ़ी भाषा पर वर्चस्व स्थापित कर लेंगे तो यह किस क़दर विनाशकारी होगा इसकी कल्पना भी आसानी से नहीं की जा सकती। इसे समझने के लिए हमें अपनी नदियों और उनमें गिरने वाले नालों को देखना होगा।
अंत में, हिंदी के स्वभाव की गतिशीलता और अंग्रेज़ी से इसके फ़र्क़ को समझने के लिए एक उदाहरण और देख लेते हैं। हिंदी में जब हम अतीत की किसी घटना का ब्यौरा देते हैं तो इसकी सूचना के साथ ही हम ख़ुद उस काल में पहुँच जाते हैं और वह घटना हमारे लिए वर्तमान काल की हो जाती है। मिसाल के तौर पर अगर हम किसी दोस्त के घर उससे मिलने गए और उसे सोता हुआ पाकर वापस आ गए तो, अगले दिन इसका ब्यौरा कुछ यूँ देंगे---"कल मैं उसके घर गया और मैंने देखा कि वह सो रहा है"। अंग्रेज़ी में इस वाक्य का प्रासंगिक अंश कुछ यूँ बनेगा---",,,,,,,,,,आई सॉ दैट ही वाज़ स्लीपिंग"। आजकल हिंदी में लगभग निरपवाद रूप से अंग्रेज़ी वाला ही प्रयोग चल रहा है, यानी "मैंने देखा कि वह सो रहा था"। इस तरह हम हिंदी की जीवंतता और सक्रियता पर अंग्रेज़ी की निष्क्रियता और अनिश्चितता को थोपकर उसके स्वाभाविक प्रवाह को रोक देते हैं।

काव्यशास्त्रविनोद-४: भाषा की भूमिका

गणेशशंकर विद्यार्थी ने कभी कहा था कि अगर मेरा देश ग़ुलाम हो रहा हो और मेरी भाषा भी दूषित हो रही हो तो, मैं पहले अपनी भाषा को बचाऊंगा क्योंकि भाषा बची रहेगी तो देश को आज़ाद कराया जा सकता है, लेकिन भाषा दूषित हो गई तो देश को ग़ुलाम होने से कोई रोक नहीं सकता। इस कथन से भाषा के महत्व पर कुछ प्रकाश पड़ता है। हममें से ज़्यादातर लोग भाषा को अभिव्यक्ति के माध्यम से अधिक कुछ नहीं समझते। जैसे ट्रेन या बस यात्रा के माध्यम हैं, वैसे ही भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। हमने जो अनुभव किया उसे भाषा में व्यक्त कर दिया। अगर वह ठीक ठाक से श्रोता अथवा पाठक तक पहुँच गया तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि भाषा का प्रयोग कैसे हुआ।कहने सुनने में यह बात चाहे जितनी अजीब लगती हो लेकिन व्यवहार में हम भाषा के साथ इसी तरह पेश आते हैं।
दरअसल, भाषा को इतना महत्व इसलिए दिया जाता है कि यह अभिव्यक्ति के साथ साथ अनुभूति का भी माध्यम है। भाषा का हर शब्द अपने अंदर किसी विशिष्ट अनुभव की स्मृति को धारण करता है। उस शब्द से परिचित होने का अर्थ है उसमें छुपी विशिष्ट अनुभूति से, उससे जुड़े तमाम विचारों से परिचित होना। इनसे परिचित होकर ही हम इनसे जुड़ी हुई या इनके बाद आने वाली धारणाओं की तरफ़ क़दम बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए दुःख, शोक, अवसाद, विषाद, पीड़ा, कष्ट, वेदना, यातना, यंत्रणा आदि एक ही वर्ग की भावनाओं को व्यक्त करने वाले शब्द हैं, लेकिन इनकी छायाएं अलग अलग हैं। जो व्यक्ति इन शब्दों को समझता है, वह अपने जीवन में इन शब्दों से जुड़ी भावनाओं को पहचान लेगा। अगर ऐसा नहीं है तो उसे इन भावनाओं में से किसी का सामना होने पर दुखद तो महसूस होगा लेकिन वह ठीक ठीक अपनी भावना को पहचान न सकेगा।
जीवन के सीमित कार्यव्यापार में संलग्न रहने वाले किसी व्यक्ति के मन में भी अनेक प्रकार की भावतरंगें उठती हैं, लेकिन कोई भाषा संपन्न व्यक्ति जैसे उन्हें अलग अलग पहचान सकता ही वैसा वह नहीं कर पाता, क्योंकि उसका काम सीमित शब्दावली से चल जाता है। उसकी शब्दसंपदा उसकी अनुभूतिक्षमता को निर्धारित करती है। किसी वस्तु को पहचानने का मतलब है उसके बारे में एक अवधारणा ग्रहण करना और उसके सहारे उस वस्तु का वर्गीकरण करना। गुड़, चीनी, बूरा, खाँड़, मिश्री जैसे शब्दों के साथ इनके अलग अलग स्वाद की अवधारणा भी हमारे दिमाग़ में सुरक्षित रहती है। अगर कोई व्यक्ति इन अवधारणाओं से परिचित नहीं है तो इन चीज़ों को आकस्मिक रूप से खाने के बावजूद वह अलग अलग इनके स्वाद की विशेषता को पहचान नहीं सकेगा। आकस्मिकता की शर्त इसलिए कि अगर वह व्यक्ति अक्सर इन चीज़ों को खाता है तो वह इनके नाम से परिचित न होने के बावजूद अपने दिमाग़ में इनके स्वाद के अनुसार इनका वर्गीकरण करना और किसी न किसी रूप में इन्हें संबोधित करना सीख जायेगा। इस प्रकार वह आवश्यक भाषा अर्जित कर लेगा। इसके बाद वह इनकी बारीकियों पर और ध्यान देकर अपनी अनुभूति क्षमता का विकास करने में सफल हो सकेगा। इसी अर्थ में भाषा अनुभूति का माध्यम होती है। वह हमारे अनुभवों की स्मृति को संरक्षित और वर्गीकृत करती है। उसके सहारे ही हम अनुभूतियों की यात्रा पर निकल पाते हैं।
भाषा से वंचित होने का अर्थ है अनुभूति के सूक्ष्म विभेदों से अपरिचित रह जाना और इस प्रकार मनुष्योचित गरिमा और संवेदना से युक्त जीवन की संभावना का न्यूनतम रह जाना। ख़ास तौर पर हमारे देश में जहाँ विशाल आबादी निरक्षर है, और जो पढ़े लिखे हैं वे भी भाषा की शक्ति के प्रति सचेत नहीं हैं, यह मुद्दा निर्णायक हो जाता है। भूमंडलीकरण के युग में देश दुनिया के बड़े बड़े कारपोरेट निगम और कंपनियां हमारे जल, जंगल,और ज़मीन पर गिद्धदृष्टि लगाये बैठी हैं। किसानों, दलितों और आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से बेदख़ल करके दर दर भटकने पर मजबूर किया जा रहा है। लोगों को जानवरों की तरह हाँका लगाकर खदेड़ने की तैयारी है। समृद्धि और सम्पन्नता के द्वीपों के इर्द गिर्द उगे बाड़ों में उन्हें संगीनों के बल पर क़ैद करके देश की धरती, पहाड़, जंगल,और नदियों का सौदा किया जाने वाला है। ऐसे में भाषा वह अकेला हथियार है जिसके बल पर लोग न्याय की अपनी मानवीय चाहत को बचा पाएंगे और उसके लिए लड़कर सत्ता के इस शिकंजे को तोड़ पाएंगे। इस पृष्ठभूमि में हम अच्छी तरह समझ सकते हैं कि भाषा का मुद्दा कितना अहम है और गणेशशंकर विद्यार्थी ने क्यों इसे देश को बचाने की पूर्वशर्त माना था।
यहाँ आकर हमारे सामने एक बात आईने की तरह साफ़ होनी चाहिए कि अगर हम देश, समाज, गरीब, दलित, आदिवासी, किसान, मज़दूर अथवा मध्यवर्ग के जीवन में कोई सकारात्मक बदलाव लाने के लिए काम करना चाहते हैं तो भाषा का सवाल हमारे एजेंडे में सबसे ऊपर होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो हमारी सारी क़वायद निष्फल हो जायेगी और हम अंग्रेज़ीदां बुद्धिजीवियों के पिछलग्गू बनकर रह जायेंगे।
अब लाख टके का सवाल यह है कि भाषा में आये प्रदूषण को कैसे पहचानें और उसके ख़ात्मे के लिए शुरुआत कहाँ से करें। इसका जवाब पाने के लिए हमें भाषा की बुनियादी इकाई वाक्य की छानबीन करनी होगी। वाक्य के विभिन्न अंगों संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण आदि पर नज़र डालते हैं तो एक दिलचस्प खींचतान दिखाई पड़ती है। कवि त्रिलोचन ने कहा था---
भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है
ध्वनि से शब्द और भाषा का संकेत मिलता है। ध्वनिव्यवस्था के लिपिबद्ध संकेत को ही भाषा कहते हैं। ध्वनि कंपन से उत्पन्न होती है, यानी एक क्रिया जो ध्वनि-तरंगों को जन्म देती है। क्रिया में बल होने का और चाहे जो आशय हो, एक बात तो तय है कि बिना बल के क्रिया नहीं हो सकती और जहाँ सक्रियता है वहां निर्बलता नहीं रह सकती। यानि जहाँ क्रिया है वहां बल है। भाषा में क्रिया का वही स्थान है जो जीवन में क्रियाशीलता का है। भाषा की लहरों में जीवन की हलचल के होने का यही अभिप्राय है।
त्रिलोचन की ही एक दूसरी काव्यपंक्ति है--
"हिंदी की कविता उनकी कविता है जिनकी सांसों को आराम नहीं था"।
मीर तक़ी मीर ने कहा था---
क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सुरूरे-क़ल्ब
आया नहीं ये लफ़्ज़ तो हिंदी ज़ुबाँ के बीच
सांसों को आराम न होने का अभिप्राय भी इसी अहर्निश क्रियाशीलता से संबद्ध है। हाँ, उसमें बेचैनी और जुड़ जाती है।इसी बात को मीर ख़ूबसूरती के साथ कहते हैं कि दिल का सुकून (सुरूरे-क़ल्ब) नामका शब्द तो हिंदी भाषा में आया ही नहीं। यह कथन वैसे ही है जैसे हम किसी के आत्मविश्वास की सुचना देते हुए कहते हैं कि असंभव शब्द उसके शब्दकोष में ही नहीं है। तात्पर्य यह कि हिंदी बोलने वालों ने दिल के सुकून का अनुभव ही नहीं किया। उनकी सांसों को आराम नहीं था। ज़ाहिर है, हिंदी समाज को परिभाषित करने वाली उनकी बुनियादी विशेषता क्रियाशीलता है।वही उसे अर्थ देती है।
यहाँ आते आते एक बात साफ़ हो जाती है कि जिस प्रकार जीवन की प्राथमिक और बुनियादी इकाई मनुष्य का सौंदर्य और उसकी सार्थकता क्रिया पर टिकी हुई है, उसी प्रकार भाषा की बुनियादी इकाई वाक्य का सौंदर्य क्रिया पर टिका हुआ है। लेकिन हमारे समाज में कर्म के अवमूल्यन की प्रवृत्ति और विचारधारा भी न केवल वजूद में है, बल्कि ख़ासी मज़बूत है। वर्तमान समय में यह कोई अपनी राह तो नहीं बना पाती, लेकिन कर्मण्यता के महत्व को लेकर भ्रम फैलाती रहती है। ऐसे ही एक विचारक रामस्वरूप चतुर्वेदी हैं। ये अपनी किताब "हिंदी गद्य:विन्यास और विकास"(लोकभारती,2002) में लिखते हैं, "वाक्य-विन्यास में सहज प्रवाह का एक साक्ष्य तब माना जा सकता है जबकि वाक्य में सबसे महत्वपूर्ण तत्व क्रिया का विलोप हो जाय, और वाक्य शेष अवयवों के संतुलन पर तना रहे"(पृष्ठ 18)। यहाँ क्रिया को सबसे महत्वपूर्ण तत्व बताने की "सावधानी" तो बरती गई है, लेकिन किसी अनूठे कारण से उसके विलोप को ही अच्छे वाक्य की शर्त बता दिया गया है। आगे चलकर विभूतिभूषण वंदोपाध्याय और प्रसाद की रचनाओं के हवाले से वे वाक्य में क्रियाहीनता को बाक़ायदा एक मूल्य की तरह प्रस्तावित करते हैं। इस वैचारिकी की प्रतिध्वनि हमारे समय के एक प्रमुख कथाकार-चिंतक दूधनाथ सिंह की पुस्तक "महादेवी"(राजकमल,2009) में देखने को मिलती है। वे लिखते है, "कभी-कभी मुझे लगता है कि सर्वनामों के बिना उत्कृष्ट कविता संभव ही नहीं है। संज्ञाएँ और अलंकृतियां, अव्यय और क्रियापद- ये सब तो काव्य-रण के पिछले मोर्चे के योद्धा हैं। असली युद्ध तो सर्वनाम ही लड़ते हैं।"(पृष्ठ 59) सर्वनामों के अमूर्तन के सहारे कविता कई बार सामान्यीकरण के अपने लक्ष्य की साधना करती है, व्यक्तिगत से सार्वजनीन की यात्रा करती है। लेकिन संज्ञा की बनिस्बत इसकी नामरूपहीनता व्यक्तित्वों के विलोप की संभावना भी अपने अंदर छिपाये रहती है। कहना अनावश्यक है कि व्यक्तित्वों का विखंडन, पतन और अंततः उनका विघटन हमारे समय और समाज की प्रमुख विडंबनाओं में से एक है। इसलिए सर्वनाम की उपयोगिता को स्वीकार करते हुए भी उसे वाक्य का सबसे प्रमुख अंग नहीं माना जा सकता। आगे चलकर लेखक की रणनीति तब और स्पष्ट होती है जब वह प्रसाद के विषय में लगभग तोहमत के रूप में कहता है कि "लेकिन प्रसाद में छायावाद के प्रारम्भिक चरण के सारे लक्षण हैं। वे अक्सर क्रियापदों का दामन नहीं छोड़ते(पृष्ठ 65)।" इससे पता चलता है कि सर्वनाम को प्रमुखता देने की रणनीति क्रिया को देशनिकाला देने से जुड़ी हुई थी। इस रणनीति से न कविता का भला होगा न समाज का। हाँ, इससे हमारे समय में फैली धुंध और गहरी हो जायेगी।
बहरहाल, ताज्जुब इस बात का नहीं है कि इन विचारकों ने ये बातें लिखीं। सबके अपने विचार हैं और अगर वे खुलकर व्यक्त होते हैं तो हम उनका स्वागत करते हैं। ताज्जुब इस बात का है कि इन विचारों से हिंदी के किसी कवि-आलोचक के कान पर जूं नहीं रेंगी। ये विचार अपने तरीक़े से हमारी चेतना में सक्रिय रहे लेकिन कहीं कोई सवाल नहीं उठा। अकर्मण्यता और व्यक्तित्वहीनता को मूल्य बनाकर वैधता और प्रमाणिकता देने की कोशिशें जारी रहीं लेकिन हिंदी समाज का सामूहिक विवेक शायद घोड़े बेचकर सोता रहा। यह क़िस्सा कोई नया नहीं है। हमने अपनी भाषा के साथ जो लापरवाही बरती है और उसके जो दुष्परिणाम सामने आये हैं, उनकी चर्चा हम इस श्रंखला की अगली कड़ी में करेंगे।