Saturday, September 3, 2016

काव्यशास्त्रविनोद-३: आलोचना के बारे में

आजकल हिंदी में आलोचना की निंदा करने और उसे अनावश्यक ठहराने का चलन है। इस काम में हवा के साथ बह जाने वाले मतदाताओं जैसी सादगी के साथ बहुत से साहित्यप्रेमी लगे हुए हैं। लेकिन असल में यह खेल उन मठाधीशों का है जिन्होंने अतीत में हमेशा आलोचकों के साथ दुरभिसंधियां की हैं और उनसे अनुचित लाभ उठाया है। अब जबकि आलोचना को अपनी अनैतिक सत्ता का औज़ार बनाने वाले आलोचक अपने ही कारनामों के कारण अप्रासंगिक हो चुके हैं, ये लोग युवा तुर्क का स्वांग भरते हुए आलोचना के ख़िलाफ़ बग़ावत का एलान कर रहे हैं। इस तरह ये आलोचना के बहाने हिंदी में सुचिंतित विचार-विमर्श की संभावना को भी ख़ारिज़ कर देना चाहते हैं ताकि उन जैसों की भूमिका पर सवाल उठने की आशंका न रह जाये और अब तक येन केन प्रकारेण अर्जित की हुई उनकी हैसियत बनी रहे। इसलिए आलोचना की भूमिका और प्रक्रिया पर पुनर्विचार आवश्यक है।
साहित्य की तमाम विधाओं में होने वाली रचनाओं की व्याख्या और उनका मूल्यांकन करने वाली विधा को आलोचना कहते हैं। रचना और पाठक के बीच पुल की भूमिका निभाने वाली इस विधा का विकास आधुनिक युग की जटिलताओं के चलते हुआ है। रचना अगर जीवन की पुनर्रचना है तो आलोचना रचना की पुनर्रचना है। आलोचक रचना में समाहित अनेक तत्वों में से किसी एक को प्रमुख मानकर अपनी समझ के मुताबिक़ रचना के प्रधान पक्ष का उदघाटन करता है। इस प्रक्रिया में प्रासंगिक उद्धरण और उनकी व्याख्या उसके औज़ार होते हैं। उद्धरणों के चुनाव का विशेषाधिकार उसका होता है, किन्तु उनकी व्याख्या का वस्तुनिष्ठ और तर्कसंगत होना अनिवार्य है अन्यथा आलोचना अविश्वसनीय हो जाती है।
आलोचना में वस्तुनिष्ठता और पक्षधरता का प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका अभिप्राय है रचना के विश्लेषण के दौरान उसकी अर्थसंपदा के उद्घाटन के अतिरिक्त सत्य और न्याय के साथ रचना के रिश्ते का परीक्षण करना। परस्पर विभाजित और संघर्षरत स्वार्थों वाले समाज में स्वभावतः सत्य और न्याय के प्रति दृष्टिकोण भी अलग अलग होते हैं।इसलिए रचना की मूल्यवत्ता को लेकर मतभेद होते हैं, लेकिन समाज से निरपेक्ष किन्हीं शाश्वत मान-मूल्यों के अनुरूप रचना के रसास्वादन की अवधारणा अब अप्रासंगिक हो चुकी है। ऐसे मानदंडों का प्रस्ताव करने वाले कुछ बौद्धिक अब भी हो सकते हैं , लेकिन साहित्यिक संस्कृति पर उनका प्रभाव नगण्य है।
सत्य और न्याय के प्रति पक्षधरता आलोचना का अनिवार्य अंग भले ही हो, उसे तथ्यों के आलोक में ही इनका पोषण करने की अनुमति है। ये तथ्य प्राथमिक तौर पर रचना से प्राप्त होते हैं ।आलोचक इन तथ्यों को सामाजिक और ऐतिहासिक तथ्यों के समानांतर रखकर उनकी विश्वसनीयता का परीक्षण करता है। इस प्रक्रिया से प्राप्त निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ होते हैं। वस्तुनिष्ठता ही पक्षधरता की आधारशिला है। वस्तुनिष्ठ हुए बिना पक्षधर होना आसान है,लेकिन उसका कोई मूल्य नहीं।
आलोचना के लिए प्रधान और गौण के अंतर को समझना ज़रूरी है। किसी भी वस्तु, व्यक्ति, समाज, रचना अथवा परिघटना में अनेक तत्वों का समावेश होता है, लेकिन किसी समय विशेष में उनमें से एक तत्व ही प्रधान भूमिका में होता है, बाक़ी सब गौण होते हैं। प्रधान तत्व के आधार पर ही वस्तु का चरित्र तय होता है। प्रधान तत्व के अपने अंतर्विरोध होते हैं, जिनके चलते कई बार वह शक्तिच्युत होकर प्रधान भूमिका खो बैठता है, और कोई दूसरा तत्व शक्तिशाली हो प्रधान भूमिका में आ जाता है। ऐसी स्थिति में वस्तु का चरित्र बदल जाता है। यह बदलाव बिलकुल उलटी दिशा में भी ले जा सकता है। जैसे क़ानून का सम्मान करने वाला कोई व्यक्ति विकास के क्रम में वाह्य परिस्थितियों से जूझते हुए क़ानून तोड़ने वाले किसी मुजरिम में बदल सकता है, वैसे ही किसी अपराधी के अंदर अनुकूल मानसिक स्थिति में क़ानून के समक्ष समर्पण करके अपनी सज़ा काटकर शांतिपूर्ण जीवन जीने की कामना बलवती हो सकती है, और वह इसके अनुरूप आचरण कर सकता है। ऐसी स्थितियों में इन व्यक्तियों का चरित्र अपने विपरीत में बदलता दिखाई पड़ता है। ऐसा इसलिए होता है कि इनके अंदर अपने जीवन को दिशा देने वाला जो सबसे शक्तिशाली तत्व था वह अपने अंतर्विरोधों के चलते अपने विरोधी तत्व से पराजित हो गया और उसके विरोधी ने प्रधान भूमिका अपना ली। प्रधान तत्व में बदलाव से अन्य तत्वों की भूमिका और अर्थवत्ता भी कुछ न कुछ प्रभावित होती है।
यह नियम प्रकृति से प्राप्त सार्वभौम सत्य है और हर आलोचक अपने लेखन में इससे प्रभावित होता है। अंतर सिर्फ़ यह है कि सचेत आलोचक इस सचाई को समझकर इसका उपयोग करते हैं जबकि इससे अनभिज्ञ आलोचक अनजाने में इस नियम के उदाहरण बन जाते हैं। मसलन, अगर कोई आलोचक इस नियम को नहीं समझता तो वह रचना में घटित होने वाली घटनाओं और चरित्रों में होने वाले परिवर्तनों को तर्कसंगत तरीक़े से नहीं समझ सकेगा और उन्हें संयोग, सनक, विचारधारा या किसी अन्य अप्रासंगिक तत्व पर आधारित मानकर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत कर देगा। ऐसी स्थिति में उसकी आलोचना रचना के सत्य का उद्घाटन करने की बजाय स्वयं उसके आलोचक-रूप का उद्घाटन करेगी, जिसका प्रधान तत्व अज्ञान है।
कहने का आशय यह कि आलोचना के क्षेत्र में पहला क़दम रचना के पर्याप्त अध्ययन-मनन के बाद उसके समूचे कलेवर के प्रधान तत्व की खोज है। ध्यान रहे कि लिख जाने के बाद रचना का अपना व्यक्तित्व होता है और वह स्वतंत्र रूप से समय और समाज के साथ अंतःक्रिया करती है। इसके बाद ख़ुद लेखक की राय का महत्व भी किसी पाठकीय प्रतिक्रिया से अधिक नहीं होता। साहित्य के लोकतंत्र में लेखक और पाठक दोनों के पास एक ही वोट होता है। किसी जीवित व्यक्ति की तरह ही जीवंत रचना में भी समय के साथ परिवर्तन और विकास होता है। हाँ, यह विकास उसकी अर्थवत्ता और प्रासंगिकता में आने वाले बदलाव के माध्यम से दिखाई पड़ता है। आलोचक का काम रचना में आये इसी बदलाव और नवीनता की खोज है। जो रचना जितनी ही सशक्त होती है उसमें विकास की यह गुंजाइश उतनी ही अधिक होती है। मिसाल के तौर पर ग़ालिब का यह शेर देखें-
दाइम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे के पत्थर नहीं हूँ मैं
उर्दू कविता की रीत थी माशूक़ की चौखट पर सर पटकते हुए या तो पत्थर की चौखट को घिस डालना , या सर को ही मिटा देना-(मिट जाएगा सर गर तेरा पत्थर न घिसेगा- ग़ालिब)। इस पारंपरिक दृष्टि से देखने पर इस शेर में यह अफ़सोस ज़ाहिर होता है कि माशूक़ के दर पर हमेशा पड़े रहने के लिए जो धैर्य और नसीब चाहिए, काश वो मेरे पास होता। लेकिन आधुनिक दृष्टि से देखने पर इश्क़ में अब तक रही बेबसी भरी ज़िन्दगी पर ही ख़ाक डालने और पत्थर नहीं इंसान बनने की बात निकलती जान पड़ती है। इसी प्रकार रचना के भाषिक संयोजन में से समय के साथ कोई नया तत्व उभरकर प्रधानता हासिल कर लेता है और रचना के अर्थ को बदल डालता है।
रचना के प्रधान तत्व की खोज का यह आशय कदापि नहीं है कि किसी रचना में निर्विवाद रूप से कोई प्रधान तत्व होगा और उसे खोज निकालने के साथ ही आलोचक का काम ख़त्म हो जायेगा।इसके विपरीत अपनी-अपनी रुचि और संस्कार के मुताबिक़ विभिन्न आलोचक रचना के प्रमुख अभिप्राय के बारे में अलग-अलग राय व्यक्त करते हैं और यह मतभेद बहस और विवाद को जन्म देता है। किसी एक मत की सर्वस्वीकार्यता की बजाय यह स्थिति आलोचना की संस्कृति के लिए अधिक सुखद है। इस तरह की बहसों से गुज़रकर हम रचना, मनुष्य और समाज की बेहतर समझ हासिल करते हैं।
रचना के मुख्य सूत्र की तलाश के लिए कुछ उपयोगी संकेत तो किये जा सकते हैं, लेकिन इसका कोई निश्चित फ़ार्मूला नहीं हो सकता। उस तत्व को जो रचना के केंद्र में है और उसके आशय को निर्धारित करता है, रचना का मर्म कहा जा सकता है। कभी यह रचना में आरम्भ से अंत तक विद्यमान रहता है, तो कभी एक या दो जगह ही सशक्त रूप में आकर पूरी रचना पर नई रोशनी डाल सकता है। इस दूसरी स्थिति के उदाहरण के रूप में हम निराला की प्रसिद्ध कविता "राम की शक्तिपूजा" को लेते हैं।
विपुल सन्दर्भों से समृद्ध इस लंबी कविता में आया एक छोटा सा प्रसंग इसके समूचे आशय को निर्धारित करता है। कथा सर्वविदित है कि रावण से युद्ध के दौरान राम के संशयग्रस्त होने पर जाम्बवान उन्हें शक्ति की पूजा करने की सलाह देते हैं--"शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन"। पूजन की जो विधि है वह पारम्परिक रीति से ही सम्पन्न होती है, हालाँकि उसमें राम की दृढ़ता का सन्निवेश है। पूजा के अंतिम चरण में राम की परीक्षा लेने के लिए दुर्गा अर्पण के लिए रखे अंतिम पुष्प को चुरा लेती हैं। इससे साधना के अधूरी रह जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है। यहाँ आकर राम जो निर्णय करते हैं उससे शक्ति की मौलिक कल्पना करने की सलाह सार्थक होती है। कमल के फूल की भरपाई अपनी आँख से करने का निश्चय दरअसल, अपने मक़सद के लिए ख़ुद को दांव पर लगाने, कर्तव्य की वेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने का वह चुनाव है जिसे अनेक आसान विकल्पों को ठुकरा कर किया गया है। अपने संकल्प के अनूठेपन के कारण शक्ति की यह कल्पना मौलिक है। कविता और जीवन में असली फ़र्क़ इसीसे पड़ता है। समूची कविता इस एक संकेत से प्रज्ज्वलित है। इस प्रकार "राम की शक्तिपूजा" का केंद्रीय सूत्र कर्तव्य के प्रति निष्ठा और समर्पण की ऐच्छिक आत्यन्तिकता है जो निराला के राम को नई और मौलिक आभा से दीप्त करती है।
बड़ी और कालजई रचनाएँ प्रायः मनुष्य के आदिम और मूलगामी संवेगों पर आधारित होती हैं। प्रेम, साहस, सहानुभूति, करुणा, कृतज्ञता और विश्वास जैस भावों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। विशेष बात यह है कि इनके विलोम भाव भी रचना में उतनी ही सशक्त भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा ज्ञान, इच्छा और क्रिया के बीच चलने वाला द्वंद्व भी आधुनिक मनुष्य की एक मूलभूत संचालक शक्ति है। प्रेमचंद का उपन्यास "गोदान" और मुक्तिबोध की कविता "अँधेरे में" समेत तमाम महत्वपूर्ण रचनाओं का गठन इसी द्वंद्व से हुआ है। व्यक्ति और समाज तथा अंतर्जगत और बहिर्जगत के बीच चलने वाला द्वंद्व भी आधुनिक साहित्य की एक मूल विषयवस्तु है।
आलोचना के क्षेत्र में जड़ जमाये भ्रमों में एक यह है कि कला अथवा सौंदर्य पर ज़ोर देने से रचना का अभिप्राय विघटित हो जाता है। इस मसले को "क्या कहा गया"(कथ्य),और "कैसे कहा गया" (रूप), इन दो प्रश्नों के उत्तरों के बीच मौजूद रिश्ते की पड़ताल मान सकते हैं। वास्तव में अगर साहित्य-कर्म की विशिष्टता को समझे बग़ैर रचनाकार अपने मंतव्य को समुचित कलात्मक ढंग से नहीं प्रकट करता तो इस बात की संभावना अधिक है कि रचनाकार का अभिप्राय स्पष्ट होने के बावजूद वह अपने पाठकों पर अनुकूल प्रभाव न छोड़ सकेगा। अंतर्वस्तु रचना का सत्य है और रूप उसकी शक्ति है। सत्य के साथ शक्ति का योग होने पर ही उसे जीवन मिल सकता है, अन्यथा नहीं। हाँ, इस मामले में कला और उसके नाम पर होने वाली नासमझ पच्चीकारी के बीच अंतर करना वैसे ही ज़रूरी है जैसे साहित्य के यथार्थ को अख़बारी बयानों से अलगाना। किसी भी हाल में रचना से तुरंत समझ में आ जाने की मांग करना अपने प्रति ज़्यादती है और इससे बचना चाहिए।
आलोचना करते समय एक बात का ध्यान हमेशा रखना चाहिए कि रचना में जो कुछ प्रस्तुत है हम उस पर ही विचार व्यक्त करने के लिए अधिकृत हैं। जो बात रचना में आई ही नहीं, उसके न आने की वजहों को लेकर हायतौबा मचाने और इससे अपने निष्कर्ष निकालने वाली आलोचना अवैध होती है। किसी रचना की सीमा वह तत्व नहीं हो सकता जो उसका विषय ही नहीं बना, वैसे ही जैसे किसी तैराक की सीमा यह नहीं हो सकती कि वह धावक नहीं है। किसी देश की तरह रचना की सीमा भी उसकी ज़मीन की, उसमें मौजूद सकारात्मक क्षमता की सीमा होती है।
इस नियम का एक अपवाद भी है। रचना का सम्बन्ध चूंकि मनुष्य की स्मृति, उसके यथार्थ और स्वप्न से होता है, इसलिए समय के तीनों रूपों (अतीत, वर्तमान और भविष्य) में आवागमन उसका स्वभाव बन जाता है। इसमें भी कई बार स्मृति और यथार्थ स्वप्न के लिए राह बनाने का माध्यम बनते हैं। तभी रचना में भविष्य में खिलने वाले फूलों की ख़ुशबू शामिल होती है। लेकिन कभी कभी रचना में स्वप्न अथवा दुःस्वप्न के प्रबल रेखांकन से रचनाकार यथार्थ की किसी विसंगति का संकेत भी करता है। यथार्थ को अपना विषय बनाते हुए वह उसमें अनुपस्थित किसी वांछनीय तत्व को रचना में सायास उपस्थित दिखा कर उसकी अनुपस्थिति को हाइलाइट कर सकता है। कभी इसके विपरीत वह समाज में उपस्थित किसी अवांछनीय तत्व को रचना में सायास अनुपस्थित दिखाकर उसकी अवांछनीयता पर ज़ोर दे सकता है। किसी स्टैंसिल की तरह यह रचना अनुपस्थित की उपस्थिति और उपस्थित की अनुपस्थिति के नियम से संचालित होती है। समाज के यथार्थ और रचना के यथार्थ के बीच इस मानीखेज़ अंतर से वह हमारे जीवन की विडम्बना को प्रकट करता है।
सही और ग़लत, न्याय और अन्याय के बीच संघर्ष में रचना का पक्ष क्या है, यह आलोचना की अनिवार्य जिज्ञासा है। ध्यान देने की बात यह है कि रचना का पक्ष रचनाकार के पक्ष का पर्याय नहीं होता। सच्ची रचना तब होती है जब रचनाकार अपने प्रतिपक्ष को भी अपनी आत्मा के अंश से रचता है। उसकी भूमिका सज़ा देने वाले जज की नहीं बल्कि ऐसे वक़ील की होती है जिस पर वादी और प्रतिवादी दोनों का पक्ष प्रस्तुत करने का दायित्व है। इस तरह वह सामाजिक अपराधों और बुराइयों की हमारी समझ को गहरा और विस्तृत करता है। सत्य और न्याय की स्थापना में इस समझ की अनिवार्य भूमिका होती है। दोस्तोयवस्की कृत " अपराध और दंड" तथा टॉलस्टॉय कृत "पुनरुत्थान" जैसी रचनाएँ इस श्रेणी में आती हैं।आलोचक को यह ध्यान रखना चाहिए कि जघन्य व्यक्तिगत और सामाजिक अपराधों की नृशंसता के वर्णन में लेखक इतना तो नहीं रम गया है कि वह पाठक की चेतना को जाग्रत करने की बजाय उसे सुन्न किये दे रहा है।अपनी सदिच्छा के बावजूद सुई का काम तलवार से लेने वाली ऐसी रचनाएँ मानवीय विवेक को कुंद करती हैं, और 'यही सब तो होता है' की यथास्थितिवादी चेतना का विस्तार करती हैं। विकराल विभीषिकाओं के प्रति जागरूक करने के लिए मानवीय संवेदना पर उसके प्रभाव को दर्शाने वाला कोई नाज़ुक सा हवाला जो पाठक के दिल को छू जाए, कहीं अधिक कारगर होता है। सआदत हसन मंटो की कहानी 'टोबाटेक सिंह' भारत पाकिस्तान विभाजन का ऐसा ही रचनात्मक रूपांतरण है।
आलोचना का सुनहला नियम यह है कि किसी भी समय, समाज, रचना , रचनाकार अथवा आलोचक का मूल्यांकन उसके सर्वश्रेष्ठ के आधार पर होना चाहिए। किसी की कमतर उपलब्धि के आधार पर होने वाली उसकी आलोचना निष्फल होती है। जैसे किसी पर्वतारोही के असफल अभियानों के आधार पर उसका मूल्यांकन करना समझदारी नहीं है, वैसे ही किसी रचनाकार की कमज़ोर रचनाओं का उल्लेख करते हुए भी उसकी बेहतर उपलब्धियों के आधार पर ही उसका मूल्यांकन होना चाहिए। रचनाकार के जीवन और उसकी रचना में घालमेल से भी बचना चाहिए। आलोचक को रचनाकार के जीवन से अधिक उसके समय और समाज में रुचि लेनी चाहिए और रचना से उसके रिश्ते की पड़ताल करनी चाहिए। रचनाकार का जीवन नहीं उसका समय रचना की कसौटी है। हाँ, उसकी रचना उसके जीवन की कसौटी ज़रूर है और हमेशा बनी रहेगी।
किसी आलोचक के मूल्यांकन में एक बात ध्यान रखने की है कि उसने जिन रचनाओं को महत्वपूर्ण माना उनके आधार पर उसका रिपोर्ट कार्ड बनेगा। अगर किसी महत्वपूर्ण रचना को समझने से वह चूक गया तो यह उतना अहम नहीं है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति हर अच्छी रचना का सही मूल्यांकन नहीं कर सकता। हाँ, अगर वह किसी कमज़ोर रचना को महत्वपूर्ण बताता है और उसे अपना प्रतिमान बनाता है तो यह ज़रूर उसकी आलोचकीय अक्षमता का प्रमाण होगा।
अंततः, विश्वसनीय आलोचना लिखने के लिए आलोचक को चाहिए कि वह रचना से कम से कम एक आवश्यक सन्दर्भ-सूत्र लेते हुए अपनी बात तर्कसहित कहे। 'ऐसा मानते हैं', 'सुनते हैं', 'कहते हैं' जैसे वाक्यांशों से बचते हुए जो कुछ वह कहता है उसकी ज़िम्मेदारी उसे स्वयं उठानी चाहिये। इसका मतलब यह नहीं कि दूसरों को उद्धृत न किया जाए, बल्कि जो भी कहें उसके बारे में अपनी राय भी साफ़ साफ़ प्रकट करें। वही विश्लेषण वैध है जिसे हर स्तर पर चुनौती दिया जा सके, जिससे तर्क किया जा सके और आवश्यक होने पर जिसका खंडन किया जा सके। इसके अलावा सभी विश्लेषण गोलमटोल, सारहीन, और आलोचना की संस्कृति के लिए घातक शब्दाडंबर भर हैं। सच्ची आलोचना को निष्कवच और वेध्य होना चाहिए।

काव्यशास्त्रविनोद-२: भाषा की अंतर्वस्तु

निराला ने गद्य को जीवनसंग्राम की भाषा कहा था।आधुनिक युग को गद्ययुग भी कहा गया है।ज़ाहिर है कविता पर विचार करते हुए अब हमारे सामने मसला गद्य बनाम काव्य का नहीं है, बल्कि गद्य बनाम बेहतर गद्य का है। गद्य की बेहतरी को आंकने के लिए भाषा की सरलता, प्रवाहमयता, विचारशीलता और सार्थकता जैसे परंपरागत पैमानों से सहमत होते हुए हम ये मानते हैं कि ये विशेषताएँ भाषा के रूप आकार की हैं। काव्यभाषा की वास्तविक विशेषता अपने पाठक की सोई हुई मानसिक क्षमताओं को जगाने, उसकी प्रश्नाकुलता को धार देने, उसके अंदर की मानवीय भावनाओं और उसके उदात्त आशयों को उसके सम्मुख प्रकट करने में निहित होती है। इसी भूमिका में वो काव्यरचना की सहयोगी बन सकती है। आइये कुछ और निकट से देखें कि वह ऐसा कैसे कर पाती है।
आम तौर पर ये मान्यता है कि भाषा में जो कुछ कहते या लिखते हैं, उसीसे से वांछित अर्थ निकल आता है, उसे कैसे कहा या लिखा गया इसकी भूमिका गौण है।भाषा एक माध्यम है जिसे सुविधाजनक होना चाहिए, यानी सरलतापूर्वक किसी कथन का मनोवांछित अर्थ निकल आये। सिद्धान्तरूप में हम अभिधा, लक्षणा, व्यंजना जैसी शब्दशक्तियों को स्वीकार करते हैं, लेकिन उन्हें रचनाकार के वांछित अभिप्रायों से अलग करके नहीं देखते। लेखक की इच्छा के मुताबिक़ किसी कथन से प्रत्यक्ष तौर पर आने वाले अभिधार्थ, और अप्रत्यक्ष तौर पर आने वाले लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ की अपेक्षा तो करते हैं, पर स्वयं भाषा में ये शक्तियां लेखक की इच्छा से निरपेक्ष तौर पर भी निहित हो सकती हैं, इस संभावना पर विचार नहीं करते।
उदाहरण के लिये, अपने रोज़मर्रा के जीवन में हम देखते हैं कि हमारी कही हुई बातें कई बार हमारे मन्तव्य के विपरीत प्रभाव छोड़ती हैं। हम किसी उद्विग्न व्यक्ति को सांत्वना देना चाहते हैं और वो हमारी बात से चिढ़ जाता है क्योंकि हमारी भाषा शैली और हावभाव उस व्यक्ति की मनःस्थिति के अनुरूप नहीं होते। ऐसे में हमारे शब्द बिलकुल उपयुक्त हो सकते हैं लेकिन उनका अर्थ हमारे अनजाने ही बदल जाता है। इसी प्रकार अगर हम अपनी रचना में कोई सामाजिक राजनीतिक सन्देश देने की कोशिश करते हैं लेकिन वह सन्देश वस्तुगत परिस्थितियों की उचित समझ पर आधारित नहीं है तो उसका परिणाम उल्टा निकल सकता है। कहने का आशय यह कि भाषा में दिए गए किसी वक्तव्य का वास्तविक अर्थ जितना वाचक के मन में होता है उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण तरीक़े से वाह्य परिस्थितियों और उन व्यक्तियों के मन में होता है जो उससे अपने को सम्बंधित पाते हैं।जब दोनों पक्षों के बीच भाषा एक जैसा संवाद बना पाती है तो यह आदर्श स्थिति होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि किसी रचना की वास्तविक भूमिका उसके शब्दकोषीय अर्थ और रचनाकार की इच्छा से परे सामाजिक परिस्थितियों में विद्यमान होती है।
इस प्रकार भाषा में अंतर्वस्तु का निवेश दो स्तरों पर होता है। पहला स्तर वह है जब रचनाकर अपनी रचना में अपने मनोनुकूल भावों को शब्दबद्ध करता है, और दूसरा वह जब रचना पाठक के पास आती है और वह अपनी स्थिति के अनुरूप उसका अर्थ ग्रहण करता है। पहले को मनोगत स्तर और दूसरे को वस्तुगत स्तर कह सकते हैं। वस्तुगत स्तर पर भले ही आरम्भ में पाठकों में अंतर्वस्तु को लेकर मतभेद दिखें लेकिन लोकतान्त्रिक बहस मुबाहिसे की प्रक्रिया में वे मतभेद सिमटते चले जाते हैं और न्यूनतम सम्भव स्तर पर पहुँच जाते हैं। जैसे पानी जिस बर्तन में जाता है उसीका आकार ग्रहण कर लेता है, किन्तु विकास की प्रक्रिया में अंततः कुछ ख़ास आकार के बर्तन पानी के अनुकूल पड़ते हैं और वे पानी के समुचित आकार की सूचना देते हैं। हम थाली में पानी नहीं पीते गिलास में पीते हैं क्योंकि गिलास का आकार पानी की प्रकृति के अनुरूप होता है।
यहाँ एक सवाल यह उठता है कि अगर किसी भाषिक रचना का अभिप्राय वाह्य परिस्थितियों अथवा उसके पाठक के अनुसार तय होता है तो उसे भाषा की अंतर्वस्तु कैसे कह सकते हैं। इसका जवाब यह है कि यह गुंजाइश खुद भाषा के अंदर होती है। उसकी संरचना में अनेक अर्थ छिपे होते हैं जो मौक़े के मुताबिक़ ख़ुद को ज़ाहिर करते हैं। जिस तरह पत्थर के अंदर अनेक मूर्तियां छिपी होतीं हैं, लेकिन मूर्तिकार उसके फालतू हिस्सों को तराश कर अपने मनमाफिक मूर्ति गढ़ लेता है, उसी तरह कविता का पाठक भी उससे अपने अनुरूप अर्थ ग्रहण करता है। शर्त बस यह है कि वह अर्थ कविता की भाषिक संरचना से वैध ढंग से निकलना चाहिए, मनमाने ढंग से नहीं। एक बार जब रचना पाठक के सामने चली जाती है तो रचनाकार के मंतव्य का प्रश्न समाप्त हो जाता है। रचना के बारे में उसकी राय किसी पाठक की राय से अधिक महत्त्व नहीं रखती। इस प्रक्रिया में एकाधिक वैध अर्थ भी हो सकते हैं, और यह विशेषता रचना की ताक़त है कमजोरी नहीं। अर्थों के इस बहुलतावादी लोकतंत्र में एक बार फिर पाठक अपने काव्यार्थ को चुनता है और अलग अलग पाठकों पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुसार रचना की सामाजिक भूमिका तय होती है। ज़ाहिर है कि इस प्रक्रिया में भाषा की अंतर्वस्तु की निर्णायक भूमिका होती है।
उदाहरण के लिये मान लें कि कोई कवि वर्तमान में दलितों के बारे में पूरी हमदर्दी के साथ सोचना और लिखना चाहता है लेकिन अपने संस्कारों से बाध्य होकर वह उनके प्रति दया का प्रचार करता है। वह पूरी ईमानदारी से सोचता है कि अगर दलित प्रतिरोध और संघर्ष के रास्ते पर चलना छोड़ दें तो सामंती शक्तियों के अंदर उनके प्रति सहनशीलता पैदा हो सकती है और धीरे धीरे दलितों का उत्थान सम्भव हो सकता है। ऐसी स्थिति में उसकी इच्छा के विपरीत उसकी रचना दलितों के अपमान और उनकी अवमानना का कारण बनेगी और दलित विरोधी शक्तियों को मज़बूत करेगी।
ग़ालिब का मशहूर शेर है:
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है
प्रत्यक्ष तौर पर इस शेर का अर्थ है कि किसी की मृत्यु के बाद उसके शरीर को जला दिया गया है और इस प्रक्रिया में उसका दिल, जो समस्त भावनाओं का आधार हुआ करता था, भी जल कर ख़त्म हो चुका है इसलिए बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेइ। शाब्दिक रूप से इस व्याख्या पर आपत्ति नहीं हो सकती और इसकी सदिच्छा पर भी सवाल नहीं उठ सकता। इस व्याख्या का इस्तेमाल किसी प्रियजन के बिछोह पर सांत्वना देने से लेकर अनात्मवाद की स्थापना के लिए भी हो सकता है। लेकिन इसमें जो राख कुरेदने का प्रसंग है और जिसके पीछे छिपी ख़्वाहिश को लेकर उत्सुकता भी ज़ाहिर की गई है, वह इस शेर में एक अलग अर्थ की संभावना पैदा करता है।
ध्यान से देखें तो ख़ुद कविता भी राख कुरेदने के अलावा क्या है। यह बात प्रायः स्वीकृत है कि वास्तविक जीवन प्रसंगों के गुज़र जाने के बाद और उनसे थोड़ी दूरी बन जाने पर ही स्मृति के सहारे बड़ी कविता अस्तित्व में आती है। यथार्थ और स्वप्न भी कविता के स्रोत हैं लेकिन कालजयी रचनाएँ अक्सर स्मृति को अपना माध्यम बनाती हैं। इसी तरह भावनाएं भी अपने आलंबन के गुज़र जाने के बाद अधिक तीव्र और मर्मस्पर्शी होकर सामने आती हैं।कहने का आशय यह कि किसी पाठक के लिए इस शेर का वास्तविक और वैध अभिप्राय यह भी हो सकता है कि शरीर के न रहने पर प्रियजन की यादें अधिक प्रभावी होती हैं।
अब ये दोनों व्याख्याएं पाठकों के मन मस्तिष्क में उनकी अभिरुचियों के मुताबिक़ जगह बनाती रहती हैं। अंततः इनमें से कोई एक ही व्याख्या समय की कसौटी पर खरी उतरेगी, लेकिन इसमें कितना वक़्त लगेगा यह नहीं कहा जा सकता। कबीर और तुलसी जैसे कवियों के अभिप्रायों पर अब भी अनेक राय है। इसी श्रेणी में ग़ालिब भी आते हैं। जो कविता जितनी समर्थ होती है उसे लेकर मत मतान्तर की गुंजाइश उतनी ही अधिक होती है। इस प्रसंग में अंतिम बात फ़िलहाल यह है कि हिंदी समाज और साहित्य में बहस का अवकाश कम होता जा रहा है। हमारे लेखकों और पाठकों को इस परिस्थिति में निहित ख़तरे को समझना चाहिए और अपने समाज को इस दिशा में चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

काव्यशास्त्रविनोद-१

डॉ. कृष्णमोहन की यह टिपण्णी फेसबुक पर शाया हुई थी. बाद में इसकी दो और किश्तें भी छपी. कई अर्थों में यह श्रृंखला बेहतर बन पडी है. लगा कि इन्हें एक जगह सहेज लिया जाए ताकि जरुरत पड़ने पर फेसबुक पर अनंत तक की 'स्क्रॉलिंग' करनी पड़े. 
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संस्कृत में कहा गया है कि गद्य कवियों का निकष है। हिंदी में आकर इस उक्ति का अर्थ प्रायः यह समझा गया है कि कवियों को कविता के अलावा कहानी या आलोचना में भी कुछ काम करते रहना चाहिए।कवि त्रिलोचन ने इस प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए कभी लिखा था-- गद्य वद्य कुछ लिखा करो कविता में क्या है। कवि-कथाकार और कवि-आलोचक जैसी नई श्रेणियाँ सामने आ गईं और इस तरह के सूत्रीकरण भी कि ऐसे लेखकों की कथारचना और आलोचना भी छूँछे कथाकारों और आलोचकों से बेहतर होती है, कविता का तो कहना ही क्या।अनेक विधाओं में काम करने पर लेखन में निखार आना तो स्वाभाविक है,लेकिन उपर्युक्त उक्ति में गद्य का उल्लेख कवियों की कविता ही के सन्दर्भ में की गई है। कवि को संबोधित कथन सबसे पहले उसकी कविता के सन्दर्भ में होगा क्योंकि वही उसे कवि बनाती है।
दरअसल, हिंदी में गद्य और पद्य को परस्पर विलोम नहीं तो नदी के दो पाटों की तरह समानांतर मानकर चलने की रीति रही है।इस खाई को पाटने के लिए "गद्य कविता" नामक विधा का प्रचलन भी इसी रीति की ताईद करता है। सच तो यह है कि कविता, चाहे वह तुकांत हो या अतुकांत, छंदोबद्ध हो या मुक्तछंद हमेशा गद्य पर निर्भर रही है।प्राचीन संस्कृत से आधुनिक हिंदी तक तमाम भाषाओँ की इसकी यात्रा इस बात की बेहिचक पुष्टि करती है।
भाषा की बुनियादी इकाई वाक्य है और वाक्य गद्य और पद्य में अलग अलग नहीँ होते। कविता और गद्य के वाक्यों में ख़ास अंतर यह होता है कि गद्य के वाक्यों में अर्थ की बहुलता उसे संदिग्ध बनाती है जबकि कविता में यह उसका विशेष गुण होती है। इसलिए कविता में यह कमाल दिखाने के लिए कवि को वाक्य में कर्ता, कर्म और क्रिया के क्रम में फेरबदल की थोड़ी सी छूट मिलती है लेकिन वाक्य को तोड़ने-मरोड़ने या उसका अंग-भंग करने की इजाज़त उसे क़तई नहीं है।बहरहाल, यहाँ बिलकुल अनायास याद आने वाली कुछ काव्य पंक्तियों को प्रस्तुत करना उचित होगा--
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति
भर्तृहरि
कबिरा खड़ा बजार में मांगे सबकी ख़ैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
कबीर
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरैं मोती मानुस चून
रहीम
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है
मीर
रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई
ग़ालिब
गद्य के दो भरे पूरे वाक्यों से रचित कविता के ये उदाहरण बताते हैं कि भारतीय कविता की लंबी परम्परा में गद्यमयता की यह रीति 19वीं सदी तक बिना रोकटोक चलती रही है। बीसवीं सदी के आरंभिक युग में विशेषकर छायावाद के दौर में गद्य पर निर्भरता की यह परंपरा हाथ से छूटी और उससे कविता का कुछ नुकसान भी हुआ लेकिन परवर्ती हिंदी कविता इस मसले को लेकर सचेत दिखाई पड़ती है।हम कह सकते हैं कि हिंदी कविता के मूल्यांकन में वाक्यों की रचना का दोषपूर्ण होना कोई बड़ी बाधा नहीं है।यानी, रूप के स्तर पर तो हिंदी कविता
गद्य के निकष पर खरी उतरती है,लेकिन क्या अंतर्वस्तु के स्तर पर भी यही बात कही जा सकती है?हम इस पर अपनी अगली कड़ी में विचार करेंगे।