Monday, October 26, 2015

ठहर गया वहीं पर एक इन्द्रधनुष

महेश वर्मा की कविताओं का पाठ हमें नई किसी दुनिया में प्रक्षेपित करता है. जहां नक्षत्र कांपते हुए नजर आते हैं. जहां एकांत के निहितार्थ किन्ही रंगो में नुमायाँ  होते हैं. जहां रविवार एक काव्य पंक्ति का दर्जा रखता है. उन रविवारो में हम इन कविताओं का पुन:पाठ करते हैं. फिर किसी सोमवार को अपना काम -धाम किनारे कर उन कविताओं पर कुछ लिखना चाहते हैं और फिर पाते हैं कि वही कवितायेँ खुद को दुबारा लिखवा रही हैं. 

कविता की पृथ्वी पर प्रेम एक गोलार्ध है. प्रेम, स्वयं जीवन से बड़ा. प्रेम-कविता के लिखे  जाने की शर्त है: शीश उतारे भुईं धरे.… यों भी, महेश की प्रेम कवितायेँ रंगहीन पारदर्शिता का कायल नहीं होतीं. साहस का स्रोत, जीवन में या रचना में,  परम्परा है, वरना काल्पनिक क़ासिद, काल्पनिक दूरियों से भिड़ने के लिए सचमुच के तलवार की कल्पना चकित करती है, अगर आपका राब्ता हिन्दुस्तानी कविता से है, तो.  

यहां प्रस्तुत हैं महेश वर्मा के कवितायेँ, विस्मय के पहाड़े की तरह.




( संगत: विनोद कुमार शुक्ल, महेश वर्मा, प्रभात. पार्श्व में, शिव कुमार गांधी )
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इश्क़फ़रेब

तुम उदासी से खेलती हो
और मैं ढेर सारे टूटते नक्षत्रों में
बुझ जाता हूँ

तुम आवाज़ से खेलती हो
और घुमाकर दूर उछाल देता है मुझे आसमान
जैसे तुम दिशाओं से खेलती हो
                  -विमाओं से

एक शाम तुम तीन आवाजों में बोलीं
मैं सुर न मिला पा रहे
संतूरवादक की बेचैनी में ढल गया
मेरी आवाज़ ने मुझसे कहा : अलविदा !

मैंने तीन किस्म की हकलाहटों से दोस्ती गाँठ ली
अब मैं सभी संभव सुरों में चुप रह सकता हूँ

फिर एक रात
तुम मेरी चुप के दरवाज़े की और चुम्बन उछालती चलीं

मैंने सेलफोन से कहा -
इश्क़फ़रेब !

बदलना
  
नमक , तुम्हारी देह और
खुरदुरेपन पर अपना मुंह रगड़ता
आग पी रहा था

धीरे धीरे बदलते हुए
कोई दूसरी चीज़ बनते
मैंने बिलकुल नज़दीक से देखा
एक पालतू जानवर
एक दुश्मन
और गुस्सैल आरी में
अपना बदलना.

जब आग मुझे पी चुकी और
लपटों का रंग पहले की तरह का हो गया
शांत और मद्धिम पीला,

नमक बदल चुका शांत समंदर में
देह के पसीने ने एक मृदुल प्रेमी को सुला दिया,
अपनी खट्टी गंध में,

खुरदुरी जगहें न मिट्टी हुईं
न झाड़ियों दीवारों में बदलीं
अपने भीतर तरल और गुनगुनी
वासनाएं रक्खे, वे
बहुत समय तक जस की तस रहीं.

प्रिया मैं

तुम्हारे लिए कर्णफूलों का एक जोड़ा छांट रहा हूँ
ढेर सारे सुन्दर जोड़ों में से

अपने एकांत को सजाना चाहता हूँ

तुम्हारे सुन्दर पाँवों के लिए मोज़े
ताम्बई नेलपालिश, सुनहला इत्रदान
अपने एकांत में रंग भरना चाहता हूँ ना !

इस पायल की रुनझुन गूंजती नहीं मेरे प्रदेश में
कुछ है जो आवाजों और देखते रहने को सोख लेता है

एक कंघी और घुंघराले बालों के बीच
तुम्हारे आदिम कबीले का चिन्ह बनाकर
प्रेमपत्र क्या भेजूंगा : अपने आप में बुदबुदा रहा हूँ.

मुझे खाली शब्दों और चमकदार चीज़ों के बीच
निस्बत खोजने से ज्यादा आत्मीय कोई चीज़ चाहिए थी
इससे तो अच्छा होता कोई बेवजह
मेरे हृदय को छेद देता.

सुराख़

इसी सुराख़ से समय मेरे कमरे में आता है
रात इसी रास्ते उतरता है अन्धकार
कभी जो अपनी शकल देखनी हो चाँद को
तो फर्श पर खुदे
इसी गोल दरपन में देख पाता है

एकबार लेटे लेटे खिसककर
मैंने उसे ठीक अपने दिल पर ले लिया
अब याद नहीं ठीक से
वो चांदनी थी, धूप थी, क्या थी

यकीन मानिये साहब
हमने चीज़ों के मायने बदल दिए.
  
क़ासिद

कभी जो झूठ मिलाये बिन
सुनाया हो पैगामे ज़ुबानी,

दस के दस क़ासिद
झूठ के सौदागर निकले

इतने जाले बुन दिए हैं
सालों ने, मेरे और तुम्हारे दरमियान
कि इसे सचमुच की तलवार ही काट पायेगी  

कितना दिलचस्प होगा उसका चेहरा देखना
जब नौ कासिदों की गर्दन उतार चुकी तलवार
दिखाके दसवें की रज़ा पूछी जायेगी

वो फिर एक झूठ गढ़ेगा
और थोड़ी देर को
अपनी जान बचा लेगा.

तस्वीर 

माशूका की तस्वीर सिरहाने रख के सोया था
काम पर देर हुई
तो तस्वीर को कहीं रखना था
मेजपोश के नीचे
या संभालकर कहीं और.

वो ख़ाब का तकिया हुआ
जिस तकिये के नीचे
रातभर जागी थी तस्वीर
और रातों-रात सतरंगी हुए
उसमें भरे सफ़ेद पंख.

जो हमेशा के लिए ठहर गया वहीं पर
एक इन्द्रधनुष,
कभी बहुत उजाले में
बेवजह हँसने लगता
तो बारिश से उसका रिश्ता जोड़ने वाले
हैरान रह जाते, ऊपर देखकर
आशिक : उदासी से मुस्कुराता.

रात इसी तकिये पर सोते
उसे माशूका के बालों की महक बेचैन कर देगी
और दो बजकर तीस मिनट पर याद आयेगा
कि सुबह कहाँ रखी थी तस्वीर.
  
 वृक्ष देवता    

अपने विशाल पंखों से हाँफते
विचरो आकाश के हृदय में

शाम ढले लौट आओ
अंधेरे में खड़े खड़े रोने के लिये।

कलरव से / वीतराग / रहे आओ ।

जल
सबसे ढंडे चुंबन में
पथरा चुके हो जल !
कंठ में उग आए
कांटों पर
जल तरंग बजाओ।

भले बाहर

बादल राग गाओ।

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sampark: 09425256497

Monday, March 2, 2015

रहे है खौफ मुझको वाँ की बे-नियाजी का

इस बीच व्योमेश के निर्देशन में राम की शक्ति पूजा दिखी. आगरा की एक शाम की बात है. कथा याद होने से वो सारे भाव मन में पहले ही आ जा रहे थे जो मंच से उठ कर फैलने वाले होते थे. मसलन, अकेलेपन की स्मृति थी या अकेलेपन की कल्पना यह भेद मालूम नहीं पर एक दृश्य बेतरतीबी से मन में बैठ गया, जबकि मैं मित्रों के बीच था और शोर भी इतना था कि आप चाहे तो भी अकेले नहीं हो सकते.

कथा यहाँ तक पहुँची थी जहाँ राम शक्ति को फूल चढ़ा रहे हैं. पार्श्व में 'शक्ति की करो मौलिक कल्पना' बज कर खत्म हुआ ही हुआ था. अब मैं सोचता हूँ कि व्योमेश ने जानबूझ कर ऐसा किया या अनायास ही पर पूजा करते करते मंच पर सिर्फ राम ही रह जाते हैं. यह एक मात्र दृश्य है जहाँ सिर्फ एक पात्र मंचस्थ है. मंच बहुत बड़ा था और बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि राम का आखिरी फूल खो गया है. राम बेचैन होते हैं. आखिरी फूल चाहिए और अब उन्हें स्मृति हो रही है कि माँ उनकी आँखो को 'कमल के फूल' सरीखे बताते रही हैं.

आप, हम और सब को विदित है कि कथा क्या है. राम फूल न मिलने की दशा में अपनी आँख ही अर्पित करना चाहते हैं. फिर देवी आती हैं और फूल उन्हें लौटाती है. सुखांत है. मेरे लिए तो कई सुख थे. बृजराज, प्रेमशंकर और प्रियम अंकित से मिल रहा था, मेले में था और साथ ही बाल-हनुमान के रूप में साखी को देख कर मन प्रसन्न हो गया. इस उम्र के चश्में से नए बच्चों को देखना, गजब है. उसे बाल हनुमान के रूप में देख कर व्योमेश की एक कविता याद आई जिसमें नायक रामलीला देखने गया है और उसकी बेटी किसी एक दृश्य से डर गई है.

बावजूद इसके, राम को मंच पर अकेला पाकर मैं घबरा गया था. कई सारे भय एक साथ आए. कहीं देवी ने आने में देर कर दी तो ? या कोई 'इम्प्रोवाईजेशन' न हो गया हो ? राम ने कटार निकाल ली थी और संगीत की धीमी लय से अपनी आँखो की तरफ ले जा रहे थे और इस द्र्श्य का कहीं कोई अंत दिख नहीं रहा था. मुझे बहुत बेचैनी हुई. कुछ देर बाद, मंच के पिछले हिस्से में परछाईं दिखी जो फिर शरीर में तब्दील हुई. देवी थी. राहत हुई. लगा कि, इस बार देर नहीं हुई है और राम अपनी आँख निकालने से बच जायेंगे.

उस वक्त तो हड़बड़ी थी इसलिए राहत को ही महसूस कर पाया पर पिछले तीन दिनों से यह डर सता रहा है कि अगर देवी समय पर न आई होती तो मेरा क्या होता. यह जानते हुए भी कि कथा में विचलन की सम्भावना कम है, फिर भी मैं खुद को यकीन क्यों नहीं दिला पा रहा था कि यह महज एक दृश्य है, जिसे बीत जाना है.

जीवन ऐसा क्यों होता जा रहा है ?