Friday, May 23, 2014

रविशंकर उपाध्याय: वह नायक की तरह जिया और कवि की तरह मरा


इनदिनों परिचितों की मृत्यु अखबार हो गई है. कभी रोज चली आती है तो कभी पाक्षिक या मासिक. साहित्य जगत में प्रवेश से जो दायरे बढ़े उनमें इसका अन्दाजा न था कि जितने अधिक लोगों को जानना होगा, उतनी ही दफा मृत्यु की दु:खद खबर से गुजरना होगा. और सच कहूँ तो डर लगता है. लगता है, अगली रशीद अपनी तो नहीं ! इनमें कई ऐसे देशी विदेशी लेखक भी हैं जिनसे कोई परिचय/बात सम्भव भी नहीं पर, मुरीद होने के नाते, उनकी मौत की खबरें भी वैसा ही दु:ख देती हैं जैसे किसी परिचित की...

रविशंकर का जाना दु:खद के साथ डरावना भी है. मतलब 'शॉक' की स्थिति है. जैसे अब भी मन में एक आवाज उछल रही हो कि तय तो यह नहीं हुआ था. मृत्यु आग की तरह चोर है.  सब खत्म कर दे, ऐसा.

उसके कवि रूप से परिचय कम और देरी का है पर वो गजब का 'ऑर्गेनाईजर' था.

कविता सम्बन्धित दो बड़े आयोजन तो प्रचलित होने के नाते लोगों के जेहन में हैं. चार वर्ष पहले का एक वाकया मेरी स्मृति में है: कृष्णमोहन और मैं मधुबन ( बी.एच.यू ) में थे तभी कहीं से रविशंकर आता दिखा. बातचीत के दौरान भाई ने बताया कि वो समीक्षा पर कोई सेमिनार या कार्यशाला का आयोजन कराना चाहता है. यह बात महज दिल्लगी के लिए नहीं कही गई थी. भाई ने तुरंत रजिस्टर निकाला जिसमें कार्यक्रम की रूपरेखा थी, उन किताबों के नाम थे जो इस समीक्षा कार्यशाला का आधार बनने वाले थे. उस वक्त की स्मृति ऐसी नहीं कि सम्वाद भी याद रहें पर साहित्य क्षेत्र पहली बार ऐसा कमिटेड बन्दा देख रहा था. अपनी जो दुनिया है उसमें खुद से 'इनिशियेटिव' लेने वालों की इतनी पूछ है, इतना मान है कि क्या कहिए !

( यह इत्तेफाक की हद है कि जो, मैं, कई बड़े मौकों पर बनारस नहीं पहुँच पाया वो दिसम्बर 2011 में जब बनारस पहुँचा तो मालूम पड़ा, आज उस कार्यशाला का समापन है. मैं घूमते-घामते वहाँ पहुँच गया ).

हो सकता है यह सही मौका न हो पर आयोजन का जिक्र मैं इसलिए भी करना चाहता हूँ कि जितनी भी मेरी दुनिया है,उसमें मैने पाया है,  आयोजनकर्ता या जिम्मेदारी उठाने वाले अक्सर किसी मुकाम पर अकेले छूट जाते हैं. बाहर से चाहें जैसे भी दिखतें हो लेकिन अन्दर ही अन्दर हम गुमसुम होते जाते हैं. वजह है. वजह यह है कि बड़ी जिम्मेदारियों में रोजाना के दोस्तों मित्रों अभिभावकों का भी सच हमारे सामने खुलता है, मसलन, हम सबसे मदद की अपेक्षा करते हैं. आर्थिक, शारीरिक, सामयिक, तमाम. और यह सच है कि यही मौका होता है जब वह ( आयोजनकर्ता ) लोगों के दो या तीन आयामों से परिचित होता है. हो सकता है, दोनों चेहरे सकारात्मक हो ( मैं किसी सस्ते निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहता ). क्योंकि कार्यक्रम में सबसे महत्वपूर्ण होता है - निर्धारित समय. वो हमें बाँध देता है. कार्यक्रम से पहले हम मरे जाते हैं कि कैसे तो सब निबटे और कार्यक्रम के बाद - वह भयावह खालीपन !

 ऐसा होता है कि आयोजनों में सफलताएँ सामूहिक मान ली जाती हैं और असफलताएँ जैसे आर्थिक कर्ज, अथिति का न आना, कुछ गलत हो जाना आदि कई मर्तबा व्यक्ति पर थोप दी जाती हैं. मैं तहे-दिल से यह मानना चाहता हूँ कि रविशंकर के सारे अनुभव अच्छे रहे होंगे. मगर ऐसा होता है-यह सच है.

दो वर्ष पहले भी जब वाशरूम में गिर गया था, तब ही यह खबर आई थी कि भाई के मस्तिष्क में कुछ गम्भीर दिक्कत है. इलाज भी चला. या 'शायद' चला. किताबों के शौक और अनेक जिम्मेदारियों में यह इलाज कितना निभ पाया होगा, इसका अनुमान मुझे नहीं है.

मित्रों से मालूम पड़ा कि कुछ दिनों पहले ही पी.एच.डी जमा की थी. भाई का स्वप्नशील और अनेक सुन्दर व्यक्तिगत जीवन भी रहा होगा, जो इस दुनिया की तरह अधूरा ही रहा गया.

रविशंकर के चाहने वाले बहुत थे / हैं. यह उसके जीवन काल में भी देखा जा सकता था और अब, जब वह खुद नहीं है, तब भी. लोगों को ऐसे रोते हुए देखा-सुना तब ताज्जुब हुआ कि एक आदमी, जो रिश्तों की दायरे में भी न हो, कितना करीब हो सकता है. ऐसे जैसे वह आदमी एक जज्बा था.

..........................  

( शीर्षक मारीना त्स्वेतायेवा के एक आलेख से, जो उन्होने मायकोवेस्की के न रहने पर लिखा था )

Monday, May 19, 2014

अच्छे दिन - 1: नमो ब्रिगेड ने यू.आर.अनंतमूर्ति को कराची तक का हवाई टिकट भेजा


उपर: यू. आर. अन्नतमूर्ति ( यस डियर, यू रियली आर अन्नंतमूर्ति ! )

नीचे: नमोब्रिगेड की मंगलौर शाखा की वो "आम जनता", जिसने टिकटादि का इंतजाम किया.

Monday, May 5, 2014

सनद - 2: तो क्या भारत पर विजय पाने में भाजपा कामयाब हो पायेगी ? ( सन्दर्भ: भारत विजय रैली )

बीजेपी आज गया में भारत विजय रैली कर रहीे थी।इतिहास में किसी भारतीय समूह द्वारा भारत विजय का उदाहरण नहीं मिलता।यह अभियान हमेशा विदेशी हमलावरों के जिम्मे होता था।लेकिन बीजेपी आरएसएस के सर तो भारत को हड़पने का नशा चढ़ा हुआ है।उनको भला अपने देश को रौंदने की भाषा से क्या तकलीफ हो सकती है।उनका एक नेता है जो मेंढक की तरह गला फुलाकर जगह जगह टर्रा रहा है और उसके सामने चीखती चिल्लाती और सीटी बजाती लफंगों की भीड़ है।पूरी दुनिया को जान लेना चाहिए कि हेडगेवार और गोलवलकर की परंपरा की असलियत क्या है।

( कृष्णमोहन )

Sunday, May 4, 2014

सनद - 1 : मर्दवादी मुहावरों की प्रासंगिकता

सलमान खुर्शीद ने मोदी को 2002 के क़त्लेआम को न रोक पाने के लिए नपुंसक कहा जिस पर आज न्यूज़ चैनलों पर घमासान छिड़ा हुआ है। राजनीती में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल गलत है क्योंकि इससे मुद्दे पीछे चले जाते हैं और व्यर्थ की बहसें शुरू हो जाती हैं।बहरहाल अगर कोशिश करें तो इस बात से भी वास्तविक मुद्दों तक पहुंचा जा सकता है।अधिक दिन नहीं हुए जब मोदी ने यूपी को गुजरात बनाने के लिए 56 इंच के सीने की ज़रुरत पर बल दिया था।भाषा में छिपे मर्दवादी स्वर पर ध्यान दें।इस मुहावरे में स्त्रिओं के लिए उतनी ही भूमिका है जितनी कि RSS के किसी अन्य एजेंडे में हो सकती है। गुजरात बनाना मर्दानगी का काम है । अब अगर सचमुच बात किसी आर्थिक विकास की हो रही होती तो ऐसे किसी मुहावरे की ज़रूरत ही न पड़ती। परंपरागत रूप से हम जानते हैं कि ऐसी मर्दानगी का इस्तेमाल करने की डींग उन्ही किस्म के कामों के लिए हांकी जाती है जिनके चलते 2002 का गुजरात नेकनाम रहा है। इस सन्दर्भ में देखें तो खुर्शीद ने मोदी को इसी मर्दानगी के दावे पर खीज भरी चुनौती देने की कोशिश की है।दोनों की मानसिकता स्त्रीविरोधी और अलोकतांत्रिक है।यहीं से हमारे समाज की वास्तविक मुश्किल की शुरुआत होती है।

इस मामले में अन्य पार्टिओं की स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है। आम आदमी पार्टी ने तो अपने नाम से ही स्त्रिओं का बहिष्कार कर रखा है। उनके लिए किसी महिला के सम्मान और गरिमा का मुद्दा मायने नहीं रखता। इस बाबत सवाल उठने पर वे भी सड़कछाप शोहदों के अंदाज़ में उन्हें चरित्रहीन वगैरह बताने लगते हैं। वामपन्थी भी जब सत्ता में होते हैं तो टाटा जैसों के लिए अपनी जनता पर;विशेषकर स्त्रिओं पर वैसे ही ज़ुल्म ढाने में नहीं हिचकते जिसके लिए वे सामंती पूंजीवादी शक्तिओं को कोसते रहते हैं।सत्ता से हटने के बाद महिला मुख्यमंत्री के खिलाफ उनके नेताओं की जुबान भी मर्दवादी चाशनी में लिथड़ कर ही चलती है।क्या लोकतंत्र का एक और त्यौहार भी महज़ तमाशा बनकर गुज़र जायेगा ? लोकतंत्र के वास्तविक मुद्दों पर बहस करने के लिए हम अपने नेताओं को बाध्य कर सकेंगे या टीवी पर होने वाली जुगाली से तृप्त हो जाना ही हमारी नियति है?

( क़ृष्णमोहन )