Monday, March 17, 2014

आधुनिक 'विकास' नसबन्दी कार्यक्रम की तरह हो गया है

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/03/140316_modi_kejriwal_varanasi_analysis_vr.shtml

मैं उम्मीद करता हूँ कि उपर के लिंक में जो बातें काशीनाथ सिंह के नाम से छपी हैं वो, काश, उनकी बातें न हों.

सड़कछाप विकास ( जिसमें सड़के और इमारतें बनाना भर ही शामिल हो, शिक्षा, गरीबी या अन्य जरूरी मुद्दे नहीं ) हर जगह हो रहा है. यह नसबन्दी कार्यक्रम की तरह जबरा हो गया है. इसके तर्क इतने तगड़े और लूट इतनी शानदार हैं लोग चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर पा रहे. जहाँ कुछ् भी नहीं हैं वहाँ भी विकास के नाम पर सड़के हैं. सड़के विकास का पैमाना कब से हो गईं इसकी जाँच होनी चाहिए. आज अगर कॉर्पोरेट्स का मुनाफा इस इंफ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री में कम हो जाए तो ये सारे 'विकास' झटके में बन्द हो जायेंगे. जिन्हें लगता है कि सरकारें इस सड़कछाप विकास की कर्ता धर्ता हैं उनकी मृत समझ के लिए मेरी ओर से दो फूल रखें. कनेर के फूल.

नरेन्द्र का बनारसी संकल्पना से अरसा पहले बनारस के प्रशासन ने जो सड़्क चौड़ीकरण और अन्य अभियानों में जो मुस्तैदी दिखाई है वह मैं समझता हूँ पर्याप्त है और काबिल-ए-तारीफ भी. बनारस हो या कटक, इन बेहद पुराने शहरों की अपनी काबिलियत और अपनी मुश्किलें है.

परंतु बी.बी.सी-हिन्दी ( website ) की इस छिछोर रिपोर्ट की माने तो शायद अब नरेन्द्र बनारसी गलियों को ही नेस्तनाबूद कर बनारस का विकास करेंगे. हो सकता है, गंगा के किनारे को, घनी और आबाद आबादी से खाली कराकर वहाँ, अहमदाबाद की मरती हुई साबरमती के किनारे शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की तर्ज पर, विकास कराने की उम्मीद वरिष्ठ रचनाकार काशीनाथ सिंह ने लगा रखी हो.

यह सबको मालूम होना चाहिए कि शहर का विकास नगर निगम या पालिका के हाथों होता है.

रही पहचान की बात तो यह सबको समझ लेना चाहिए कि नरेन्द्र तो फिर नरेन्द्र हैं, खुद ओबामा भी बनारस से चुनाव लड़े तो इससे उनकी ही पहचान पुख्ता होगी. बनारस की पहचान जिन पैमानों पर बननी बिगड़नी है, वो सौभाग्य से 'राजनीति' नहीं है.

जिसे भी शहर से प्यार है उसे मुख्तार अंसारी या उसके समकक्ष नरेन्द्र मोदी जैसों के झाँसे में नहीं आना चाहिए.

  

Sunday, March 16, 2014

नरेन्द्र मोदी बनारस पर आरोप की तरह लगे हैं

बनारस, स्वप्न द्वारा यथार्थ को लिखा हुआ प्रेमपत्र है. मुचड़ा हुआ, उनींदा, गुम हुआ चाहता हुआ प्रेमपत्र. तारीख ने, बनारस की मर्जी के बगैर, फिर से उसे खोज निकाला है.

नरेन्द्र मोदी बनारस पर आरोप की तरह लगे हैं. लोग (कुछ लोग ) ऐसे मतवाले हुए जा रहे हैं कि मोदी के बजाय बनारसियों को बधाई दे रहे हैं. ऐसे अन्दाज में कि मानो कह रहे हों, बहुत बनारस बनारस किए रहते थे, लग गए न किनारे ?  रविवार की सूनी सुबह, दो बधाई सन्देशों के बाद मैं जब खुद को शर्मिन्दा और निरुत्तर पा रहा हूँ तो एक ख्याल यह भी आ रहा है कि बनारस को कैसा लग रहा होगा ?

गनीमत है कि यह अभी आरोप है. कलंक नहीं. किसी न किसी नगर को यह जहर पीना था इसलिए भी शायद बनारस ने खुद को आगे किया हो. बनारस का समय अगर शरीर धर ले तो शर्तिया चुनाव का दिन उस शरीर का कंठ बनेगा. बनारस ने सबक सिखा दिया तो वह दिन नए जमाने का नीलकंठ कहा जायेगा. लोग ( कुछ ) नीलकंठ को समय की संज्ञा सरीखे याद रखेंगे.

चुनाव के समय तक, तीस हजार करोड़ के अनुमानित चुनावी खर्चे ( व्यवसाय ) पर नजर टिकाए शिकारी कुत्तों   ( सम्पादित, कृपया इसे पढ़े - नजर टिकाए मीडिया कॉर्पोरेट्स ) ने अगर अरविन्द केजरीवाल की असामयिक सामाजिक हत्या न कर दी तो वो, अपनी सीमाओं के बावुजूद, नरेन्द्र से बेहतर विकल्प हैं.

तस्वीर नाग नथैया की है. बनारस के प्रमुख उत्सवों में से एक यह, कृष्णलीला का एक अंश है, जिसे हर वर्ष मनाया जाता है.