Saturday, June 25, 2011

महेश वर्मा की छ: नई कविताएँ

कविता और उसकी राजनीति से इतर की बहसों ने कविता को रूप बन्ध और चाक्षुष ऐन्द्रियता के निकट ला खड़ा किया है. जिससे ज्यादातर कविता अपने चुस्त मुहावरेदारी, स्मार्ट भाषा (जिसमें सिनेमाई गीतों से होड़ अधिक है) की वजह से नजर खींचती जरूर है पर अपने विधान से उनकी दूरी खटकती है. मसलन, हम पाते हैं कि कविता का वाक्य हमें विचार से अधिक दृश्य, और वो भी देखा हुआ या कल्पित, तक पहुंचा देता है. जबकि गढ़े हुए आसान दृश्यों से भरे पूरे इस जमाने में होना यह चाहिए था कि कविता खुद को चाक्षुष होने से बचाती. या कह लें कि प्रतीक रचने की कोशिश करती, जैसे महेश वर्मा की कविताएँ.


बतौर कवि महेश की तैयारी इतनी जबर्दस्त है कि वो कविता में लय बँधने ही नही देते. सायास वो कविता को चाक्षुष होने से बरजते हैं. गढ़ने की शर्त पर महेश छवि नहीं, किम्वदंती की राह लेते हैं ( चंदिया स्टेशन की सुराहियाँ प्रसिद्ध हैं). इनका लगाव जितना कविता के पाठकों से है उतना ही कविता से और यही वजह है कि पाठको के लिए इस्तेमाल “आम फहम तर्क( स्पून फीडिंग)” के सख्त खिलाफ होते हुए स्वयं पाठकों से संयत तैयारी की माँग रखते हैं.

प्रस्तुत हैं महेश की छ: नई कविताएँ. चित्र 'रॉल्फ क्लुएंटर' का.








पानी


अब वही काम तो ठीक से करता , वहाँ भी
पिछड़ ही गया वाक्य सफ़ेद कुर्ते में पान खाकर
तर्जनी से चूना चाटने की तरह कहा जाता
जहाँ उसी आसपास साईकिल अब कौन चढता है
प्रश्न के उत्तर की तरह चलता हुआ ब्रेक इसलिए
नहीं लगा पा रहा था कि रुकते ही प्यास
लगेगी. बिना अपमान के सादा पानी छूंछे
पीकर निकल जाना मुश्किल होते जाने के शहर
में या तो मंत्री हो गए सहपाठी का किस्सा सुनाते
परचूनिए से उधार ले लूं या पत्रकार बन जाऊं के विकल्प
को छोड़ कर कविता लिखना तो ट्यूशन पढ़ाने से भी
कमज़ोर काम कि पीटने के लिए छात्र और दांत
दिखाने के लिए विद्यार्थी की महिला रिश्तेदार भी
नहीं . धूप में साइकिल कहीं रोकने में पुराने पंक्चर
के खुलने का डर तो इस दोगलेपन का क्या
कि जो दरवाजा जीवन से कविता की ओर खुलता
वही दरवाजा कविता से जीवन में लौटने का नहीं .

इस वाक्य ने डरा ही दिया जिसकी चूने वाली मुद्रा
पहले ही बोल चुका जो यूं सुनाई दिया कि कविता में
भी पिछड़ गया, कम से कम वही ठीक से लिखता .

 
 
चंदिया स्टेशन की सुराहियाँ प्रसिद्ध हैं


जंगल के बीच से किम्वदंती की तरह वह आई प्यास उस
गाँव में और निश्चय ही बहुत विकल थी .

और चीज़ें क्यूं पीछे रहतीं जब छोटी रानी ही ने उससे
अपनी आँखों में रहने की पेशकश कर दी , लिहाजा
उसे धरती में ही जगह मिली जहां की मिट्टी का उदास
पीला रंग प्रेमकथाओं की किसी सांझ की याद दिलाता है .

पहली जो सुराही बनी वह भी प्यास धरने के लिए
ही बनी थी लेकिन कथाएँ तो गलती से ही आगे बढ़ती हैं .

आगे बढ़ती ट्रेन उस पुराने गाँव की पुरानी कथा में
थोड़ी देर को जब रुकती है तो लोग दौड़कर दोनों
हाथों में सुराहियाँ लिए लौटते हैं - कथा में नहीं बाहर
सचमुच की ट्रेन में .

वे भी इसमें पानी ही रखेंगे और विकल रहेंगे,
गलती दुरुस्त नहीं हुई है इतिहास की .

 
 
धूल की जगह


किसी चीज़ को रखने की जगह बनाते ही धूल
की जगह भी बन जाती . शयन कक्ष का पलंग
लगते ही उसके नीचे सोने लगी थी मृत्यु की
बिल्ली . हम आदतें थे एक दूसरे की और वस्तुएँ
थे वस्तुओं के साथ अपने रिश्ते में .

कितना भयावह है सोचना कि एक वाक्य
अपने सरलतम रूप में भी कभी समझा नहीं
जा पायेगा पूर्णता में . हम अजनबी थे अपनी
भाषा में , अपने गूंगेपन में रुंधे गले का रूपक
यह संसार .

कुछ आहटें बाहर की कुछ यातना के चित्र .ठंड में
पहनने के ढेर सारे कोट और कई जोड़े जूते हमारे
पुरानेपन के गवाह जहाँ मालूम था कि धूप
आने पर क्या फैलाना है , क्या समेट लेना है
बारिश में .

कोई गीत था तो यहीं था .

 
 
मिलने गया था


बीच में अपने बोलने के वाक्य ही में डूब जाता फिर कुछ
देर पर उसी डूबने की जगह से उसकी थकन बुदबुदाने लगती . कमरे
में अँधेरा छा जाता .कई सूर्यास्त और साल डूब गए उसके बोलने में,
डूबने में , इतने दिनों के बाद वह लौटा था .
बाहर भी गहराती होगी शाम सोचते उठने के मेरे उद्विग्न से
बेपरवाह उसके बोलने में शत्रुओं , स्त्रियों और समर्थ लोगों पर
हिंसा की असमाप्त नदियाँ , इतना उदास और सांवला
होना था जिनका पानी कि अपने भीतर डुबोने का
दुस्वप्न रचतीं , बहतीं फिर बहना भूल जातीं .
उधड़ी हुई जगहों से रेत और जिंदगी के सूख चुके साल
झरते रहते .

कितना ग़लत था सोचना कि पुराना कवि अपने डूबने में बाहर
कोई जगह खाली करता है नए कवि के लिए ,अपने मरने में
बूढा चित्रकार नौजवान चित्रकार के लिए...और ऐसे ही बाकी सब.
बस थोड़ा असावधान था यह कि आसानी से व्यवस्था
इसका शिकार कर पाई और इतना तो अकेला कर ही पाई
दूसरों को जितना यह होता था बाहर .
जितना यह होता था हमारे भीतर हम इसके भीतर वह भी
डूबा इसके डूबने में, क्या फर्क की ये मात्राएँ अलग अलग ?

ऐसा नहीं तो क्यों उदास कर पाती यह बात मुझको लौटते में
और फिर ये भी कि इससे मिलने जाता ही क्यों ?




इस समय के किस्सागो को समझे जाने की ज़रूरत है

मृतकों के बारे में बताता हुआ वह मनुष्यों से अपने विवश जुड़ाव
को व्यक्त कर रहा है, कमसे कम एक वस्तु तो उन्हें मान ही रहा
है जिसे पहचानता है .

सफ़ेद बर्फ़ जिसमें कोई जीवाश्म भी जीवित नहीं विकिरण भी
नहीं , बताते हुए उसके पास पानी की एक पुरानी (उदास) याद
तो है .

खिड़की के बाहर की स्थिरता जिसमें वायुमंडल की खाली
जगह है और कंटीली झाडियाँ , इसमें ही से आपको ढूंढ लेने
हैं इतिहास और नृविज्ञान के सन्दर्भ.
उसके किस्सों में काफी कुछ दर्ज है भाई अब भी .

 
 
इतिवृत्त


अभी यह हवा है वह पुराना पत्थर
                             (चोट की बात नहीं है यहाँ सिर्फ देह की बात है)
यह सर हिलाता वृक्ष पहले उदासी था

यह कील थी पहले एक आंसू
यह रेत एक चुम्बन की आवाज़ है मरुस्थल भर
हंसी नहीं था यह झरना-
                                        यह आग थी हवा में शोर करती चिटखती
                                         अब इसने बदल ली है अपनी भाषा
चाँद पुराना कंगन नहीं था
कुत्ते के भौंकने की आवाज़ थी

परिंदे दरवाज़े थे पहले और आज
जो दरवाज़े हैं वे दरख़्त थे ; यह
                              सब जानते हैं.

जानना पहले कोई चीज़ नहीं थी
वह नृत्य लय थी : खून की बूंदों पर नाचती नंगे पाँव

शोर चुप्पी से नहीं
रोशनी से आया है यहाँ तक

खाली जगहें सबको जोड़ती थीं.



रेमेदिओस

एक साफ़ उजली दोपहर
धरती से सदेह स्वर्ग जाने के लिए
उसे बस एक खूबसूरत चादर की दरकार थी .

यहाँ उसने कढ़ाई शुरू की चादर में
आकाश में शुरू हो गया स्वर्ग का विन्यास .
यह स्वर्ग वह धरती से ही गढ़ेगी दूर आकाश में
यह कोई क़र्ज़ था उसपर .

उसने चादर में आखिरी टांका लगाया
और उधर किसी ने टिकुली की तरह आखिरी तारा
साट दिया स्वर्ग के माथे पर – आकाश में .

रुकती भी तो इस चादर पर सोती नहीं
इसमें गठरी बांधकर सारा अन्धकार ले जाती
लेकिन उसको जाना था

पुच्छल तारे की तरह ओझल नहीं हुई
न बादल की तरह उठी आकाश में

उसने फूलों का एक चित्र रचा उजाले पर
और एक उदास तान की तरह लौट गई .


( रेमेदियोस द ब्युटीफुल नामक चरित्र, गैब्रियल गार्सिआ मार्खेज के उपन्यास ' एकांत के सौ वर्ष' से है जो किस्से के मुताबिक एक दोपहर चादर समेत उड़ जाती है. )

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( कवि परिचय : अम्बिकापुर में रिहाईश. दर्शन और साहित्य के गम्भीर अध्येता. प्रवीण वक्ता. कविता से अलग अनुवाद कार्य भी.
सम्पर्क : 09713610339 / 09425256497

 

Saturday, June 4, 2011

मनोज कुमार झा की कविताएँ

शब्दकोशों के आसरे कविता में अचम्भा का पुट डालने की अथक और उबाऊ कोशिशों के जमाने में  मनोज की कविताएँ शुभ समाचार की तरह सामने आतीं हैं. अनोखी बिम्ब योजना में माहिर मनोज, हमारे आपके स्वप्नों के कुछ तिनके उठाकर वितान रच देतें हैं. यहाँ मनोज की चार कविताएँ प्रस्तुत हैं. और यहाँ भी छ: कविताएँ.    



कोई भी, कहीं भी


कभी भी हास्यास्पद हो सकता हूँ
इससे भी नीचे का कोई शब्द कहो
कोई शब्द कहो जिसमें इससे भी अधिक ताप हो, अधिक विष
मनुष्यता को गलनांक के पार ले जाने वाला कोई शब्द कहो.

कभी भी हो सकता हूँ हास्यास्पद - घर, बाहर कहीं भी
बच्चे के हिस्से का दूध अपनी चाय में डालते वक्त
कभी भी कलाई पकड़ सकती है पत्नी.
मेरे जैसा ही तो था जो उठाने झुका कोलतार में सटा सिक्का
मैं उसको चीन्ह गया, उस दिन एक ही जगह खरीदे हमने भुट्टे
जब उसको कह रहे हास्यास्पद तो मैं ही कितना बचा.

कभी भी हो सकता हूँ हास्यास्पद -
और यह कौन बड़ी बात है इस पृथ्वी पर
जब हर इलाके में जूठा पात चाट रहा होता है कोई मनुष्य,
सुविधा में जिसे पागल कह डालते हो.


शाप

जो पाँव कट जाते हैं वे भी शामिल रहते हैं यात्रा में,
कट गये हिस्सों से देखो तो दुनिया और साफ दिखती है
नक्शों की लकीरें और गहरी.

दर्शनियाँ जितने आते हैं मरियल या मोटाया हुआ
पुजारी तो बस उन्हें प्रसाद देता है
किसी किसी को ही पहचानता जिससे रिश्ते लेन-देन के,
मगर प्रवेशद्वार पर बैठा भिखारी जानता है सबकी खूबी, सबके ऐब.

प्रार्थना करो, यह शाप न मिले कि
सारे अंग साबूत
मगर जब जल में उतरो तो लगे नहा लिया बहुत देर
और शरीर को अज्ञात ही रह जाये जल का स्पर्श


चमक की चोट


यह वो रोशनी नहीं जो सुस्तकदम आती, बैठ जाती अँधियारे से सटकर
और उसके हाथ की सुई में धागा डाल देती है.
रेत के कण पर पानी का पानी चढ़ाती वस्तुओं के माथे पर चढ़ी है यह ढीठ चमक
नहीं यह सकुचौहाँ चमक जो एक स्वस्थ मनुष्य के नाखून में होती है
यह तो वो चमक जो एक फूँक में मनुष्य को पॉलिथीन की त्वचा में बदल देती है.
आधी रात गये जब करवट बदलते कमर में गड़ रही होती है अधपकी नींद की डंठल
उस वक्त कोई अभागा काँच का केंचुल उतार रहा होता है
फिर हट जाता है साँप की लपलपाती जीभ से मोहक शीशे से दूर
और लौट जाता है चूर उस फाँट में जो अबतक उगी हर सभ्यता में
इन्ही के लिए है.

पुनर्वास

 
यकायक इतना प्रकाश
मैं कुछ भी नहीं देख पा रहा
होता जाता है चित्त चोटिल और बरसता जाता है प्रकाश मूसलाधार
मुझे प्रकाश के भीतर का दूध वापस दे दो.
किसने फोड़ा इतनी जोर से नारियल कि
 इसके भीतर का पानी धुँआ हो गया
मुझे डाभ के भीतर का जल लौटा दो.
एक नाम, दो नाम , तीन नाम, दस नाम
मुझे नामपट्टिका नहीं ठोस जलमय चेहरा दिखाओ.
इस झाड़ी में कुछ था जो त्वच का गंध बदल देता था
मुझे वो सबकुछ वापस करो - सारे गंध और सारी झाड़ियाँ.

मेरी इन्द्रियाँ मेरी देह के भीतर ही रास्ते भूल गई हैं
मुझे जाने दो अपनी इन्द्रियाँ वापस पाने
और सब कुछ यहीं- इसी देश में, इसी काल में
इसी धूल में, इसी घाम में.