Tuesday, March 29, 2011

दुन्या मिखाईल की पाँच कविताएँ

मनोज पटेल ने अनूठे ही अन्दाज में मेरा परिचय विश्व कविता से कराया. विश्व  कविता के बड़े नामों में ही उलझा हुआ मैं था जब मनोज जी ने वेरा पावलोवा, चार्ल्स सिमिक और दुन्या मिखाईल की कविताओं के अनुवाद मुझे भेजने शुरु किए. फिर तो सिलसिला अनवरत है.


दुन्या की कविताएँ किसी ऐसे दु:ख या सघन अनुभूति की तरह सामने आती हैं जिनका सामना हम भरसक नही करना चाहते. जैसे यह कविता – कटोरा(अंग्रेजी में इसका शीर्षक ‘द कप’ है). पाखंड को आप नकारते हैं, शगुन – अपशगुन को आसानी से नकारते हैं पर यह कविता आपको गर्दन पर सवार हो जायेगी जहाँ आप चाहकर इस शगुन – अपशगुन के खेल को आसानी से नकार नही पायेंगे.

खेल कविता पढ़ते हुए मीर के एक शे’र “खुदा को काम तो सौपें हैं मैने सब / रहे है खौफ मुझको वाँ की बेनियाजी का” लगातार याद आता रहा. ऐसे ही तीसरी कविता है – एक आवाज़.

इससे पहले भी मनोज जी  दुन्या की कविताओं के अनुवाद लगातार करते रहे हैं जिन्हें आप यहाँ और यहाँ देख सकते हैं.

                                                      ************




कटोरा

उस स्त्री ने कटोरे को उल्टा करके रख दिया
अक्षरों के बीच में.
एक मोमबत्ती को छोड़कर बाक़ी सारी बत्तियां बुझा दीं
और अपनी उंगली कटोरे के ऊपर रखी
और मन्त्र की तरह कुछ शब्द बुदबुदाए :
ऐ आत्मा... अगर तू मौजूद है तो कह - हाँ.
इस पर कटोरा हाँ के संकेत स्वरूप दाहिनी तरफ चला गया.
स्त्री बोली : क्या तुम सचमुच मेरे पति ही हो, मेरे शहीद पति ?
कटोरा हाँ के संकेत में दाहिनी तरफ चला गया.
उसने कहा : तुम इतनी जल्दी मुझे क्यों छोड़ गए ?
कटोरा इन अक्षरों पर फिरा -
यह मेरे हाथ में नहीं था.
उसने पूछा : तुम बच क्यों नहीं निकले ?
कटोरा इन अक्षरों पर फिरा -
मैं बच निकला था.
उसने पूछा : तो फिर तुम मारे कैसे गए ?
कटोरे ने हरकत की : पीछे से.
उसने कहा : और अब मैं क्या करूँ
इतने सारे अकेलेपन के साथ ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
उसने कहा : क्या तुम मुझसे प्रेम करते हो ?
कटोरा हाँ के संकेत में दाहिनी तरफ चला गया..
उसने कहा : क्या मैं तुम्हें यहाँ रोक सकती हूँ ?
कटोरा नहीं की तरफ के संकेत में बायीं तरफ चला गया..
उसने पूछा : क्या मैं तुम्हारे साथ चल सकती हूँ ?
कटोरा बायीं तरफ चला गया.
उसने कहा : क्या हमारी ज़िंदगी बदलेगी ?
कटोरा दाहिनी तरफ चला गया.
उसने पूछा : कब ?
कटोरे ने हरकत की - 1996.
उसने पूछा : क्या तुम सुकून से हो ?
कटोरा हिचकिचाते हुए हाँ की तरफ चला गया.
उसने पूछा : मुझे क्या करना चाहिए ?
कटोरे ने हरकत की - बच निकलो.
उसने पूछा : किधर ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
उसने कहा : तुम मुझसे क्या चाहते हो ?
कटोरे एक बेमतलब जुमले पर फिरी.
उसने कहा : कहीं तुम मेरे सवालों से ऊब तो नहीं गए ?
कटोरा बायीं तरफ चला गया.
उसने कहा : क्या मैं और सवाल कर सकती हूँ ?
कटोरे ने कोई हरकत नहीं की.
थोड़ी चुप्पी के बाद, वह बुदबुदाई :
ऐ आत्मा... जा, तुझे सुकून मिले.
उसने कटोरा सीधा किया
मोमबत्ती को बुझा दिया
और अपने बेटे को आवाज़ लगायी
जो बगीचे में कीट-पतंगे पकड़ रहा था
गोलियों से छिदे हुए एक हेलमेट से.

* *

खेल

वह एक मामूली प्यादा है.
हमेशा झपट पड़ता है अगले खाने पर.
वह बाएँ या दाएं नहीं मुड़ता
और पीछे पलटकर भी नहीं देखता.
वह एक नासमझ रानी द्वारा संचालित होता है
जो बिसात के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चल सकती है
सीधे या तिरछे.
वह नहीं थकती, तमगे ढोते
और ऊँट को कोसते हुए.
वह एक मामूली रानी है
एक लापरवाह राजा द्वारा संचालित होने वाली
जो हर रोज गिनता है खानों को
और दावा करता है कि कम हो रहे हैं वे.
वह सजाता है हाथी और घोड़ों को
और एक सख्त प्रतिद्वंदी की करता है कामना.
वह एक मामूली राजा है
एक तजुर्बेकार खिलाड़ी द्वारा संचालित होने वाला
जो अपना सर घिसता है
और एक अंतहीन खेल में बर्बाद करता है वक़्त अपना.
वह एक मामूली खिलाड़ी है
एक सूनी ज़िंदगी द्वारा संचालित होने वाला
किसी काले या सफ़ेद के बिना.
यह एक मामूली ज़िंदगी है
एक भौचक्के ईश्वर द्वारा संचालित होने वाली
जिसने कोशिश की थी कभी मिट्टी से खेलने की.
वह एक मामूली ईश्वर है.
उसे नहीं पता कि
कैसे छुटकारा पाया जाए
अपनी दुविधा से.



एक आवाज़


मैं लौटना चाहता हूँ
वापस
वापस
वापस

दुहराता रहा तोता
उस कमरे में जहां
उसका मालिक छोड़ गया था उसे
अकेला

यही दुहराने के लिए :
वापस
वापस
वापस...

नया साल

1
कोई दस्तक दे रहा है दरवाजे पर.
कितना निराशाजनक है यह...
कि तुम नहीं, नया साल आया है.

2

मुझे नहीं पता कि कैसे तुम्हारी गैरहाजिरी जोडूँ अपनी ज़िंदगी में.
नहीं मालूम कि कैसे इसमें से घटा दूं खुद को.
नहीं मालूम कि कैसे भाग दूं इसे
प्रयोगशाला की शीशियों के बीच.

3

वक़्त ठहर गया बारह बजे
और इसने चकरा दिया घड़ीसाज को.
कोई गड़बड़ी नहीं थी घड़ी में.
बस बात इतनी सी थी की सूइयां
भूल गईं दुनिया को, हमआगोश होकर.

* *

झूलने वाली कुर्सी


जब वे आए,
बड़ी माँ वहीं थीं
झूलने वाली कुर्सी पर.
तीस साल तक
झूलती रहीं वे...
अब
मौत ने मांग लिया उनका हाथ,
चली गयीं वे
बिना एक भी लफ्ज़ बोले,
अकेला
छोड़कर इस कुर्सी को
झूलते हुए.

 
अनुवादक से सम्पर्क : 09838599333 ; manojneelgiri@gmail.com

Tuesday, March 15, 2011

स्मृति का आयतन, रोहित सर का जाना और टूटा हुआ पुल


( हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली / हम मुश्ते खाक हैं फानी, रहे रहे न रहे )

स्मृति घुलनशील है. वैसे, स्मृतियाँ भी मरती हैं पर उनके मृत्यु की रफ्तार बहुत धीमी होती है और एन – केन – प्रकारेण लोग हमारी स्मृतियों में तब तक बने रहते हैं जब तक कि हम खुद इस काया के मालिक हैं. जैसे रोहित सर ने जो बाते मुझसे फोन पर की वो मुझे हमेशा याद रहने वाली हैं, इस तरह वो हैदराबाद की दोपहर भी जब पूजा ने उनसे फोन पर बात कराई थी, इस तरह दिल्ली का कमल सिनेमा भी जहाँ से वो मुझे फोन कर रहे थे, इस तरह गोरखपुर में उनसे मिलने का अधूरा करार भी जो कभी पूरा नहीं हो पायेगा.


रोहित पाण्डेय, जो मित्रों के अध्यापक होने के नाते मेरे मन में भी अध्यापक के किरदार में ही बसे हैं, बीमार थे. यह विडम्बना ही है कि उनकी मृत्यु का कारक कौन सी बीमारी बनी यह ठीक ठीक तय नहीं हो पाया. किडनी की बीमारी से परास्त वो करीब साल भर से डायलिसिस पर थे. किडनी का इलाज इसलिए नहीं हो पा रहा था क्योंकि उन दवाईयों का घातक असर इंटेस्टाईनल ट्यूबरक्लोसिस की बीमारी पर पड़ता. बाद के दिनों उनके फेफड़े में पानी भी भर चुका था.

और हद यह कि इन सब की शुरुआत पीठ में लगी चोट से हुआ था. पीठ का इलाज करने वाले ने दवाईयाँ लिखीं, जिनमें एंटीबायोटिक खूब थे, पर वह डॉक्टर यह मामूली तथ्य बताना भूल गया कि एंटीबायोटिक दवाईयों के साथ कच्चा भोज्यपदार्थ खाना कितना जरूरी है. इस मामूली एहतियात से उन दवाईयों का असर किडनी पर नहीं पड़ता. हालाँकि कारण पता करना इतना सामान्य नहीं है पर मेरी अम्मा एक कहावत कहती है, “जेकर भुलाला ऊ लोटा की पेन्दी की नीचे भी खोजेला” (जिसका कुछ सामान खो जाता जाता है वो लोटे के समतल पेंदे के नीचे भी ढ़ूढ़ता है).

उनकी उम्र बमुश्किल पैतीस की थी और गोरखपुर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग की अस्थायी नौकरी पर थे. जहाँ तक बेकल मन साथ दे रहा है, वैसे में जान पड़ता है कि वे हिन्दुस्तान अखबार से भी जुड़े रहे थे. पर जरूरी बात यह कि एक अस्थायी शिक्षक कैसे गोरखपुर जैसी, धार्मिक, सामंती तथा कम उर्वर जगह से पत्रकारों की फौज खड़ा कर रहा था. यह जिनको समझ मे ना आये उनके लिए एक स्थूल उदाहरण:-

क्रिकेट सचिन भी खेलते हैं और बंगलौर में मेरे मुहल्ले का अशफ़ाक भी. सचिन के बारे में सब जानते हैं और अशफ़ाक जानने – न जानने के व्यवसाय से बहुत दूर है. वो प्राईवेट बीमा कम्पनी का मुलाजिम है पर जब वो बैटिंग करने उतरता है तो आस पास की अवाम उसका ऐतमाद करती है. मुरीद लोग उससे बल्लेबाजी सीखने के लिए उसके पास आते हैं और, बात यहाँ बनती नजर आयेगी कि वह अशफ़ाक, मुहल्ले के नए रंगरूटों को बल्लेबाजी सिखाता है. उनका सिखाया हुआ एक तालिब आज जिला स्तर पर रौशन हो रहा है. ठीक इसी तरह रोहित सर ने हर साल कुछ रंगरूट तैयार किए जो जहाँ भी हैं, किसी उद्देश्य के साथ हैं और सबसे बड़ी बात कि पत्रकार होने की अहमियत समझते हैं. इनमें पूजा, अभिनव, रंजेश आदि कुछ नाम हैं जिनकी हर भली बात के बीच रोहित सर का नाम किसी खुश रंग की तरह आता है.

उनसे मेरा ताल्लुक सीधे तौर पर नहीं था. जैसे पूजा ने मुझे उनके बारे में बताया वैसे ही उनको भी मेरे बारे में बताया होगा. हम गुरु शिष्य के मार तमाम किस्से आये दिन सुनते हैं पर रोहित सर का जो स्थान पूजा या अभिनव के जीवन में था वह आईनादार था. वे अपने विद्यार्थियों की उलझी हुई गुत्थियाँ सुलझाने में अपना सर्वस्व दाँव पर लगा देते थे. वो चूँकि अस्थायी नौकरी पर थे इसलिए अपने विद्यार्थियों को नौकरी दिला पाना उनके बस में नहीं था और किस्मत की ऊंचाई देखिये कि यह बात भी उन विद्यार्थियों के पक्ष में ही गई. वे लगातार तैयारी करते रहे और आज सब अच्छे मुकाम पर पहुंचने की स्थिति में है जबकि इन सबके पत्रकार की उम्र बमुश्किल तीन से चार साल की है.

विगत तीन मार्च को उनका निधन हुआ. जब मुझे खबर मिली तो क्षणिक सदमें के बाद मेरा ध्यान उस दिन की बात पर चल गया जब वे दिल्ली में थे, मैं हैदराबाद था और हमने फोन पर बात की थी. उन्होने मेरी कहानियों पर बातें की थी, मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछा था और एक ऐसी बात कही थी जो मैं बता नहीं सकता पर मेरे मन में वह समूचा वाक्य सूरजमुखी के फूल की तरह पसरा हुआ है. उस दिन से वो मेरे ख्याल में जगह बना पाए. उस दिन मुझे पहली बार लगा कि आपको पता भी नहीं होता और आपके बारे में लोग सोच रहे होते हैं, बातें कर रहे होते हैं. उस एक बात से मुझे लगा कि अपने विद्यार्थियों के बीच उनका ऐसा ‘क्रेज’ क्यों बना हुआ है.

एक समय ऐसा भी आया था कि जब दो मित्र आपस में किसी नादान बात पर लड़ लेते थे और आपसदारी की बातचीत बन्द कर देते थे. पर थे तो मित्र ही, उनके बारे में जाने बिना, कुछ अच्छा सुने बिना मन नहीं मानता रहा होगा. तब वे रोहित सर से एक दूसरे का हाल लेते थे. इस मायने में रोहित सर एक पुल थे जिनके छाँव तले कितनी नदियाँ बह रही थी और जब ये नदियाँ थक जाती तो उसी छाँव में सुस्ता लेती थीं. वही रोहित सर नहीं रहे.

पर ऐसा जीवंत आदमी मृत्यु को ढकेल नहीं पाया. ऐसा नहीं कि जीते चले जाने से उन्हें उलझन थी. वे जिन्दादिल थे पर यह सत्य स्वीकार बहुत कठिन है कि वे लाईलाज नहीं हुए थे. गाने वाले और रोने वाले चाहें जो कहें, रोहित सर यह मान चुके थे कि खुद का इलाज करा सकने भर की पूँजी उनके पास नहीं थी.

यह जीवन का अबूझ व्याकरण ही कहा जायेगा कि उन्हीं दिनों रोहित सर ने रविवार के रविवार मौन व्रत रखना शुरु किया था और दवाईयों के कातिल सिलसिले में उसे भी ताउम्र निभा नहीं पाए. उन्होनें अचानक से बिस्तर नहीं पकड़ लिया. जब मेरी उनसे बात हुई थी तब वे दिल्ली ईलाज कराने ही आए थे. जो उनकी आवाज में उत्साह था, उससे यह मानना भी मुश्किल था कि यह इंसान चन्द दिनों का मेहमान है.

उनकी मृत्यु का स्वीकार इसलिए भी दु:खद है क्योंकि उनके पीछे उनकी पत्नी और बच्चे थे. स्मृति ऐसे मौकों पर दूर खड़ी हँसती हैं, जब हम उसके आगे बेजार होने लगते हैं. ऐसा नहीं होना चाहिये था. उन्हें मेरी श्रद्धांजलि.

Thursday, March 10, 2011

प्रतिनिधि हिन्दी कहानियों पर डॉ. कृष्णमोहन


किस्से की तरह मशहूर बात है कि कैसे डॉ. नामवर सिंह की टिप्पणी के बाद प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’
हिन्दी में महत्वपूर्ण हो चली थी. पहले वो मेले की कहानी थी पर नामवर जी कि टिप्पणी के बाद
हामिद की कहानी, एक बच्चे के ‘कंसर्ंस’ की कहानी हो गई थी. कहानियाँ हम किसी बेगानी धुन में

पढ़े जा रहे होते हैं पर कभी किसी आलेख से अचानक जाग खुलती है और वही कहानी नए अर्थ के
साथ हमारे सामने उपस्थित हो जाती है. यहाँ प्रस्तुत आलेख ‘लोकतांत्रिक मूल्यों के पैमाने पर हिन्दी
कहानी’ डॉ. कृष्णमोहन का है जो निसन्देह एक नहीं, कई कहानियों के बारे में पूर्वप्रचलित धारणा
बदलने वाला आलेख है.

यह आलेख, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा सम्पादित हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियों के संकलन की भूमिका है. इस आलेख में चर्चित, यशपाल की कहानी ‘करवा का व्रत’ के अलावा, सभी अठारह कहानियाँ उस पुस्तक में है. ‘कहानी संग्रह’ नाम से सम्पादित इस किताब का प्रकाशन इसी वर्ष विश्वविद्यालय प्रकाशन से हुआ है.








लोकतांत्रिक मूल्यों के पैमाने पर हिन्दी कहानी




किसी ने सच कहा है कि साहित्य और समाज में होने वाले परिवर्तन की सबसे सटीक पहचान स्त्री – पुरुष सम्बन्ध में आने वाले बदलाव के माध्यम से की जा सकती है. बीसवीं सदी का आरम्भ यूँ तो दुनिया की बन्दरबाँट के लिये आयोजित विश्वयुद्ध के साथ हुआ, लेकिन जल्द ही यह दुनिया स्वतंत्रता, समानता और न्याय के लिये जूझ रही ताकतों का मंच बन गई. हमार देश भी इस दौरान देशभक्ति और आत्मोत्सर्ग की भावना से उत्तरोत्तर ओतप्रोत होता रहा. ‘उसने कहा था’ और ‘गुंडा’ इसी मनोवृति की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं. खास बात यह है कि इन दोनों कहानियों में क्रमश: जर्मनों और अंग्रेजों से देश की रक्षा के जारी संघर्ष में आहुति देने के कारण स्त्री के प्रति पुरूष का प्रेम है. विपरीत परिस्थितियों के चलते मिलन नहीं हो सका, लेकिन विलगाव से भी वह आँच मद्धम न पड़ी. लहनासिंह और नन्हकूसिंह की सूबेदारनी और पन्ना के प्रति वचनबद्धता देश और मानवता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का विकल्प नहीं, उसका पर्याय बनती है. उच्चतर मानवीय मूल्यों की एकता जीवन में चाहे जितनी अनूठी जान पड़ती हो, कला के दायरे की यह सीधी साधी सच्चाई है.


हमारी आजादी की लड़ाई के दौरान तीस का दशक कई स्तरों पर निर्णायक मोड़ का समय है. क्रांतिकारी आन्दोलन के दमन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन की असफलता और दुनिया के पैमाने पर जारी फ़ासीवादी उभार ने इस दौर के साहित्य को आत्मावलोकन और रूपांतरण के लिये प्रेरित किया. कविता के क्षेत्र में छायावादी वायवीयता और रूमान के आग्रह ने मानव - समाज की प्रगति के पक्षधर ठोस मूल्यों के लिये जगह खाली कर दी. इस युगांतर का श्रेय हिन्दी में प्रमुख रूप से प्रेमचन्द को है. 1936 का वर्ष इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है. इसी वर्ष ‘गोदान’. ‘कफन’ और ‘साहित्य का उद्देश्य’ का प्रकाशन हुआ.


प्रेमचन्द और जैनेन्द्र को एक – दूसरे की विपरीत परम्पराओं का वाहक बताने वालों की हिन्दी में कमी नहीं है. लगभग पैतृक विरासत की तर्ज पर ये लोग हर बड़े लेखक के नाम से एक परम्परा निकालने को तत्पर रहते हैं. समय – समय पर इन ‘परम्पराओं’ में परस्पर टकराव, अवमूल्यन और अधिग्रहण की प्रक्रिया भी चलती रहती है. इस दौरान साहित्य की अपनी परम्परा कहीं पीछे छूट जाती है.


परम्परा के साथ ऐसा मनमाना व्यवहार करने वाले भूल जाते हैं कि ख़ुद साहित्य की अपनी परम्परा होती है जिसमें मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता और समानता के पक्षधर मूल्यों का पोषण होता है. इन मूल्यों का विरोध करने वाली प्रवृतियाँ भी साहित्य में सक्रिय होती हैं, जो सामाजिक यथास्थिति को बनाये रखने के लिए प्रभुत्वशाली वर्ग के मान – मूल्यों का समर्थन करती हैं. व्यापक रूप से साहित्य में यही दो परम्पराएँ सक्रिय होती हैं. इनके परस्पर संघर्ष से साहित्य का विकास होता है. बाकी सारा अन्तर सिर्फ शैली का होता है. रचना के अभिप्राय को न पकड़ पाने पर हम विभिन्न शैलियों और विषयों को ही पहचान पाते हैं, और उनके आधार पर परम्पराओं का निर्माण करने लगते हैं. इस प्रसंग में एक विशेष बात यह भी है कि सच्ची रचना का अभिप्राय कई बार रचनाकार से अलग, यहाँ तक कि उसके विरुद्ध भी हो सकता है. इस वजह से भी उसके अभिप्राय को ग्रहण करने में बाधा आती है. रचना में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों ज़ोर-आजमाईश को स्वतंत्र होते हैं. कोई रचना उतनी ही प्रभावशाली होती है, जितना उसका प्रतिपक्ष (रचनाकार जिस प्रवृति को सही नहीं मानता और जिसका निषेध करना चाहता है ) मज़बूत होता है. अगर किसी रचना में चित्रित, नकारात्मक प्रवृतियों को धारण करने वाले पात्र कमजोर और हास्यास्पद है तो वह रचना उठ ही नहीं सकती. रचनाकार को अपना पक्ष भी अपने सशक्त प्रतिद्वन्दी से जूझकर ही वास्तविक ऊँचाई हासिल करता है. तभी वह प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध कर पाता है. आधुनिक कला की दुनिया का यह भी सार्वभौम नियम है.


रचना का दूसरा लेकिन अधिक महत्वपूर्ण मानदण्ड है स्त्री के प्रति उसमें व्यक्त हुआ नज़रिया. लैंगिक विषमता का इतिहास सभ्यता की समूची यात्रा से जुड़ा हुआ है. इसलिए इस कसौटी पर आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य को आसानी से कसा जा सकता है. स्त्री को हीन और हेय समझने वाली कोई रचना न तो लोकतांत्रिक हो सकती है, न ही मानवीय. हाँ, रचना के सत्य को ग्रहण करते समय सावधानी बरतना जरूरी है. रचनाकार की इच्छा और रचना की वस्तुगत भूमिका को अलग अलग समझना अनिवार्य है. इसे रचनाकार की विचारधारा और उसकी संवेदना के बीच के के अंतराल के रूप में देख सकते हैं.


बहरहाल, हम अपने मूल बिन्दु पर लौटें, तो प्रेमचंद और जैनेन्द्र के बीच जो अंतर है वह यथार्थ को चित्रित करने के तरीके का है. प्रेमचंद के यहाँ मनुष्य का अन्तर्जगत अपने सामाजिक परिवेश के बीच शरीर में आत्मा की तरह मौजूद होता है. जबकि जैनेन्द्र के यहाँ आत्मा का ही एक़्स-रे होता है. कहा जा सकता है कि वे आत्मा के शिल्पी अथवा गुप्तचर हैं. लेकिन इस आधार पर इन्हें अलग – अलग खानों में बाँटना हास्यास्पद होगा. सच तो यह है कि अंतर्जगत की गाँठें भी बाह्य जीवन की ही देन होती हैं. कभी हम प्रत्यक्ष जीवन से उसका सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, कभी नहीं जोड़ पाते.


उदाहरण के लिए प्रेमचन्द की दो लगभग अंतिम रचनाएँ ‘गोदान’ और ‘कफन’ को लेते हैं. ‘ गोदान ’ का होरी जिस ‘धरम – मरजाद' से पीड़ित है, वह उसके समाज का एक मूल्य है, जो उसकी आंतरिक विवशता बन गया है. विचार और व्यवहार की एकता का कोई विकल्प उसके पास नहीं है, इसलिए अपने पाखंडी समाज में वो अकेला पड़ जाता है. इसी स्थितिजन्य विवशता के धनिया जैसी तेजस्विनी स्त्री को प्रतीकात्मक गोदान करने के लिए बाध्य होना पड़ता है. होरी और धनिया अपने समाज की जकड़बंदी तोड़ नहीं पाते. प्रेमचन्द का रचनाकार इसे स्वीकार नहीं करता. वे उस समाज से प्रतिशोध लेने के लिए घीसू – माधव जैसे चरित्रों की रचना करते हैं. गोदान की कौन कहे, वो दोनों कफन तक की परवाह नहीं करते. पुरोहिती कर्मकाण्डों के प्रति, इस तरह वे अपनी घृणा व्यक्त करते हैं. ध्यान दें कि ऊपरी तौर पर होरी-धनिया और घीसू-माधव में कोई साम्य नहीं है, लेकिन आंतरिक रूप से वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. ‘पूस की रात’ का हल्कू भी इसी तस्वीर का एक और रूख है.


‘कफ़न’ पर विचार करते हुए कुछ विचारकों ने बुधिया के प्रति जताई गई संवेदनहीनता के निहितार्थों की चर्चा की है. वास्तव में यह हमारे समाज में स्त्री की स्थिति से जुड़ी हुई त्रासदी है. इस कहानी में प्रेमचन्द ने बुधिया के दर्दनाक अंत को तेज गति से चित्रित किया है. पर हमारे समाज में स्त्री की धीमी और खामोश मौत की तरफ बढ़ते हुए हमेशा देखा जा सकता है ; चाहे वह ‘पत्नी’ की सुनन्दा हो, ‘रोज’ की मालती, ‘करवा का व्रत’ (यशपाल ) की लाजो हो. ‘होली नहीं खेलता’ की ज्योत्सना अधिक स्वतंत्रचेता और निर्णयात्मक ठहरती है. जब उसके एक स्वाधीनतामूलक वक्तव्य को उसका प्रेमी बैजल उसकी पराधीनता का सूचक मानकर उसे उसके पति की सम्पत्ति के बतौर देखने लगता है, वह पति की इच्छा के विरूद्ध जाकर भी उससे सम्बन्ध तोड़ लेती है. बैजल की चेतना का पिछड़ापन उसके आड़े आ जाता है और अंगूर खट्टे हैं वाले अंदाज़ में उसे होली न खेलने की घोषणा करनी पड़ती है.


फिर भी ‘पत्नी’ का पुरुष इस मामले में विशिष्ट है कि वह अपने समय के उन्नत राजनीतिक विचारों का प्रतिनिधित्व करता है. राजनीतिक रूप से उन्नत और सामाजिक रूप से पिछड़ा होना हमारे स्वाधीनता आन्दोलन की दूरगामी अर्थ रखने वाली सच्चाई है. कालिन्दीचरण क्रांतिकारी आन्दोलन पर तनिक उदार, गाँधीवादी नज़रिये से विचार करता है. सम्भवत: यह नज़रिया स्वयं जैनेन्द्र का भी है. उन्होंने कालिन्दीचरण को प्रतिपक्ष के रूप में चित्रित किया है, जिसका उन्हें निषेध करना है. लेकिन इसका चित्रण उन्होंने अपनी आत्मा के एक अंश से किया है. वह पात्र अपनी शक्ति और सीमा, दोनों के साथ उपस्थित होता है. इससे पाठक को अपने भी अन्दर मौजूद ‘कालिन्दीचरण’ का पता चलता है. वह उस बुराई के प्रति सचेत होता है. ऐसा न होने पर ‘रोज़’ या ‘करवा का व्रत’ के पतियों से सामना होता है, जो सर्जरी के अभ्यास के लिए मरीज की टांग काट देने या अधिकार जताने के लिए पत्नी को थप्पड़ रसीद करने में गुरेज नहीं करते. हम इनकी आलोचना तो करते हैं, लेकिन आत्मसमीक्षा को प्रेरित नहीं होते. वह बुराई हमारे अन्दर फलती-फूलती रहती है और हम ‘दूसरों’ की कमियों को अपना निशाना बनाते रहते हैं.


पति के लिए ‘पत्नी’ द्वारा किये जाने वाले त्याग की परम्परा समाज और साहित्य, दोनों में अक्षुण्ण रही है. यह हमारे सामंती – पितृसत्तात्मक समाज को संचालित करने वाली अनेक जड़ताओं में से एक है. दूसरे शब्दों में, यह एक सामंती आदर्श है जिसको समानता और स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक आदर्श से चुनौती मिलती है. ‘गोदान’ में सामंती आदर्श के निर्वाह को देखकर मन में क्षोभ उत्पन्न होता है, जबकि ‘कफ़न’ में इन बन्धनों को एक झटके में तोड़ फेंकने का लोकतांत्रिक आदर्श प्रस्तुत है. पहली प्रवृति को आलोचनात्मक यथार्थवाद और दूसरी को वैकल्पिक आदर्शवाद कह सकते हैं. फ़िलहाल, सामंती आदर्श हमारे समाज को संचालित कर रहे हैं, इसलिए उनका आलोचनात्मक चित्रण ही कहानियों में अधिक होता है. ‘कफ़न’ जैसी रचनाएँ यूटोपिया रचती हैं, इसलिए विरल होने पर भी हमें गहरे तक हाँट करती हैं.


‘नन्हों’ और ‘कोसी का घटवार’ में यह तनिक बदले हुए कोण से उभरता है. यहाँ समाज की पिछड़ी हुई मान्यताओं की वेदी पर व्यक्तिगत भावनाओं की कुर्बानी दी जाती है. दोनों कहानियों में एक दूसरे को दिलो-जान से चाहने वाले प्रेमी युगल हैं. बीच में कोई वास्तविक बाधा भी नहीं है. लेकिन वे एक –दूसरे से दिल की बात नहीं कह पाते. अपनी भावनाओं को लेकर वे अकारण शर्मिन्दा होते हैं. अपने अंतर्निषेधों के सामने समर्पण करते हुए वे अलग हो जाने को बाध्य हो जाते हैं. दोनों सोचते हैं कि पहल दूसरा करे. ‘ हमसे आया न गया तुमसे बुलाया न गया’ की यह मन:स्थिति उन्हें सामंती मूल्यों के असहाय शिकार में बदल देती है. सहानुभूति के नहीं, वे दया के पात्र बन कर रह जाते हैं.


‘परिन्दे’ में ह्यूबर्ट लतिका के सामने प्रेम का प्रस्ताव रखता तो है, पर यह जानकर कि वह पहले भी किसी को प्रेम कर चुकी है, अपने प्रस्ताव पर लज्जित होने लगता है. इधर लतिका, जो अपने प्रेमी के असामयिक निधन के कारण दु;खी और एकाकी जीवन बिताती है, उसके प्रस्ताव को विचारणीय भी नहीं मानती. ह्यूबर्ट के सीने में होते दर्द को लेकर मन ही मन वह आशंकित होती है. भाव यह उभरता है कि उसे प्रेम करने वाला अकाल मृत्यु के लिए अभिशप्त है. हमारे समाज में ऐसे अंधविश्वास भारी मात्रा में मौजूद हैं, लेकिन इस आधुनिक परिवेश में उनकी मजबूत पकड़ देखकर आश्चर्य होता है. हमारी आधुनिकता ऐसी ही है, बहुत कुछ बाहरी तामझाम पर निर्भर. यह कहानी हमें, इस प्रकार, आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करती है.


‘तीसरी कसम’ की रसिक मार्मिकता की तह में जाएँ तो पता चलता है कि हिरामन की शादी उसकी भाभी ने हो जाने दी होती तो शायद तीसरी कसम की नौबत ही न आती. भाई – भाई के प्रेम को गौरवांवित करने के साथ–साथ जीवन – व्यवहार में भाई का हिस्सा हड़पने की प्रवृति हमेशा हमारे लोकमन में बद्धमूल रही है. हिरामन की निश्छलता के चलते उसे भाई – भाभी का यह व्यवहार नहीं खटकता, और उनकी सेवा में जुटा वह एक के बाद दूसरी कसम खाता रहता है. रेणु ने इस विडम्बना का संकेत तो किया लेकिन मन उनका भी लोकजीवन के सरस पक्षों में रमने वाला था, इसलिए यह पहलू कहानी में उभर नहीं सका. कुल मिलाकर सचाई, शालीनता और सादगी जैसे गुण यहाँ भी अन्याय का विरोध करने से रोक देते हैं, और उसे परिस्थिति का शिकार बनने की ओर ले जाते हैं.


‘यही सच है’ की नायिका दीपा दो पुरूषों के बीच झूलती रहती है. वह जिसे छोड़ आई है, पहला मौका मिलते ही उसे वापस पाना चाहती है, और जिसे पा चुकी है उसे छोड़ने – छोड़ने को हो आती है. स्त्री की पेंडुलम जैसी नियति को ही सच कहना यथार्थ के प्रति अनालोचनात्मक प्रतिबद्धता के चलते सम्भव है.


नई कहानी के दौर में स्त्री – पुरुष सम्बन्ध से अलग अन्य विषयों पर जो कहानियाँ लिखी गईं उनमें भी स्वार्थपरता के माहौल में जी सकने के लिए जूझते हुए मासूम और निरीह लोग दिखाई पड़ते हैं. ‘ जिन्दगी और जोंक ’ के रजुआ के साथ मुहल्ले वालों का बरताव हो या ‘ चीफ़ की दावत ‘ के शामनाथ का अपनी माँ से लगाव, हर जगह यही धूसर यथार्थ प्रकट हुआ है. ‘ भोलाराम का जीव ‘ का भोलाराम तो भ्रष्टाचार से जूझते – जूझते भगवान को प्यारा हो जाता है, लेकिन उसकी आत्मा पेंशन की फ़ाईल में ही अटकी रह जाती है. कहने को, इन कहानियों को मानवीय जिजीविषा की कहानियाँ कह सकते हैं, लेकिन असल में ये मनुष्य के अपनी गरिमा से वंचित हो जाने और उसे वापस पाने की उम्मीद तक के बग़ैर लगभग बदहवासी में जीते लोगों की कहानियाँ हैं. ये कहानियाँ ‘ कफ़न’ की ही परम्परा में हैं, हालाँकि इनमें घीसू – माधव के जीवट का अभाव है.


साठ और सत्तर के दशक में सामने आई ‘साठोत्तरी कहानी’ में सामाजिक यथार्थ की निष्क्रिय आलोचना के बजाय मोहभंग और विद्रोह का स्वर सक्रिय हुआ, लेकिन कोई तर्कसंगत राह न पाकर अराजकता की गर्त में गिर पड़ा. इस दौर की कहानियों का प्रतिनिधित्व ‘घंटा’ करती है. ‘पेट्रोला’ और कुछ नहीं घीसू – माधव के ही रहने की जगह है. आज़ादी के बाद विकसित दलाल – तंत्र ने कर्म के प्रति उनकी उदासीनता में छिपे परिवर्तनकामी सत्व का अपहरण कर उन्हें भेड़ियाधसान में शामिल मलूकदास के शिष्यों मे बदल दिया है. कुछ इस वजह से भी बैठकबाज़ों को, उनकी उनकी कुत्सित मंडली को अब वैसी नीची नज़र से नहीं देखा जाता. ‘घंटा’ का मुख्य पात्र ‘रेस्तराँ’ की जिन्दगी को लात मारकर अंतत: ‘पेट्रोला’ में लौट आता है. वास्तव में यह कोई सकारात्मक अंत नहीं है. ‘रेस्तराँ’ की जिन्दगी कम से कम प्रतिक्रिया तो पैदा करती है. उसमें सक्रियता की, गति की सम्भावना है. ‘पेट्रोला’ की जड़ता का आत्म-मोह से जैसा नाता है, उसमें उन्मेष की कोई सम्भावना नहीं दिखती. इस तरह ‘कफ़न’ की निष्क्रियता सकारात्मक है जबकि ‘घंटा’ का विद्रोह प्रतिगामी. नेहरुवीय स्वप्न के शेष होने के साथ हमारा मध्यवर्गीय युवा वर्ग अराजकता और जड़ता के बीच बहुत हद तक ऐसी ही स्थिति में फँसा रहा था.


साठोत्तरी दौर के कहानीकारों के परवर्ती दौर की कहानियों – ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ और ‘कविता की नई तारीख’ से यह बात अधिक स्पष्ट होती है. ‘धर्मक्षेत्रे.....’ की ज़ंजीर से बँधी हुई स्त्री अपने अपहर्ताओं में से एक की ‘मर्दानगी’ को चुनौती देकर अंतत: उसे उसके बाप से लड़ाने में सफल हो जाती है. इस तरह उसके नवजात शिशु की रक्षा होती है और ज़ंजीर से छूटकर वह ‘असार –संसार’ में खुशी के आँसुओं के साथ प्रवेश करती है. धार्मिक अखाड़ों वगैरह के प्रासंगिक चित्रण के बावजूद यह कहानी स्त्री की पराधीनता का मिथक रचती है और यथार्थ के कहीं बहुत पीछे छूट गए पहलू को व्यक्त करती है.


‘कविता की नयी तारीख’ के लेखक की पत्नी उसके नायकोचित व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए गर्व से बताती है कि शादी की पहली रात को ही उसने जो तमाचा मारा था, उसका निशान अब भी पत्नी के चेहरे पर है. आत्ममुग्ध पति जब भावुक होता है तो उस निशान को चूमने की इच्छा उसके मन में उठती है. धीरोदात्त तेवर में किया गया यह वर्णन कहानी को वापस जैनेन्द्र की ज़मीन पर ला पटकता है. यहाँ ‘पत्नी’ का असंतोष भी नदारद है. यथार्थवाद और यथास्थितिवाद में बस सूत भर का फासला होता है. यह कहानी इसे प्रमाणित करती है.


’90 के उथल–पुथल भरे दशक की पूर्वपीठिका ’80 के दशक में ही तैयार हो गई थी. इसकी प्रथम सूचना 1986 में प्रकाशित कहानी ‘तिरिछ’ ने दी थी. समाज और सत्ता के सर्वग्रासी चेहरे को बेनक़ाब करने के कारण यह कहानी वैसे ही ‘ट्रेंडसेटर’ साबित हुई जैसे पचास साल पहले ‘कफ़न’ हुई थी. तिरिछ जैसे अन्धविश्वासों के सहारे ही रामऔतार जैसे ज्योतिषियों का धंधा चलता है. तिरिछ के काटने के बाद किसी के बच जाने पर लोकमन से तिरिछ का आतंक कम हो सकता है. इसलिए तिरिछ के काटने की झूठी – सच्ची शंका के बाद पिता को धतूरे का काढ़ा पिला दिया जाता है जो खुद घातक जहर है. अपने गाँव वालों के साथ शहर जाते पिता अभी प्यास के बारे में बता भी नहीं पाते कि वे शहर लाकर उन्हें छोड़ देते हैं. शहर में अर्द्धविक्षिप्त पिता बैंक से पुलिस थाने तक मारे मारे फिरते हैं और अंतत: ‘पाकिस्तानी जासूस’ क़रार दिये जाकर संगसार कर दिये जाते हैं. अपने रिहायशी मकान को बचाने के लिए तारीख पर आए पिता मुक़दमें के कागज़ात को भी नहीं बचा पाते और अपने परिवार के सड़्क पर आ जाने की आशंका के बीच ही दम तोड़ देते हैं. तिरिछ के ‘काटने’ और धतूरे का काढ़ा पीने के बावजूद शहर आना जरूरी था क्योंकि तारीख पर न पहुँचने पर वकील लापरवाही करता और ज़ज का मूड अगर खराब हुआ तो वह कुर्की का आदेश दे सकता था. यह है गाँव से शहर तक हमारे नागरिक समाज और पुलिस से अदालत तक राज्यसत्ता का वास्तविक चरित्र. बक़ौल कवि राजेश जोशी – ‘ सबसे बड़ा अपराध है इस समय / निहत्था और निरपराध होना/ जो अपराधी नहीं होंगे/मारे जायेंगे.’


‘तिरिछ’ की सम्वेदना ’90 के दशक में परवान चढ़ी और नई सदी के आते –आते हिन्दी कहानी में वह असाधारण उन्मेष हुआ जिसे हम ‘समकालीन कहानी’ के नाम से पहचानते हैं. यह सिलसिला अब भी जारी है.



Tuesday, March 8, 2011

कला का आदर

जिन दिनों लिखना, किसी नाव की तरह, ठहर जाता है, उन्हीं दिनों अचानक से कोई मित्र नमूदार होता है और चीजें धार पकड़ लेती हैं. साथी सचिन (दैनिक जनवाणी) से बातचीत के दौरान यह तय हुआ कि गद्यनुमा कुछ लिखा जाए. यह गद्यांश दैनिक जनवाणी में प्रकाशित है.  तस्वीर साथी नासिर के किताबे-अक्स (फेसबुक) की दीवार से..




सप्ताहांत का नाम फुर्सत दिया जाए ?


अगर थोड़ी फुर्सत की इच्छा करें तो आजकल समय, किसी अतिप्रिय की आवाज की तरह हो गया है. ऐसी आवाज जिसे सुनने को जी चाहता है पर बोले जाने के कुछेक पल के बाद ही वो आवाज खो जाती है, मिट जाती है. समय भी ऐसा हो गया है कि फुर्सत के कुछ पल चाहिए और जब वे पल आते हैं तो साथ ही साथ यह अन्देशा भी चला आता है कि यह मोहलत बहुत मामूली है. इतनी मामूली कि कोई मनपसन्द काम नहीं हो पाता. आप कुछ लिख नहीं पाते, कुछ पढ़ नही पाते और देखते देखते सप्ताहांत बीत जाता है.

महीना पहले जब मैं बंगलौर आया तो मेरे साथ किताबें थीं और जगह कम. पर मेरे रूम पार्टनर, श्रीधर, ने खुशी खुशी जगह बनाई और हमने कई तहों में किताबें, आलमारियों में सहेजने के अन्दाज में रखा. वो मेरे कहानीकार होने को जानते थे और उनके मन में कला का यह ऊंचा भाव है कि जब तब उनके मित्र आते हैं और खुशी खुशी वो मेरा परिचय देते हैं – चन्दन भाई, कहानीकार हैं. मेरे बारे में सारी दूसरी सूचनाएँ गौण हैं.

इसी तरह, उन्होने मेरे बारे में उस औरत को बताया होगा, जो हमारे यहाँ भोजन पकाने आती हैं. उन्हें हम दीदी बुलाते हैं. नीचे के फ्लैट मे रहने वाली एक राजस्थानी महिला इस दीदी का इस्तेमाल गब्बरनुमा करती है. वो अपने बच्चे को कहती है : बेटा नीचे आ जाओ वरना भूत आ जायेगा. होता क्या है कि यह दीदी मुसलमान हैं और बुर्के/ नकाब के लिबास में आती हैं. इसी नकाब की वजह से उस महिला ने, जाने मासूमियत से या बदमाशी से, इनका नाम भूत रख दिया है.

पर हम बात कला के आदर की कर रहे थे.

शाम का कोई झुटपुटा समय था, मैं ‘नाथन इंग्लैंडर’ का कहानी संग्रह ‘फॉर द रिलीफ ऑफ अनबियरेबल अर्जेज’ पढ़ रहा था कि दीदी ने पूछा : भईया, आप किताब लिखते हो ? उनके पूछने मे एक पुलक थी. मैने भी जबाव दिया: हाँ, लिखता तो हूँ. मैं बूझ गया कि श्रीधर ने इन्हे बताया होगा. बात आई गई हो गई.

दसेक दिन पहले की बात है, दीदी ने एक मुझसे कहा : भईया, आप बच्चों की कहानियाँ भी लिखते हो? मैने कहा : नहीं. फिर मैने एक पाठनुमा उन्हे कुछ पढ़ा दिया. मैं गम्भीर मुद्दों पर लिखता हूँ. मैं ऐसा करता हूँ. मैं वैसा करता हूँ. ना जाने कैसा करता हूँ. दीदी चुप हो गई. उन्हें लगा कि शायद उनसे कोई गलती हो गई है इसलिए उन्होने शब्दश: तो माफी नहीं मांगी पर जो कहा उसमें भाव माफी मांगने वाला था. उन्होने कहा : मेरे बच्चे ने पूछा था.

इस बात पर मेरी दिलचस्पी बढ़ गई. मैने उनके बच्चे के बारे मे पूछा, मुझे लगा कि कालेज जाने आने वाला जिज्ञासु होगा. उन्होने बताया कि उनका सबसे छोटा बेटा, वसीम, पांचवी कक्षा का छात्र है. उस बच्चे को स्कूल से प्रोजेक्ट मिला था कि अपने मन से कोई कहानी लिखकर लानी है और जब उसने अपनी माँ से मेरे बारे में सुना था तो यह अर्ज लगाई थी कि क्या अंकल मेरे लिए कहानी लिख देंगे?

सच कहूँ तो यह मेरे लिए बहुत खुशी की बात थी. लोग कहते हैं कि कला का अनादर हो रहा है. पर आजतक मैने कोई ऐसी जगह नहीं पाई जहाँ मेरा अनादर या अपमान इसलिए किया गया हो क्योंकि मैं कहानीकार हूँ. यह जरूर है कि मैं सारी अपेक्षाओं का बोझ कला के सर नहीं डाल देता जैसे मैं कभी यह अपेक्षा नहीं रखता कि मेरे कहानीकार होने के नाते मुझे कोई आरक्षण दिया जाए . यह भी नहीं कहानीकार होने के नाते मैं कोई गैरवाजिब फायदा मैं लेने की कोशिश करूँ. कला की सीमा है तो उसके रंगरूटों की भी होनी चाहिए. यह समय कला का उत्कर्ष काल नही है.

वसीम के प्रस्ताव पर मैं बहुत खुश हुआ. सादा इच्छा यह जगी कि अपनी जमा की गई कहानियाँ लिखता ही रहता हूँ इस बार वसीम के लिए लिखी जाए. एक बार मैं वसीम से मिला. उससे पूछा कि कैसी कहानी चाहते हो? उसने कहा : मुझे कैसे पता होगा? मैने उसकी दिनचर्या से सम्बन्धित कुछ बातें की और जाने कैसे और कब यह हुआ कि उसका और मेरा बचपन ‘ब्लर’ करने लगा. इसतरह मैने उस बच्चे की कहानी लिखी या अपनी ही कहानी उस बच्चे के नाम से लिखी या क्या पता किसी तीसरे की कहानी हो जिसे मैं शिद्दत से जीना चाहता रहा होऊँ.

जाहिर सी बात है, कहानी में एक लड़का है, कबीर, जो स्कूल नहीं जाना चाहता है. डरता है कि जिस शिक्षक ने उसे पीटने की बात कही थी, आज वो किसी ना किसी बहाने मारेंगे. हुआ यह था कि शिक्षक ने कई चीजे गलत पढ़ा दी थीं, जैसे उन्होने एक अंग्रेजी वाक्य का मतलब ही गलत बताया था. वाक्य था : ही रंस हिज शॉप. इसका अर्थ उन्होने बताया था : वह अपनी दुकान तक दौड़ता है. दूसरे, हिन्दी भी वही पढाते थे जिसमें एक कविता आती है : बसंत के चपल चरण. इसका भावार्थ उन्होने बताया था ; बसंत चप्पल पहन के घूम रहा है.

कबीर को क्या पड़ी थी कि शिक्षक से पंगा ले पर एक दिन उसका भारी बस्ता, जिसमें क्रिक़ेट बॉल, शतरंज, लूडो और साँप – सीढ़ी के अलावा कुछ किताब कॉपी भी मिली. पिता ने सारी गलती पकड़ ली और अगली सुबह स्कूल पहुंच गये. शिक्षक को प्रधानाचार्य ने भला बुरा कहा और उस दिन से वह शिक्षक रोज किसी ना किसी बहाने कबीर को मारते पीटते हैं, मुर्गा बनाए रखते हैं, कक्षा मे मजाक उड़ाते हैं और सारा काम उससे ही कराते हैं.

वही कबीर, आज स्कूल जाने से डर रहा है. रोज चाहता है कि सूरज ही ना निकले. ना दिन होगा, ना स्कूल खुलेगा, ना वो स्कूल जाएगा और मार खाने से बच जाएगा. आज अभी वो सोच ही रहा था कि काश सूरज ना निकले, तभी चारो तरफ अन्धेरा छा गया. सूरज जो आधा निकल चुका था वो वापस डूब गया.

इस तरह यह कहानी आगे बढ़ती है. जब मैने उस लड़के को यह कहानी दी तो उसने सहमते हुए पूछा कि इसमें आपका नाम नहीं आयेगा ना ! मैं बच्चे की मासूमियत समझ गया. मैने हँसते हुए कहा; यह मैने तुम्हारे लिए लिखी है और तुम इसे अपने ही नाम से दिखाना.

जैसे मेरी इस बात का भी क्लाईमेक्स बाकी हो कि पिछले हफ्ते वसीम मेरे घर आया और उसने मुझे कहानी लौटा दी. कहा : इतना अच्छा मैं अभी नहीं लिख सकता. जब मैं लिखूंगा तब आपको दिखाऊंगा. हो सकता हो, ऐसा उसने किसी के कहने पर किया हो पर है तो अभी बच्चा ही, और बच्चे कहने, बताने पर ही तो सीखते हैं.