Thursday, February 3, 2011

धोबीघाट : मुम्बई क्या रंग डिब्बा है.

( शेषनाथ पाण्डेय का यह आलेख, धोबीघाट और इन्द्रधनुष के शहर मुम्बई पर है. और स्वयं इस स्वप्नशील शेषनाथ पर भी. दो वर्षों से मुम्बई में जमें शेषनाथ, टेलीविजन की रंगीनियाँ रचने का काम कर रहे हैं, धारावाहिकों की स्क्रिप्ट पर काम करना इनका पेशा है. स्वभाव से चुप्पा हैं. टेलीविजन के सफेद स्याह चेहरे को बेहद करीब से देख रहे, शेषनाथ कहानीकार हैं, जिनकी कहानी ‘इलाहाबाद भी’ नई बात पर प्रकाशित हो रही है. )

धोबी घाट : मुंबई डायरिज के बहाने

पिछले दिनों अक्षय कुमार ने अपनी एक टिप्पणी में कहा था कि हम जैसे अभिनेता( स्टार टाइप रूतबा वाले) उड़ान और तेरे बिन लादेन जैसी फिल्मों में काम नहीं कर सकते क्योंकि प्रोडूयसर को हमसे ज्यादा कमाई की उम्मीद होती है...अक्षय कुमार अपनी जगह पर सही हो सकते है लेकिन धोबीघाट के आने बाद के बाद अक्षय की बातें बेतुकी लगती है...आमिर का स्टारडम अक्षय से कहीं कम नहीं है बावजूद इसके आमिर ने न सिर्फ़ इस छोटी बजट और विशुद्ध कलात्मक फिल्म में काम किया बल्कि पैसा भी लगाया...आमिर ने ऐसा अनायास नहीं किया है...वे समय में हो रहे बदलाव को समझ गए है और उन्हें पता है कि अगर इस बदलाव से हम नजर छुपा ले तो हमारे पास शुतुरमुर्गी बचाव के छद्म के अलावा कुछ नहीं बच पाएगा...


हमारा परिवेश ग्लोबल होता जा रहा है...अब सच्चाई जानने के लिए हम सिर्फ़ मीडिया पर निर्भर नहीं रहे...आज फेसबुक, ऑरकुट, टूयटर जैसे सोसल साइट्स के अलावा ब्लॉग हमारे पास उपलब्ध है जिसकी बदौलत हम अपनी बात को गलोबल गाँव में छोड़ सकते है...और ये छोड़ना भी ऐसा नहीं कि इसका कोई मतलब नहीं...इसकी सार्थकता को हम पिछले दिनों साहित्य में हुए एक बड़ी हलचल से देख सकते है. बिभूति राय की एक आपत्ति जनक टिप्पणी पर एक लेखक ने घोर असहमति दर्ज करते हुए पहले अपने फेसबुक पर अपने विचार को लगाया...वहाँ से बात फैल कर एक ब्लॉग पर गई और ब्लॉग से एक अखबार ने उठा लिया फिर तो मामला पूरी तरह से मीडिया के हाथों में आ गया और देश की एक बड़ी खबर के रूप में कई दिनों तक हमारे बीच रहा...

यह मामूली बदलाव नहीं है...इन बदलावो का असर साहित्यिक मंच पर भी पड़ा है...अब छपने-छापने के लिए पत्रिकाओं की गिरोहबाजी से अलग एक रास्ता दिखाई दे रहा है. आज जो अर्थ पूर्ण फिल्में व्यावसायिकता की मोटी जंजीर को न तोड़ेने की वज़ह से सिनेमा घर तक नहीं पहुँच पाती लेकिन दर्शको तक पहुँच जाती है... अनुराग कश्यप की पहली फिल्म “पाँच” शायद डिस्ट्रीब्यूटर के अभाव में सिनेमा घरों तक नहीं पहुँच पाई लेकिन यू ट्यूब के माध्यम से सिनेमा के दीवाने दर्शकों तक पहुँच गई....हालांकि बड़ी रकम लगा कर यू टूब तक का ही सफ़र सही नहीं है फिर भी हमारे आस्वाद में जो बदलाव हो रहे हैं, इसका दूरगामी असर होगा... हम यह भी कह सकते है जनता द्वारा माउथ पब्लिसिटी का प्रभावशाली दायरा बहुत बढ़ गया है.

इन अर्थपूर्ण फिल्मों को बड़े बजट वाली फिल्मों की तरह ओपनिंग भले ही ना मिले लेकिन दर्शक अपने सोसल साइटों के माध्यम से सही चीजों को लोगों तक पहुँचाने में कामयाब हो रहे है...आज से कुछेक साल पहले भेजा फ़्राई, उड़ान, तेरे बिन लादेन, पीपली लाइव, फँस गए रे ओबामा की कुछ चर्चा ही नहीं मिलती लेकिन हर चीज का एक समय होता है और इसे तय करता है हमारा यथार्थ...इस तरह से हिंदी सिनेमा में जो पिछले कुछ वर्षो से बदलाव दिखाई दे रहे है उस बदलाव की एक मजबूत कड़ी के रूप में धोबीघाट हमारे सामने है...

स्वपन भंग की त्रासदी लेकिन संवेदना में छुपी मैल साफ हुए

आमिर खान के प्रोडक्शन में बनी नवोदित निर्देशक किरण राव की यह पहली फिल्म है और फिल्म में है, दुनिया का एक महत्वपूर्ण और अनोखा शहर मुंबई...लेकिन इस सबसे महत्वपूर्ण है इसके चकाचौंध से अलग मुंबई को एक आम जनता और कलाकार के माध्यम से देखना...बस चार लोगो की उपस्थिति और उनका आपसी अनकहा कनेक्शन इस तरह जुड़़ता है कि मुंबई एक ‘मेटाफर’ बन जाता है और यही कहानी उन चारों के साथ साथ समूची मुंबई की हो जाती है.

अरूण (आमिर खान) एक पेंटर है और अपनी पेंटिग एग्जिबिशन की एक पार्टी में वो मुंबई को बनाने वाले आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, और यू पी के मजदूरों के प्रति आभार प्रकट करता है और उनके दुखों के साथ खड़े होते हुए इस एग्जिबिशन को उनके नाम करता है...मुंबई में जिस तरीके़ से सत्ता के लिए इन मजदूरों को बाहरी कह के भगाया जा रहा है और उसके पक्ष में खड़े होने वालों की ज़बान बंद की जा रही है उस लिहाज से यह आभार रेखांकित करने लायक है...विरोध का यह तरीका चाहे जितना कमजोर हो लेकिन लोगों की संवेदना में अपनी पैठ बना ही लेता है जो कि हमारी एकता के लिए सबसे महत्वपूर्ण है...

अरूण को इसी एग्जिबिशन में एक पारसी लड़की शाई (मोनिका डोगरा) से मुलाकात होती है जो न्यूयार्क में बैंककर्मी है और अपने फोटोग्राफ़ी के शौक के चलते मुंबई आई है और वो मुंबई पर फोटोबुक निकालना चाहती है...अरूण को उसका पैशन अच्छा लगता है और शाई को उसका एग्जिबिशन...अरूण उसे अपने घर ले जाता है...अरूण मोनिका के खींचे हुए तस्वीरों को देखता है और यह देखना इतना आत्मीय हो जाता है कि वे एक-दूसरे में गुँथ जाते है...

सुबह होती ही अरूण को इस बात का जहाँ अफ़सोस होता है वही शाई खुश है और अरूण को सहज कर रही है लेकिन अरूण परेशान होते हुए कहता है कि हम कोई रिश्ता नहीं चाहते तब भी शाई उसे रिलेक्स करती है...फिर भी अरूण कनफ्यूज़ होकर कहता है कि “हम दरअसल ये कहना चाहते है” तो शाई इतना सुनने के बाद चिढ़ कर वहाँ से चली जाती है...

शाई कि मुलाकात मुन्ना (प्रतीक बब्बर) से होती है जो बिहार के दरभंगा जिले से आठ साल के उम्र में ही अपने चाचा के साथ मुंबई आ गया था...वो दिन में धोबी और रात में जमादार (चूहा मारने) का काम करने के साथ एक्टर बनने का सपना लिए फिरता है...शाई के लिए तब मुन्ना और महत्वपूर्ण हो जाता है जब उसे पता चलता है कि वो अरूण के बारे में जानता है. मुन्ना से ही शाई को ये पता चलता है कि अरूण का तलाक हो गया है और उसकी बीबी बच्चे ऑस्ट्रेलिया में रहते है.इसके बाद शाई अरूण को लेकर और पोजेसिव हो जाती है लेकिन मसरूफ़ और डिप्रेस्ड अरूण की निजता में शामिल होने का साहस नहीं कर पाती.

इधर अरूण अपने नए फ्लैट में जाता है तो उसे एक छोटे से श्रृँगार बाक्स में बंद चैन, अँगूठी, फोटो और किसी मेटल से बनी एक मछली के साथ तीन विडियो कैसेट मिलते है. पहले तो वो अपने एजेंट से कहकर उस पुराने किराएदार को वापस करना चाहता है लेकिन एजेंट के इंकार पर अरूण अपने पास ही रख लेता है.

एक दिन ऐसे ही अपनी ज़िंदगी से उबकर वो कैसेट को देखना शुरू करता है...कैसेट में एक घरेलू महिला यास्मीन( कीर्ति मल्होत्रा) की बातें है जो अपने पेंटिंग मंव डूबे और ऊबे अरूण के लिए इंटरेस्टिंग हो जाती है जिससे प्रभावित होकर अरूण अपने पेंटिंग में उसका कोलाज बनाना शुरू करता है. इधर यास्मीन अपने विडियो से मुंबई का दर्शन करा रही है उधर शाई अपने फोटो खींचने के शौक में मुंबई देख रही है. मुंबई देखने का यह क्राफ़्ट अपने आप में महत्वपूर्ण है.

यास्मीन गाँव से ब्याह कर बड़े शहर में रहने का सपना लेकर आई है लेकिन उसका इंटरेस्ट यहाँ की चकाचौंध में नहीं है. वे अपने कैमरे में घर में काम करने वाली बाई और अपनी पड़ोसी की उस औरत को रिकार्ड कर रखी है जिसके साथ न जाने क्या हुआ है कि वो कुछ बोलती ही नहीं. रात-दिन एक ही जगह पर एक भाव में बैठी रहती है. फिल्म में अंत तक ये नहीं खोला जाता कि आखिर उस औरत के साथ क्या हुआ होगा लेकिन जब अपने आखिरी कैसेट में यास्मीन अपने भाई जान को बताती है कि वो अपने पति की दूसरी बीबी है और अब वह शायद आप से (भाई जान) कभी नहीं मिल पाएगी तो इससे उस महिला के साथ हुए हादसा को दर्शक कनेक्ट कर लेते है क्योंकि अरूण जिस कमरे में है उसी कमरे के पंखे से लटकर यास्मीन ने अपनी जान दे दी है. अरूण डर कर बाहर निकलता है तो वो महिला वैसे ही बैठी होती है. अरूण उस कमरे को छोड़कर दूसरे जगह चला जाता है. चूँकि अरूण के कपड़े धोने का काम मुन्ना करता है इसलिए अरूण अपने कमरे का पता उसे दे देता है.

इधर शाई मुन्ना के माध्यम से घोबीघाट के अलावा कई जगहो का फोटो लेती है अब शाई के लिए मुन्ना सिर्फ़ इंटरेस्टिंग ही नहीं दोस्त भी हो गया है और मुन्ना शाई से प्यार करने लगा है..और देखा जाय तो शाई भी मुन्ना से. शाई अब उसके साथ फिल्म देखती है उसे शराब पिलाती है और उसके साथ घूम-घूम कर मुंबई की फोटो खींचती है. एक दिन मुन्ना अरूण के घर कपड़े लेने जाता है तो देखता है कि शाई बैठी हुई है. मुन्ना को लगता है कि उसके साथ ठीक नहीं हो रहा है वो उदास हो जाता है. इधर बीच मुन्ना के दोस्त की हत्या हो जाती है जो एजेंट और कॉन्ट्रेक्ट के छोटे-छोटे काम करने के साथ-साथ मुन्ना को रोल दिलाने का दिलासा देता रहता है. मुन्ना के लिए ज़िदंगी और कठिन हो जाती है.

शाई को मुंबई में चूहा मारने वाले को तस्वीर लेनी है. एक दिन वो जिस चूहा मारने वाले की तस्वीर लेती है वो मुन्ना ही रहता है. शाई यह देख कर चौंक जाती है. मुन्ना भी शाई को देख कर भाग जाता है. मुन्ना अब शाई के सामने नहीं आना चाहता. लेकिन एक दिन शाई उसे पकड़ लेती है और अपने प्रति नाराजगी का कारण पूछती है तो मुन्ना उसे बताता है कि तुम्हारा दिल अरूण पर आ गया है. फिर शाई मुन्ना से अरूण का ऐड्रेस पूछती है तो मुन्ना झूठ बोल देता है कि उसे नहीं मालूम वो ऑस्ट्रेलिया जा कर बसने वाला था. लेकिन जब शाई गाड़ी में बैठ कर चली जाती है तो वो दौड़ते हुए पीछा करता है और अपने पॉकेट डायरी से फाड़ के अरूण का पता दे देता है और चला जाता है. शाई के आँख से आँसू गिरते है जो मुन्ना और उसके बीच इस छोटी मगर गहरी यात्रा का चित्र खींच देते है.

हम जिस चीज को नियति का हिस्सा मानकर उसे छोटा बना देते है. उसी छोटी सी बात और क्षणिक इमोशन को किरण एक बड़े कैनवास पर रख देती है. कैनवास पर उभरे चित्र हमारी बिडंबना और विरोधाभास को रेखांकित करने के साथ हमारे स्वप्न भंग की कहानी कहते है. इस स्वप्न भंग के बीच महत्वपूर्ण है संवेदना का बचना जो कि मुन्ना द्वारा शाई को अरूण का ऐड्रेस देने और अरूण को अपने पेंटिंग में यास्मीन के सामान और उसके विडियो को चित्रित करने में दिखाई देता है. शायद धोबीघाट का यही सफ़र है.

एक तरफ़ यास्मिन जैसी घरेलू महिला जो अपने पति में अपने आप को इतना बंद कर लेती है कि उसके बिना अपनी जिदंगी ही खत्म कर लेती है वहीं शाई अपने रिश्ते और संबधो को लेकर इतनी सुलझी हुई है कि शारीरिक संबंध के बाद भी जब अरूण उसके साथ किसी रिश्ते से इंकार करता है तो वो कुछ परवाह नहीं करती उल्टे अरूण को ही रिलेक्स करती है. एक तरफ़ मुंबई की बारिश में उच्च मध्य वर्ग का अरूण अपने पैग को खिड़की से बाहर कर के जाम बनाता है वही मुन्ना अपने छप्पर से टपक रहे पानी को मग्गे में भर कर बाहर फेंकता है. इसका शिल्प अनोखे तरह से बुना गया है. जितनी बारीकी से कथा को बुना गया है उतनी ही बारीकी से आदमी के टूटना और छूटना को बुना गया है.

अभिनय में सब के सब अपने किरादार में डूबे हुए लगते है. खासकर प्रतीक और कीर्ति मलहोत्रा ने तो कमाल का काम किया है. आमिर ने भी अपने स्टाइल से अलग और रियल काम किया है. मोनिका डोगरा के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती थी जिसे वह बखूबी पार करती है. निर्देशन और लेखन की जितनी तारीफ की जाय कम है. मुंबई के चकाचौंध में कथानक के साथ क़िरदारों के बसरे और उनके परिवेश को भटकने का खतरा था लेकिन किरण ने संभाल लिया है. कही भी मॉल,होटल, क्लब और बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों का बाजारू दिखावा नहीं. कुछ भी बनावटी नहीं. संवाद भी एक दम चुस्त और सहज होने के साथ इंटरेस्टिंग है. कही कुछ बोझिल नहीं. किरण अपनी इस फिल्म से मीनिंगफुल सिनेमा के निर्देशकों के करीब खड़ी तो हुई ही है अपने इस तोहफ़े से हिंदी सिनेमा को समृद्ध भी किया है.


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लेखक से सम्पर्क : 09594282918 ; snp0532@gmail.com

14 comments:

Sandeep Mishra said...

आपकी निष्पक्ष समीझा पढ़्कर अच्छा लगा...बाकी लोगों ने तो काफ़ी निराश किया...सब धोबी घाट में गजनी या गोलमाल तलासते रह गए...घोबी घाट की इस सही समीक्षा के बाद क्रिटिक्स को ये समझाना चाहिए की फिल्म की समीक्षा मजा आया या नहीं आया कह देना नहीं होता...आपकी स्ट्राइक बेहतरीन है...बस एक बात ये की एक ही फिल्म से किसी को ज्यादा न चढ़ाए...इन्डिया में लोगों को आइडेन्टीटी क्राइसिस बहुत जल्दी हो जाता है...आने वाली फिल्मों पर भी आपसे सही सटीक समीक्षा की उम्मीद बन गई है... संदीप मिश्रा

सागर said...

बहुत बहुत शुक्रिया इसके लिए... देखता हूँ कभी फुर्सत से यह सिनेमा...

ब्लॉग बड़ा सुन्दर बन पड़ा है आपका.

Arvind Mishra said...

जबरदस्त !

Prafull Jha said...

Maine Dhobi Ghat Nahin Dekhi, Magar ye lekh padhtey hue laga ke bas dekh raha hoon.or ab main ja k dekhne waala hun. Shukra he kolkata meabhi tak chal rahi hai.
Thanks

addictionofcinema said...

sundar aur santulit sameeksha. Baba ko badhai ho...
Vimal

मनोज पटेल said...

बेहतर..... शेषनाथ जी आपकी पहली प्रकाशित रचना पर बधाई. उम्मीद है कि आपसे नियमित रूप से कुछ न कुछ पढने को मिलता रहेगा.

amitesh said...

भाई ये समीक्षा नहीं है कहानी की पुनर्प्रस्तुति है. वस्तुतः इस फ़िल्म में कहानी नहीं जीवनस्थितियां हैं. यह एक नये प्रकार का सिनेमा है और इसे समीक्षित करने के लिये नये औज़ार चाहिये...एक सूक्ष्मता फ़िल्म में अंतर्व्याप्त है. उसे खोलते तो बात होती. हम फ़िल्म समीक्षा को कब तक आसानी से लेते रहेंगे जबकि यह जटिल काम है.

Prashant Singh Jaghina said...

Sheshnaath saahab; aapki lekhni achchhi chalti hai. bhaasha patuta hai aur saath hi kalaatmakta bhi hai. lekin lagta hai ki aapne sahi sandarbhon ke chayan aur upayog mein galati ker di hai. pahali baat to ye ki yadi Dhobighaat ko film kaha jaye to ye film dekhne walon ke saath naa-insaafi hogi. haan aap yadi ise 'ek vritchitra' kahte to jyada sahi jaan padta. Film vo hai jo hume koi sandesh de. Dhobighat ne samaaj ko kaunsa sandesh diya ye aap jaise buddhijivi hi jaane. dusra ye ki aap ki bhartiya samaaj ke baare mein samajh thodi kachchi jaan padti hai. bhai saahab bhaartiya samaaj pahle bhi jaagruk tha aur aaj bhi hai. Mother India jaisi films iska jwalant udaaharan hain. balki pahle is prakaar ki filmein jyaada banti thi.

सोनू said...

आमिर ने ऐसा अनायास नहीं किया है...वे समय में हो रहे बदलाव को समझ गए है और उन्हें पता है कि अगर इस बदलाव से हम नजर छुपा ले तो हमारे पास शुतुरमुर्गी बचाव के छद्म के अलावा कुछ नहीं बच पाएगा...

हमारा परिवेश ग्लोबल होता जा रहा है...


मुझे इस बात में कोई दम नहीं लग रहा। संप्रेषण क्या अब जाकर ही इतना खुला है कि फ़लाँ-फ़लाँ को सद्बुद्धि आ जाए? मेरे ख़याल से परिवेश का ग्लोबल होना कल्याण का अपेक्ष्य कारक नहीं है बल्कि संस्कृति का केंद्रीकरण ना होने में भलाई है। यह फिल्म मुख्यधारा से परे है, यह इसका गुण कहा जा सकता है, लेकिन क्या इसका ऐसा होना किसी नई मुख्यधारा में जमने का मौक़ा उठाना है? मुख्यधारा आप ही बुरी चीज़ है।


जो कुछ भी ग्लोबल गाँव में छोड़ा जाता है ज़रूरी नहीं कि उसमें मानवीयता हो। मिसाल के तौर पर मोबाइल पर बेहुदा-बेतुके-बेमतलब एसएमएस "फॉरवर्ड" करने के शगल में और उसी तरह के "स्क्रैपों" के ऑर्कुट पर आदान-प्रदान में मुझे कोई सार्थकता नहीं दिखती।

रामजीलाल चौधरी said...

interesting = रोचक/मज़ेदार/दिलचस्प?

Anonymous said...

एक मनबहलाव और बस कुछ नहीं!

रामजीलाल चौधरी said...

"आमिर का स्टारडम अक्षय से कहीं कम नहीं है बावजूद इसके आमिर ने न सिर्फ़ इस छोटी बजट और विशुद्ध कलात्मक फिल्म में काम किया बल्कि पैसा भी लगाया"

अच्छी फ़िल्म तो सिर्फ़ इन सितारों के बिना ही बन सकती है।

Anonymous said...

@Prashant Singh
"Film vo hai jo hume koi sandesh de."

प्रशांत जी,ये बड़ी अजीब बात है जो आपने कही है. इस हिसाब से आप न जाने कितनी फिल्मो को फिल्म मानने से इनकार कर देंगे. न जाने कितनी ऐसी अच्छी कहानिया हैं जिनसे आप सन्देश नहीं निचोड़ पाएंगे तो उन्हें वृतचित्र बना देंगे. आप अपना सिनेमा ज्ञान दुरुस्त कीजिये मित्र, और यहाँ ये भी कहना चाहूँगा कि जिस दिन हम इन परिभाषाओ से बाहर निकल कर कुछ करंगे उस दिन महान सिनेमा जनम लेगा हमारे बीच...और यही नयी बात है जो आज हो रही है लेकिन मदर इंडिया के ज़माने में बहुत कम थी...मुझे लगता है इसे हम सबके प्रोत्साहन कि जरुरत है.
- बोधिसत्व विवेक

ssiddhant said...

शेषनाथ जी,
धोबीघाट की समीक्षा के लिए शुक्रिया..
किसी फिल्म को बस इसलिए अच्छा मान लेना या कह देना क्योंकि उसमें आमिर खान हैं या उसे राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर बहुत बड़ी जगह मिली (इसका भी परोक्ष कारण भी आमिर खान ही हैं), इसी स्वाद पर बनीं अन्य फिल्मों के साथ ग़लत होगा. मुझे बेला नेगी की फिल्म "दाएँ या बाएँ" इन मायनों में एक सफल फिल्म लगी, जिसके प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया गया (जितना धोबीघाट जैसी "कला फिल्म" के लिए किया गया). "दाएँ या बाएँ" के लिए मैं प्रमोद सिंह का मुरीद हूँ, उन्होंने एक अच्छी फिल्म के लिए जो किया वह आमिर खान द्वारा किये गए से कहीं ऊपर था. http://cilema.blogspot.com/2010/10/blog-post_27.html
मैं अमितेश जी की बात से कुछ हद तक सहमत हूँ, स्टोरी-टेलिंग तो ज़रूरी है ही, लेकिन फिल्म समीक्षा के लिए सिर्फ उसी पर केन्द्रित हो जाना ग़लत है. ये सच है कि ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में इंटरनेट पर मौज़ूद हमारे हथियार बहुत कारगर हैं, लेकिन उन्हें ही एकमात्र ज़रिया मान लेना मुझे कोई बुद्धिसंगत कार्य नहीं लगता.

किसी फिल्म का मुख्यधारा से परे होना ज़रूरी नहीं है, मुख्यधारा में रहकर भी अच्छी और बेहतरीन फ़िल्में बनी है/ बन रहीं हैं...रामजीलाल चौधरी नें जो कहा "अच्छी फ़िल्म तो सिर्फ़ इन सितारों के बिना ही बन सकती है" उसमें 'ही' के बजाय 'भी' जोड़ना ज़्यादा सही होगा. मुझे आउटलुक में प्रकाशित विष्णु खरे के लेख से एक बात याद हो आई, जिसे बदल कर इस फिल्म के सन्दर्भ में कहा जा सकता है: किसी फिल्म को "मुख्यधारा से हटकर" कह देना उसके मुख्यधारा से अलगाव का प्रमाण नहीं है. इस फिल्म के लिए जो बेसिक बिंदु ध्यान में रखने योग्य है, वह सिर्फ यह कि फिल्म की कहानी ठेठ bollywoodic है, कैमरे को अलग ढंग से इस्तेमाल कर लिया गया, जिसके सुरूर में आमिर डूबे हुए हैं. कैमरे को अलग-सफल तरीक़े से इस्तेमाल करना फिल्म नहीं, फिल्म के कथा-कथानक में परिवर्तन लाना, उसे पुराने घिसे-पिटे से अलग दिखाना, उसे अपनी मर्ज़ी से नहीं दर्शक समूह की मर्ज़ी से दिखाना असल फिल्म की पहचान है.