Saturday, January 29, 2011

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की कविताएँ



अफ़ज़ाल अहमद सैयद : जिन्होंने “शायरी ईज़ाद की”.

आधुनिक समय की विश्व कविता अगर कोई संसार है तो अफज़ाल अहमद सैयद उस प्यारे संसार की राजधानी हैं. प्रसंग विशिष्ट सम्वेदना के अटूट चित्रण के लिये विख्यात यह कवि/ शायर कविता के जादुई ‘डिक्शन’ और प्रभावशाली कहन (बयान) के अन्दाज का मास्टर है. जिस संग्रह की कवितायें यहाँ प्रस्तुत हैं ( रोकोको और दूसरी दुनियायें ) उसके पन्नों से गुजरते हुए अफज़ाल की विलक्षण विश्वदृष्टि और इतिहासबोध का पता चलता है. अगर इनका नाम पाकिस्तान और समूचे विश्व के अप्रतिम कवियों की सूची में शुमार होने लगा है तो इसकी ठोस वजह है : पाकिस्तानी समाज में फैल चुकी धर्मान्धता, जातिगत लड़ाईयाँ, सांस्कृतिक क्षरण, क्रूरता और राज्य – प्रायोजित आतंकवाद से कवि की सीधी मुठभेड़. वर्तमान समय के सर्वाधिक रचनाशील और उर्वर कवि अफ़ज़ाल, दरअसल अपने पूरे ढब में भविष्य के (FUTURISTIC) कवि हैं.

1946 (गाजीपुर) की पैदाईश अफ़ज़ाल के नाम कुल चार किताबे और ढेरों अनुवाद हैं. नज्मों की तीन किताबें क्रमश: छीनी हुई तारीख़ (1984) दो ज़ुबानों में सजाये मौत (1990) तथा रोकोको और दूसरी दुनियायें (2000) हैं. गजलों का एक संग्रह – खेमा-ए-स्याह( 1988). वैसे इनका रचना समग्र “मिट्टी की कान” नामक संग्रह में समाहित है.

लिप्यंतरण के बारे में : अफ़ज़ाल का रचना समग्र हमें कैसे मिला, यह बेहद लम्बा और रोमांचक किस्सा है और जिसे फिर कभी बताऊंगा. समूची रचनाओं के अनुवाद/ लिप्यंतरण की इज़ाज़त हमें अफ़जाल साहब ने कुछ यह लिख कर दिया:

Dear Chandan,

I wish I could meet you and your friends Manoj and krishan.

I do hereby give Mr. Manoj Patel my permission to translate and publish my poems in Hindi including those published in " Roccoco and the Other Worlds".


Best regards

Afzal Ahmed Syed.

और सबसे जरूरी यह कि साथी मनोज पटेल ने सिर्फ और सिर्फ अफ़ज़ाल साहब की रचनाओं के अनुवाद/ लिप्यंतरण के लिये उर्दू सीखी. मनोज के उर्दू सीखने और इन नज्मों के लिप्यंतरण में शहाब परवेज़ ने भरपूर सहयोग दिया. मनोज अब तक अफ़ज़ाल साहब के दो संग्रह क्रमश: रोकोको और दूसरी दुनियायें तथा दो ज़ुबानों में सज़ाये मौत का लिप्यंतरण कर चुके हैं और छीनी हुई तारीख़ पर जुटे हैं. नज्मों की ये तीनों संग्रह, एक ही जिल्द में, शीघ्रातिशीघ्र प्रकाश्य.

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हमें बहुत सारे फूल चाहिए

हमें बहुत सारे फूल चाहिए
मारे जाने वाले लोगों के क़दमों में रखने के लिए,
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
बोरियों में पाई जायी जानेवाली लाशों के चेहरे ढाँकने के लिए,
एक पूरी सालाना फूलों की नुमाईश
ईधी सर्दखाने में महफूज कर लेनी चाहिए
नामजद मरने वालों की
पुलिस कब्रिस्तान में खुदी कब्रों के पास रखने के लिए,
खूबसूरत बालकनी में उगने वाले फूलों का एक गुच्छा चाहिए
बस स्टाप के सामने
गोली लग कर मरने वाली औरत के लिए,
आसमानी नीले फूल चाहिए
येलो कैब में हमेशा की नींद सोए हुए दो नौजवानों को
गुदगुदाने के लिए,
हमें खुश्क फूल चाहिए
मस्ख किए गए जिस्म को सजाकर
असली सूरत में लाने के लिए,
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
उन जख्मियों के लिए
जो उन अस्पतालों में पड़े हैं
जहां जापानी या किसी और तरह के रॉक गार्डन नहीं हैं,
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
क्योंकि उनमें से आधे मर जाएंगे
हमें रात को खिलने वाले फूलों का एक जंगल चाहिए
उन लोगों के लिए
जो फायरिंग की वजह से नहीं सो सके,
हमें बहुत सारे फूल चाहिए
बहुत सारे अफ्सुर्दः लोगों के लिए,
हमें गुमनाम फूल चाहिए
बेसतर कर दी गई एक लड़की को ढांपने के लिए

हमें बहुत सारे फूल चाहिए

हमें बहुत सारे फूल चाहिए
बहुत सारी रक्स करती बेलों पर लगे
जिनसे हम इस पूरे शहर को छुपाने की कोशिश कर सकें
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सर्दखाने - कोल्ड स्टोरेज, मुर्दाघर
मस्ख - विकृत
अफ्सुर्द : - उदास

* *
हमारा कौमी दरख़्त

सफ़ेद यास्मीन की बजाए
हम कीकर को अपनी शिनाख्त करार देते हैं
जो अमरीकी युनिवर्सिटियों के कैम्पस पर नहीं उगता
किसी भी ट्रापिकल गार्डेन में नहीं लगाया जाता
इकेबाना खवातीन ने उसे कभी नहीं छुआ
नबातात के माहिर उसे दरख़्त नहीं मानते
क्योंकि उसपर किसी को फांसी नहीं दी जा सकती

कीकर एक झाड़ी है
जिससे हमारे शहर, रेगिस्तान
और शायरी भरी है

काँटों से भरा हुआ कीकर
हमें पसंद है
जिसने हमारी मिट्टी को बहिरा-ए-अरब में जाने से रोका.
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इकेबाना - फूल सजाने का जापानी तरीका
नबातात - जमीन से उगने वाली चीजें
बहिरा - ए- अरब - अरब सागर

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एक इफ्तेताही तकरीब

फ्लोरा लक
लहरिएदार स्कर्ट
नीम बरहना शानों
और काली क्रोशिया की बेरेट में
मुख़्तसर जुलूस के साथ
केमाड़ी तक गई

वह स्काच चर्च में रुकी
उसने गैर दिलचस्प तकरीरें सुनीं
सुबह उसे
ट्रालियों के
गैल्वनाइज्ड लोहे की छतों वाले गोदाम
और साठ घोड़ों के अस्तबल का दौरा कराया गया

ट्राम वे की इफ्तेताही तकरीब में
कराची की सबसे खूबसूरत लड़की
खुश नजर आ रही थी

अगर उसका कोई महबूब होता
वह उसे उस दिन बहुत बोसे देती

उसकी खुशी के एहतिराम में
कराची ट्राम वे
नौवें साल तक पटरियों पर दौड़ती रही

और जब
मजबूत ट्रांसपोर्टरों ने
ट्राम की पटरियां उखाड़ दीं

शहर उजड़ना शुरू हो गया
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इफ्तेताही तकरीब - उद्घाटन समारोह
नीम बरहना शानों - अर्धनग्न कन्धों
बेरेट - टोपी
मुख़्तसर - संक्षिप्त
तकरीरें - भाषण
एहतिराम - सम्मान

***
हिदायात के मुताबिक़

वजीरे आजम जोनूब की तरफ नहीं जाएंगी
सदर
सिर्फ अमूदी परवाज करेंगे
सिपाही
ढाई घर चलेंगे
जलावतन रहनुमा
साढ़े बाईस डिग्री पर घूमेंगे
लोग घरों से नहीं निकलेंगे
एक्बुलेंस जिग जैग चलेंगे
तारीख
पहले ही एंटी क्लाक वाइज चल रही है

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जोनूब - दक्षिण
अमूदी - लम्बवत, वर्टिकल

* *
एक लड़की

लज्जत की इन्तेहा पर
उसकी सिसकियाँ
दुनिया के तमाम कौमी तरानों से ज्यादा
मौसीकी रखती हैं

जिन्सी अमल के दौरान
वह किसी भी मलिकाए हुस्न से ज्यादा
खूबसूरत करार पा सकती है

उसके ब्लू प्रिंट का कैसेट
हासिल करने के लिए
किसी भी फसादजदा इलाके तक जाने का
ख़तरा लिया जा सकता है

सिर्फ उससे मिलना
नामुमकिन है
पाकिस्तान की तरह
हाला फारुकी भी
पुलिस की तहवील में है

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कौमी तराना - राष्ट्र गान
तहवील - कस्टडी, अभिरक्षा

* *
लिप्यंतरण का सारा दारोमदार मनोज पटेल का रहा जिनसे manojneelgiri@gmail.com ( दूरभाष - 09838599333) पर सम्पर्क किया जा सकता है. अफ़ज़ाल की दूसरी कवितायें/ नज्में और गजले समय समय पर मनोज पटेल के ब्लॉग पढ़ते पढ़ते पर प्रकाशित होती रहेंगी.   

Wednesday, January 26, 2011

26 जनवरी पर विशेष


( यह आलेख डॉ. कृष्णमोहन का है. 26 जनवरी के शुभ – उपलक्ष्य पर प्रस्तुत यह आलेख कई कई स्तरों पर खुलता है. अबोध पीढ़ी के लिए यह कक्षा में पढ़ाये जाने वाले जरूरी निबन्धात्मक पाठ की तरह है तो हमारी उम्र के लिये त्रासद व्यंग्य और बुजुर्गवारों के लिये अफसोस का चिट्ठा है. )

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इंडिया – डैट इज भारत



भारत के संविधान को लागू हुए यानी भारत को गणतंत्र बने 61 वर्ष हो चुके हैं. संविधान के मुताबिक हमारा देश एक संप्रभु, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है. अपनी जनता का कल्याण करना इसका परम पवित्र कर्तव्य है और यह उस मार्ग पर उत्तरोत्तर अग्रसर है. गुटनिरपेक्षता और विश्वशांति के लिये हमारी प्रतिबद्धता निर्विवाद है. जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी के मार्गदर्शन और राहुल गांधी के आने तक मनमोहन सिंह के दूरदर्शी नेतृत्व में हमारी आने वाली पीढ़ियों तक का भविष्य सुरक्षित है.

समाज में हर तरह की सामाजिक विषमता और भेदभाव के विरूद्ध हमारी कार्यपालिका प्रतिबद्ध है. छुआछूत को तो हमने अपराध की मान्यता दे रखी है, जिससे प्राय: सभी घृणा करते हैं. हमें आश्चर्य होता है कि कभी हमारे महान देश में ऐसी प्रथाएँ भी प्रचलित थीं. दलितों पर अत्याचार के खिलाफ हमारी पुलिस विशेष रूप से सक्रिय है. जहाँ कहीं भी उनके प्रति किसी अन्याय की सूचना मिलती है, प्रशासन अपराधियों के विरूद्ध सक्रिय हो जाता है और उन्हें सजा दिला कर ही छोड़ता है. यही हाल महिलाओं का है. दलितों और महिलाओं के प्रति हमारे प्रशासन के प्रतिनिधियों में अतिशय संवेदनशीलता है और वे अपने – अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने के लिए पूरी तरह सजग रहते हैं. बच्चों के प्रति हम कितने ममत्व से भरे हैं इसका पता इसी बात से चलता है कि हर वर्ष हजारों की तादाद में बच्चे अपने माँ – बाप को छोड़कर पूरी तरह स्वेच्छा से गायब हो जाते हैं. पूरा देश उनके खेल का मैदान बन जाता है.

विधायिका और न्यायपालिका की वस्तुगत प्रंशसा के बगैर यह चर्चा अधूरी रहेगी. हमारी संसद और विधानसभाओं में जनसमस्याओं पर विचार विमर्श की अभूतपूर्व परम्परा है. चर्चा का स्तर हमारे महान जनतंत्र के अनुरूप ही है. इनके सदस्यों की विद्वता, मृदुभाषिता और सच्चरित्र के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती. कह सकते हैं कि हमारे संविधान के रूप में वर्षों पहले जो बीज लगाया था, अह अब वृक्ष बन चुका है और हम उसके फल चख रहे हैं. आने वाली पीढ़ियाँ हमारी आभारी होंगी कि हमने उनके लिए न केवल इसे सुरक्षित रखा, बल्कि पर्याप्त विकसित भी किया.

इतने बड़े देश के संचालन में जब कोई समस्या आती है तो हमारा ध्यान न्यायपालिका की ओर जाता है. हमारे न्यायधीशों की न्यायप्रियता और निष्पक्षता में किसी को सन्देह नहीं हो सकता. किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार और भाईभतीजावाद से ये कोसों दूर हैं. बल्कि भ्रष्टाचार को तो ये देशद्रोह के समतुल्य मानते हैं और उम्रकैद से लेकर फांसी तक देने में देर नहीं करते. इनकी इसी महत्ता को देखते हुए इन्हें किसी भी जबावदेही से मुक्त रखा गया है. इनकी आलोचना संगीन अपराध है जो जनतंत्र के मूलभूत सिद्धांत अभिव्यक्ति की आजादी के पूरी तरह अनुरूप है. हमारा विश्वास है कि न्याय के ये पुतले जब तक सार्वजनिक आलोचना से बचे रहेंगे, हमारा जनतंत्र फलता - फूलता रहेगा.

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हमारे संविधान की देखरेख में हमारे जनतंत्र के चारो खम्भे मजबूती से टिके हुए हैं और विश्व की एक महाशक्ति बनने वाले हैं.


( डॉ. क़ृष्णमोहन. साहित्यालोचक और निबन्धकार. आलोचना की तीन पुस्तकें प्रकाशित - 'मुक्तिबोध: स्वप्न और संघर्ष'; 'आधुनिकता और उपनिवेश', और 'कहानी समय'. बनारस की रिहाईश. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन. हिन्दी कहानी की सारगर्भित पड़ताल करता हुआ एक आलोचनात्मक आलेख शीघ्र प्रकाश्य.
सम्पर्क : krishnamohanbanaras@gmail.com )

Tuesday, January 18, 2011

यासूनारी कावाबाता की कहानी : छाता

( नई उम्र का प्रेम कितनी कोमल अनुभूतियों से निर्मित होता है इसकी एक बानगी यासूनारी कावाबाता की यह कथा दिखाती है. यासूनारी कावाबाता का जन्म 1899 में जापान के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक परिवार में हुआ था. चार वर्ष की उम्र में वह अनाथ हो गए जिसके बाद उनका पालन-पोषण उनके दादा-दादी ने किया. पंद्रह वर्ष की उम्र तक वे अपने सभी नजदीकी रिश्तेदार खो चुके थे. कावाबाता ने स्वीकार किया है कि उनके लेखन पर अल्पायु में ही अनाथ हो जाने और दूसरे विश्व युद्ध का सबसे ज्यादा असर रहा है. अपने उपन्यास Snow Country  के लिए मशहूर कावाबाता को 1968 में साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला. यह सम्मान प्राप्त करने वाले वह पहले जापानी लेखक बने. 1972 में इस महान लेखक ने आत्महत्या कर लिया. अनुवाद मनोज पटेल का है. मनोज द्वारा अनूदित कावाबाता की तमाम कहानियाँ जल्द से भी जल्द ब्लॉग्स पर दिखने लगेगीं)


छाता

बसंत ऋतु की बारिश चीजों को भिगोने  के लिए काफी नहीं थी. झीसी इतनी हलकी थी कि बस त्वचा थोड़ा नम हो जाए. लड़की दौड़ते हुए बाहर निकली और लड़के के हाथों में छाता देखा. "अरे क्या बारिश हो रही है ?"

जब लड़का दुकान के सामने से गुजरा था तो खुद को बारिश से बचाने के लिए नहीं बल्कि अपनी शर्म को छिपाने के मकसद से, उसने अपना छाता खोल लिया था.

फिर भी, वह चुपचाप छाते को लड़की की तरफ बढ़ाए रहा. लड़की ने अपना केवल एक कंधा भर छाते के नीचे रखा. लड़का अब भीग रहा था लेकिन वह खुद को लड़की के और नजदीक ले जाकर उससे यह नहीं पूछ पा रहा था कि क्या वह उसके साथ छाते के नीचे आना चाहेगी. हालांकि लड़की अपना हाथ लड़के के हाथ के साथ ही छाते की मुठिया पर रखना चाहती थी, उसे देख कर यूं लग रहा था मानो वह अभी भाग निकलेगी.

दोनों एक फोटोग्राफर के स्टूडियो में पहुंचे. लड़के के पिता का सिविल सेवा में तबादला हो गया था. बिछड़ने के पहले दोनों एक फोटो उतरवाना चाहते थे.

" आप दोनों यहाँ साथ-साथ बैठेंगे, प्लीज ?" फोटोग्राफर ने सोफे की तरफ इशारा करते हुए कहा, लेकिन वह लड़की के बगल नहीं बैठ सका. वह लड़की के पीछे खड़ा हो गया और इस एहसास के लिए कि उनकी देह किसी न किसी तरह जुड़ी है, सोफे की पुश्त पर धरे अपने हाथ से उसका लबादा छूता रहा. उसने पहली बार उसे छुआ था. अपनी उँगलियों के पोरों से महसूस होने वाली उसकी देंह की गरमी से उसे उस एहसास का अंदाजा मिला जो उसे तब मिलता जब वह उसे नंगी अपने आगोश में ले पाता.

अपनी बाक़ी की ज़िंदगी जब-जब वह यह फोटो देखता, उसे उसकी देंह की यह गरमी याद आनी थी.

" क्या एक और हो जाए ? मैं आप लोगों को अगल-बगल खड़ा करके नजदीक से एक तस्वीर लेना चाहता हूँ."

लड़के ने बस गर्दन हिला दी.

"तुम्हारे बाल ?" लड़का उसके कानों में फुसफुसाया. लड़की ने लड़के की तरफ देखा और शर्मा गई. उसकी आँखें खुशी से चमक रही थीं. घबराई हुई वह गुसलखाने की और भागी.

पहले, लड़की ने जब लड़के को दुकान से गुजरते हुए देखा था तो बाल वगैरह संवारने में वक्त जाया किए बिना वह झट निकल आई थी. अब उसे अपने बिखरे बालों की फ़िक्र हो रही थी जो यूं लग रहे थे मानो उसने अभी-अभी नहाने की टोपी उतारी हो. लड़की इतनी शर्मीली थी कि वह किसी मर्द के सामने अपनी चोटी भी नहीं गूंथ सकती थी, लेकिन लड़के को लगा था कि यदि उस वक्त उसने फिर उससे अपने बाल ठीक करने के लिए कहा होता तो वह और शर्मा जाती.

गुसलखाने की ओर जाते वक्त लड़की की खुशी ने लड़के की घबराहट को भी कम कर दिया. जब वह वापस आई तो दोनों सोफे पर अगल-बगल यूं बैठे गोया यह दुनिया की सबसे स्वाभाविक बात हो.

जब वे स्टूडियो से जाने वाले थे तो लड़के ने छाते की तलाश में इधर-उधर नजरें दौड़ाईं. तब उसने ध्यान दिया कि लड़की उसके पहले ही बाहर निकल गई है और छाता पकड़े हुए है. लड़की ने जब गौर किया कि लड़का उसे देख रहा है तो अचानक उसने पाया कि उसका छाता उसने ले रखा है. इस ख्याल ने उसे चौंका दिया. क्या बेपरवाही में किए गए उसके इस काम से लड़के को यह पता चल गया होगा कि उसके ख्याल से तो वह भी उसी की है ?

लड़का छाता पकड़ने की पेशकश न कर सका, और लड़की भी उसे छाता सौंपने का साहस न जुटा सकी. पता नहीं कैसे अब यह सड़क उस सड़क से अलग हो चली थी जो उन्हें फोटोग्राफर की दुकान तक लाई थी. वे दोनों अचानक बालिग़ हो गए थे. बस छाते से जुड़े इस वाकए के लिए ही सही, दोनों किसी शादीशुदा जोड़े की तरह महसूस करते हुए घर वापस लौटे.

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अनुवादक से सम्पर्क : 09838599333 ; manojneelgiri@gmail.com

Thursday, January 13, 2011

रवीन्द्र आरोही की कहानी : प्रश्न 1 (घ) - नीचे दिये गये चित्र को ध्यान से देखो और एक कहानी लिखो.

( रवीन्द्र आरोही युवा कहानीकार हैं. जर जमा चार कहानियाँ प्रकाशित पर उससे जो इनकी पहचान सामने आती है उसे अगर भविष्य में प्रक्षेपित करते हुए कहें तो रवीन्द्र की मशहूरी भाषा के "सार्थक" प्रयोग और अपने तेज तर्रार विट के लिये होने वाली है.. ...यह कहानी अपने डिटेल्स के कारण खास बन पड़ी है.. ..) 

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प्रश्न (1) घ : नीचे दिए चित्र को ध्यान से देखो और एक कहानी लिखो।


उत्तर - जंगल-जंगल बात चली है पता चला है वाले दिन थे. हैलीकॅाप्टर आकाश में बहुत नीचे तक उड़ते थे. हमारे पास एक जोड़ी पंख थे. पंख ऐसे कि जैसे पंख होते हैं. सचमुच के पंख की तरह झूठमूठ के पंख और अक्सर घर से भाग जाने का मन करता था. इतनी खुशियाँ, इतनी तरह की कि मारे खुशियों के कभी-कभी मर जाने का मन करता. रोना हमें उस तरह याद नहीं था जैसे जरूरी चीजें याद रहतीं. जरूरी में भी कुछ इतनी जरूरी कि शाश्वत होतीं मसलन सूरज जरूरी में शाश्वत था और हमें उसकी याद नही आती थी. मां का चेहरा इतना जरूरी की शाश्वत. आँखे बंद कर हम सचिन का चेहरा खींच लेते पर मां का चेहरा नहीं हो पाता.मुंदी आँखों में छीमी छुड़ाती़, कपड़े सूखाती़, टिफिन माजती मां दिखती पर खाली अकेली मां, मां की तरह खाली अकेली कभी नही दिखती.

हमारी जिन्दगी में स्कूल इस तरह मौजूद था कि वह अलग से याद नहीं था. कहानियां इतनी कि हर कहानी में हम थे. कहानियां अलग से न हम भूल पाते न याद रह पातीं. तमाम उलझनें, परेशानियों और व्यस्तताओं में भी हर दिन इतवार टाइप दिन थे जो सरपट भागती रेलगाड़ी की तरह सीटी बजाते हुये अचानक ही बीत जाते.

जिस तरह क्रिकेट एक खेल है़, केविन पीटरसन एक खिलाड़ी है़, साइटिका एक रोग है ठीक उसी तर्ज पर कानपुर एक शहर है - जहां कभी महामारी नहीं फैली - शहर से बाहर अनारबाग नामक एक कस्बा है. अनारबाग नामक कस्बे मे अनारबाग मिडिल स्कूल नामक एक स्कूल है जहां मै और नितिन पाँचवी कक्षा में साथ-साथ पढ़ते थे. कक्षा पांच तक आसमानी शर्ट और छाई रंग का पैंट पहना जाता लडकियां आसमानी फ्रॉक पहनती. छह से आठ तक सादी कमीज और हरे रंग का पैण्ट थी. नितिन की दीदी भूली सादी समीज और हरे रंग की सलवार में कक्षा सात में पढ़ती.

भूली का एक पैर छोटा था दूसरा जितना होना होना चाहिए उतना ही था. पहला पैर बायाँ पैर था. बायें पैर की चप्पल मोटी थी. दाहिने की जितनी होनी चाहिये उतनी ही थी. बायें पैर की चप्पल में अलग से चमड़े का मोटा सोल ठुका हुआ था कि दोनो पैर बराबर लगे. जब वह चलती थी तो बायीं तरफ थोड़ी झुकती थी. उसके बायें पैर की पायल के घुंघरू दाहिने पैर की पायल के घूघरू के अनुपात में ज्यादा जोर से बजते थे. उसे चलते देख कर लगता था कि बायीं तरफ अभी मुड़ जायेगी. उसे दाहिने भी मुड़ना होता तो बाईं तरफ झुक कर मुड़ती. अगर दाहिना पैर छोटा होता तो सड़क पर चलते वक्त गाड़ी वालों को लगता कि सामने जा रही लड़की अब दाहिने तरफ मुड़ने वाली है और गाड़ी वाले अपनी गाड़ी धीमी कर लेते. उसकी लिखावट कर्सिव होती थी.हर अक्षर बाई ओर झुके होते थे. परीक्षा की कॉपी जाँचते घड़ी सुधीर मास्टर अक्सर अपनी कलम धीमी कर लेते.

नितिन मेरा दोस्त था और हम कक्षा पाँच में पढ़ते थे. हमारे और भी दोस्त थे मतलब हम कुल पांच दोस्त थे पर नितिन हम सब में खास था क्योंकि वह बहुत तेज दौड़ता था और उसे बहुत सपने आते थे. हममें से किसी का भी नितिन से झगड़ा होता तो आगे आकर सुलह हमें ही करनी पड़ती थी. माफी हमें ही माँगनी होती. सॉरी हम ही बोलते. हम में से कोई भी नितिन को खोना नहीं चाहता था. स्कूल में आकर वह हमें पिछली रात के सपने सुनाता और हम खेलना-कूदना छोड़कर टिफीन की पूरी घण्टी भर सपने सुनते और कभी-कभी क्लास में भी. छु़ट्टी के वक्त तो हम उससे सपने सुनते-सुनते ही घर वापस आते. तब के दिनों में हमें सपने नहीं आते थे और हमे सपने के प्रति बहुत लालसा थी.

उसी ने हमें बताया कि उसके पास एक जोड़ा पंख है जिसे वह तकिए में छुपा कर रखता है और रात को पंख लगाकर वह कहीं भी उड़ सकता है. पंख वाली बात उसके घर में तक किसी को पता नहीं थी. भूली को भी नहीं जो रात में उसके पास सोती थी. छु़ट्टी के वक्त कभी रास्ते में भूली मिल जाती तो हम सब से कहती कि नितिन तुम सबको सपने सुना रहा है न, इसकी बात मत सुनो यह झूठ बोलता है. इसे सपने नहीं आते हैं. सब बना-बना कर बोलता है. इस पर नितिन चिढ़ जाता और भूली को लंगड़ी बोलता और कहता कि मैंने सपना देखा है कि तेरा पैर कभी ठीक नहीं होगा और तू मर जाएगी. भूली रोने लगती. हमें बुरा लगता पर हम सब उसे कुछ बोल नहीं पाते. भूली लंगडाते-लंगडाते रोती और नितिन को मारने के लिए दौड़ती.

नितिन भाग जाता. हम सब उसके पीछे भागते. भूली जब दौड़ती तब अपनी बाईं हथेली से बायें घुटने को जोर से पकड़ लेती और रोते-रोते दौड़ती. उसकी गर्दन की सारी नसें तन जातीं और नीचला होंठ दाहिनी तरफ लटक आता और चेहरा ईंट-सा झंवा जाता और वह एक लम्बे अपाहिज कराह के साथ सड़क की बाईं ओर ठस से बैठ जाती. सारी लड़कियाँ उसे घेर लेतीं. सड़क से जाते हुए साइकिल, मोटर-साइकिल वाले रूक-रूक कर पूछते -क्या हुआ हैं और चले जाते. फिर भूली उठ कर धीरे-धीरे घर तक आती. नितिन मार खाने की डर से देर शाम घर लौटता.

नितिन को फिर कभी अपने पर पछतावा होता तब वह धीरे से कहता कि भूली के मरने वाली बात मैने झूठ कही थी और यह भी कि उसका पैर जब वह बड़ी हो जाएगी तब ठीक हो जाएगा.

फिर नितिन अगले दिन स्कूल देर से आता.और उसे आता देख हम सब खुश हो जाते. धीरे-धीरे पूरा स्कूल जान गया था कि नितिन को सपने आते हैं और वह सबको सुनाता है. वह पूरे स्कूल में हीरो बन गया था.जब वह देर से स्कूल आता तो पूरा स्कूल समझ जाता कि नितिन ने रात को जरूर कोई बड़ा सपना देखा होगा. और देखते-देखते देर हो गई होगी. इसीलिए आज देर से स्कूल आया.

उस दिन शहर में कोई हलचल नहीं थी. शहर दूब की तरह शान्त था और सुबह की धूप में शुरूआती जाड़े की बची हुई गरमी थी. क्लास रूम के बाहर कदम्ब के पेड़ के नीचे खुले में हमारी पांचवी की क्लास लगती थी. खुले मैदान में पेड़ के नीचे क्लास लगने पर भी - मे आई कम इन सर- बोलना होता था. कोई भी, जो देर से आता, कदम्ब की छाँव के बाहर खड़ा होकर - मे आई कम इन सर बोलता. नितिन देर से और पीछे से आया था. पीछे पूरब था. सूरज की छाँव हमारी पीठ पर पड़ती थी.सूरज की छाँव इसका धूप थी.हमारी पीठ खुले मैदान के क्लास रूम में पूरब की दीवार थी. हम सब दीवार से पीठ टीका कर बैठते थे और मास्टरजी को पता भी नहीं चलता था.

नितिन ने लगभग हमसे सट कर खड़ा हो कर पूछा - मे आई कम इन सर ? यह पूछना पूछने की तरह नहीं था, बोलने की तरह था.मास्टरजी ने बोलने की तरह कहा - बैठ जाओ. वह हमारे पीछे बैठ गया. वह लगभग क्लास के बाहर बैठा था. मास्टरजी ने फिर कहा -अन्दर बैठो. सभी लड़के थोड़ा-थोड़ा आगे सरक गये. नितिन अन्दर आ गया. पेड़ की छाँव के बाहर बैठने पर क्लास रूम के बाहर बैठना होता था. बाहर बैठने पर वह कभी भी भाग सकता था या वहीं बैठे-बैठे वह कुछ खेल भी सकता था या अन्दर के लड़को को बाहर से हाथ बढ़ाकर मार भी सकता था. बाहर से बाहर जाने पर - मे आई गो आउट सर - बोलना पड़ता था. आगे सरकते-सरकते जब सूरज की पूरी छांव खत्म हो जाती तब शाम के चार बज गये होते थे. क्लास रूम अन्धेरे में बंद हो जाता था और हमारी छुट्टी हो जाती.

वर्ष चौरासी के इकतीस अक्टूबर का वह बुधवार था. दुनिया के कैलेण्डर में यह दिन इसलिए खास नहीं था कि वह हमारी छमाही परीक्षा का पहला दिन था और पहली परीक्षा हिन्दी की थी. खास इसलिए था कि नितिन उस दिन भी देर से आया और मास्टरजी के पूछने पर उसने बताया, रात वह लम्बा और बड़ा सपना देखता रहा सो सुबह देर से उठा. सपने में उसने आकाश में चील, कौवों -से मंड़राते हजारों हवाई जहाज और हेलीकॉप्टर देखे. पूरे देश में हजारों लाखों लोगों को मरते-भागते चीखते-चीत्कारते देखा. जगह-जगह गाड़ी और घर फूंकते आदमियों को देखा और कुछ देर बाद लम्बी बेहोशी में अपने शहर को देखा - मास्टरजी ने बीच में रोक कर कहा कि उस लम्बी बेहोशी को कोमा कहते हैं और यह बेहोशी तुम शहर के लिए कह रहे हो तो उसे कर्फ्यू कहो .

 फिर नितिन ने कहना शुरू किया - और आगे देखा कि मास्टरजी, आप कदम्ब के पेड़ के नीचे खड़ा होकर कह रहे हैं कि सब बच्चा लोग घर भाग जाओ, आज परीक्षा नहीं होगी. दो-तीन दिन बाद होगी.और तुम सब घर जाकर घर में बंद हो जाना, बाहर मत निकलना, नमस्ते! आपके मुंह से निकला नमस्ते, उस दिन का आखरी शब्द था. जैसे अपनी किताब के चौथे पाठ -हमारे बापू- में गांधी ने ‘हे राम’ कहा था.

परती आकाश - सा वह खुला दिन था और हम भागते हुए घर चले आये थे. भूली भी भागते-भागते आई थी. हमारा स्कूल पांच दिन तक बंद रहा. परीक्षा से ही हमारे स्कूल की शुरूआत हुई और वह हिन्दी की परीक्षा थी. छमाही परीक्षा में पास-फेल का कोई डर नही था फिर भी परीक्षा नजदीक आते ही नितिन हम सब से घर से भाग जाने की बात कहता था. पैदल कलकत्ता भागने की बात अक्सर कहता.नितिन, यदि भूली होता तो पैदल कलकत्ता भागने की बात नही कहता, सिर्फ स्कूल से पैदल घर आने भर तक की बात कहता.नितिन छोटे-छोटे अलग तरह का बाल कटवाता. हम सब चुपके- चुपके उसके बाल की नकल करते.मेरे घुंघराले बाल थे और वह कहता कि घुंघराले बाल वाले लोग रेलगाड़ी से कट कर मर जाते है. उसके पिता के भी बाल घुंघराले थे और वह उसी तरह मरे थे.नितिन के बाल घुंघराले नहीं, छोटे-छोटे झाड़ीनुमा बाल थे. छोटे-छोटे झाड़ीनुमा बालों के नीचे एक छोटी खोपड़ी थी जिसे भूली कहती – शैतान की खोपड़ी - छोटी खोपड़ी के भीतर छोटे से दिमाग में पैदल कलकत्ता भाग जाने वाली बात स्थायी रूप से विद्यमान रहती थी.

परीक्षा में हिन्दी के प्रश्न-पत्र का अंतिम प्रश्न - चित्र देख कर कहानी लिखो वाला होता. अक्सर वह चित्र उलझा-उलझा होता था. हम अक्सर इस प्रश्न से बचते और सोचते कि यदि प्रश्न में कहानी लिखी हुई होती और उस पर चित्र बनाने को कहा जाता तो कितना अच्छा होता. हम अपने पेंसिल बॉक्स के रंगों से एक चित्र बनाते. एक रंगीन चित्र. रंगीन कहानी के रंगीन चित्र. और किसी से भी कह सकते कि कहानी गोल होती है और रंगीन भी. हमारे पेंसिल बॉक्स में जितने रंग होते कहानियां उतने रंगो की होतीं, पर ऐसा नहीं था, हमारे सामने सिर्फ उलझी हुई ब्लैक एण्ड व्हाइट एक भद्दी-सी तस्वीर होती और चित्र में कहीं भी विद्यालय होता तो हम विद्यालय पर लेख लिख देते. कहीं कोने में खड़ी गाय होती तो लिख देते- गाय दूध देती है.

नितिन के साथ ऐसा नही था. वह ये प्रश्न बड़ी आसानी से कर लेता और वह दूसरे प्रश्नों के उत्तर याद करने से बच जाता. वह चित्र को देखता और उत्तर में उससे मिलता-जुलता कोई पुराना देखा हुआ सपना वहाँ टाँक देता. चित्र वाले प्रश्न में उसे सबसे ज्यादा नम्बर मिलते. जैसे, इस बार की परीक्षा में लिखा कि सड़क किनारे एक स्कूल था. स्कूल में छमाही परीक्षा हो चुकी थी सिर्फ पाक कला की परीक्षा बाकी थी. वह शनिवार का दिन था. स्कूल के सभी लड़के-लड़कियां और मास्टर खुश थे. स्कूल के बाहर डेक में पग घुंघरू बाँध मीरा नाची थी वाला गाना बज रहा था. चारो तरफ शोरगुल हो हल्ला. लड़के बाजार से दौड़-दौड़ कर सामान लाते. लड़कियां दूसरी कक्षा के क्लास रूम में मिट्टी के चुल्हे पर खीर-पूड़ी-आलू की सब्जी बना रही थीं. पूरा स्कूल खीर की तरह मीठा-मीठा महक रहा था. मास्टर लोग आकर लड़कियों को समझा जाते, बता जाते. कोई लड़की किसी को खीर चखाती, कोई किसी को तरकारी चखाती.

हेडमास्टर को एक लड़की खीर चखाने ले गई. हेडमास्टर ने खीर खाकर पानी लाने को कहा.लड़की पानी ले कर आई.लड़की ने पूछा –सर, खीर कैसी लगी? हेडमास्टर ने पानी पीकर लड़की के सर पे हाथ रख कर कहा, बहुत अच्छी बनी है.तुम बनाई? लड़की ने कहा, हम सबने मिल कर बनाई. हेडमास्टर ने लड़की को और करीब लाकर उसके गालो को सहलाते रहे और उसके परिवार का हाल-चाल पुछते रहे. फिर हेडमास्टर ने दरवाजा बंद कर लड़की को अपनी गोद में बिठा लिया. लड़की ने कहा, हमें जाना है.हेडमास्टर ने कहा और क्या-क्या बना लेती हो?

लड़की ने कहा- खिचड़ी, हमें जाने दो.

और?

चोखा - हमें जाने दो.

चटनी - हमें जाने दो.

भाजी - हमें जाने दो.

चाय - हमें जाने दो.

सब्जी - हमें जाने दो.

घर बुहारती हूं - हमें जाने दो.

घर लिपती हूं - हमें जाने दो.

भात बनाती हूं - हमें जाने दो.

सिलाई करती हूं - हमें जाने दो.

खून! हमें जाने दो.

और चारों तरफ की शोरगुल के बीच उस बंद कोठरी में बेहोशी के पहले की दम तोड़ती एक लम्बी अपाहिज कराह कि आ बाप हमें जाने दो. देखते-देखते स्कूल के बाहर बहुत लोग जमा हो जाते हैं.हेडमास्टर रेल हो जाता है. पास के सदर अस्पताल में लड़की दम तोड़ देती.

सुबह स्कूल बंद रहता.कई दिनो तक बंद रहता.स्कूल के बाहर चारों तरफ पूड़ी सब्जी, खीर बिखरी होती.कुत्ते इधर-उधर घुमते रहते.सूंघ कर छोड़ देते.पूरा स्कूल श्राद्ध-सा महकता रह जाता.

नितिन की यह कहानी इतनी चर्चित हुई की अगले दिन के अखबार में हू-ब-हू ऐसी ही छपी. परीक्षा के पन्द्रह दिन बाद हमारा स्कूल खुला.नितिन उस दिन नहीं आया. दूसरे-तीसरे किसी भी दिन नितिन वापस स्कूल नहीं आया. हम हर रोज उसका इन्तजार करते रहे. हम हर रोज उसके घर जाते. अलकतरे से पुती किवाड़ एक पुराने ताले से हमेशा बंद रहती. मां कहती, नितिन अपने माँ के साथ मामा के घर गया. मामा के घर नितिन अक्सर गरमी की छुट्टियों में जाता पर इस बार ऐसा नहीं था. पूरे जाड़े के बाद एक पूरी गरमी आई, नितिन नहीं आया.

और देखते-देखते वार्षिक परीक्षा आ जाती है. जिस तरह घर के पते में सिनेमा हॉल, मंदिर और नीम या बरगद का पेड़ शामिल थे. ठीक वैसे ही आम के मौसम में परीक्षा का मौसम शामिल था. परीक्षा के दिनों में पूरा स्कूल कलकतिया आम-सा गमक उठता. तब वार्षिक परीक्षा के पेपर लाल और पीले थे.और फिर प्रश्न 1 का घ चित्र देखो और कहानी लिखो.तब हम नितिन को बहुत याद करते.

चित्र में एक नारियल का पेड़ था.बहुत दूर एक अपरिचित-सा पेड़ होता, बहुत दूर तक फैले खेत और खेतों के बीच एक चुराये गए समय-सी शांत पगडंडी और उस पर भागते हुए हम बडे़ हो जाते.उस आदमी-सा जो उस प्रष्न पत्र के चित्र में होता.

वह आदमी, चित्र वाला आदमी, जिसके बाल छोटे-छोटे झाड़ीनुमा होतेए थोड़ा-थोड़ा नितिन की तरह लगता.चित्र वाला आदमी हाथ में सुटकेस लिए चित्र में कहीं जाता हुआ दिखता. चित्र में आदमी की बाईं तरफ हरसिंगार का एक छोटा पेड़ होता. हरसिंगार के छोटे-से पेड़ पर एक छोटी गौरैया चहकती हुई बैठी दिखती. चहकती हुई गौरैया के खुले चोंच के सामने एक बड़ा खुला नीला आकाश दिखता. चहकती गौरैया के चित्र में चहकना चित्र नहीं होता.

चित्र वाला आदमी थोडा़ दुखी-दुखी, संतुष्ट और सुलझा हुआ लगता. उसकी पूरी जिन्दगी में आने वाले पेंच सुलझे हुए लगते. उस चित्र वाले दुखी-दुखी, संतुष्ट और सुलझे हुए आदमी के सामने चील, गौरैया और तितली तीन जीव रख दिए जाते या तीनों के सिर्फ नाम बतलाकर पूछे जाते या तीनों के चित्र बनाकर पूछे जाते कि बतलाओ, इन तीनों के पंख के बारे में तुम क्या सोचते हो? तब वह पिछले किसी सपने से उसका उत्तर ढूढ़ कर लाता और कहता कि चिल का पंख उसकी ताकत है जिसका इस्तेमाल वह सिर्फ शिकार के लिए करती है. गौरैया का पंख विशुद्ध उड़ने के लिए है. वह इसका उपयोग सिर्फ उड़ने के लिए करती है. उसका पंख उसका जीवन है क्योंकि वह एक चिड़िया है.

और चील?

वह एक शिकारी है.

तितली का पंख एक फरेब है. जो न शिकार के लिए है न उड़ने के लिए. उसका पंख उसकी सुन्दरता है जैसे लड़कियों की नेलपॉलिश होती है. तितली की पंख कोई खुशी है. दो उंगलियो से उसके पंख को पकड़ लो खुशी के बर्क उंगलियों में आ जाते और उन्हे गुस्सा तक नही आता.

इस तरह चित्र में आदमी के सामने रूकी हुई बस का चित्र होता. वह चित्र वाली बस तब कहीं नहीं जाती जब तक चित्र वाला आदमी उसमें चढ़ नहीं जाता.फिर बस कलकत्ता चली जाती.

पीछे छूटे रह गये हरसिंगार के पेड़ से एक गौरैया गाती हुई छुटी रह जाती कि सब के पंख जरूरी होते.



और कहानी खत्म हो जाती.

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लेखक से सम्पर्क : 09681197617 ; arohi.nirmal@gmail.com 

Saturday, January 8, 2011

गौरव सोलंकी की कहानी : कद्दूकस

( आज राजस्थान पत्रिका के बंगलौर संस्करण के प्रथम पृष्ठ पर ही एक नाम दिखा/चमका. लगा कि दिल्ली में ही हूँ क्या? वह नाम, कथालेखन की दुनिया में दूज के चाँद की तरह बढ़ रहे गौरव सोलंकी का था और सूचना इस युवा साथी के आज ही के दिन पुरस्कृत होने की थी. ( राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक सम्मान, कथा के लिये, द्वितीय पुरस्कार ).. यहाँ प्रस्तुत रचना ही पुरस्कृत की गई है. गौरव तथा अन्य पुरस्कृत साथियों को बधाई.. )      
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कद्दूकस


कद्दूकस मुझे बहुत प्यारा लगता था. उसे देखकर हमेशा लगता था, जैसे अभी चलने लगेगा. बहुत बाद में मैंने जाना कि कुछ चीजों के होने का आपको उम्र भर इंतज़ार करना पड़ता है. उस से पहले मैंने रसोई में कई काँच के गिलास तोड़े, बोलना और छिपकर रोना सीखा.

मेरी माँ शहर की सबसे सुन्दर औरत थी और हम सब यह बात जानते थे. मैं भी, जो बारह साल का था और चाचा भी, जो बत्तीस साल के थे. ऐसा जान लेने के बाद एक स्थायी अपराधबोध सा हमारे भीतर बस जाता था. हम सब आपस में घर-परिवार की बहुत सारी बातें करते और उस से बाहर निकल आने की कोशिश करते लेकिन आखिर में हम सो या रो ही रहे होते. मैं अकेला था और मेरे भाई बहन नहीं थे. वे होते तो हम सब एक साथ अकेले होते. हमारा घर ही ऐसा था. बाद में मैंने अख़बारों में वास्तुशास्त्र के बारे में पढ़ा तो पता चला कि सदर दरवाज़ा दक्षिण की ओर नहीं होना चाहिए था और रसोई के पूर्वी कोने में जो लोहे की टंकी रखी थी, जिसमें माँ आटा और मैं अपनी कॉमिक्स रखता था, उसे घर में कहीं नहीं होना चाहिए था.

मैं आठवें बरस में था, जब मैंने आत्महत्या की पहली कोशिश की. मैं रसोई में चाकू अपनी गर्दन पर लगाकर खड़ा था और आँगन से मुझे देखकर माँ दौड़ी चली आ रही थी. वह मेरे सामने आकर रुक गई और प्यार से मुझे उसे फेंक देने को कहने लगी. मेरा चेहरा तना हुआ था और मैं अपना गला काट ही लेना चाहता था कि न जाने आसमान में मुझे कौनसा रंग दिखा या माँ की बिल्लौरी आँखें ही मुझे सम्मोहित कर गईं, मैंने चाकू फेंक दिया. फिर माँ ने मुझे बहुत प्यार किया और बहुत मारा. मगर उसने मुझसे ऐसा करने की वज़ह नहीं पूछी. उसे लगा होगा कि कोई वज़ह नहीं है.

मेरी माँ बहुत सुन्दर थी और वह नाराज़ भी हो जाती थी तो भी उससे ज़्यादा दिनों तक गुस्सा नहीं रहा जा सकता था. उसके शरीर की घी जैसी खुशबू हमारे पूरे घर में तैरती रहती थी और आख़िर पूरे शहर की तरह हम भी उसमें डूब जाते थे.

पूरा शहर, जिसके मेयर से लेकर रिक्शे वाले तक उसके दीवाने थे. वह नाचती थी तो घर टूट जाते थे, पत्नियां अपने पतियों से रूठकर रोने लगती थीं, स्कूलों के सबसे होनहार बच्चे आधी छुट्टी में घर भाग आते थे, बाज़ार बन्द हो जाते थे और कभी कभी दंगे भी हो जाते थे.

यह 2002 की बात है. फ़रीदा ऑडिटोरियम में माँ का डांस शो था. उसमें तीन हज़ार लोग बैठ सकते थे और एक हफ़्ते पहले से ही टिकटें ब्लैक में बिकने लगी थीं. इसी का फ़ायदा उठाकर महेश प्रजापति और निर्मल शर्मा नाम के दो आदमियों ने ब्लैक में फ़र्ज़ी टिकटें भी बेचनी शुरु कर दीं. वे पचास रुपए वाली एक टिकट दो सौ रुपए में बेच रहे थे और इस तरह उन्होंने पाँच सौ नकली टिकटें बेच डालीं.

शो रात दस बजे था. आठ बजते बजते सब लोग ऑडिटोरियम के बाहर जुटने लगे. नौ बजे से एंट्री शुरु हुई. साढ़े नौ बजते बजते तीन हज़ार लोग अन्दर थे और पाँच सौ नाराज़ लोग बाहर. उनमें बूढ़े भी थे, औरतें भी और बच्चे भी. उन्हें आयोजकों ने अन्दर घुसने नहीं दिया, जबकि वे दावा करते रहे कि उन्होंने दो-दो सौ रुपए देकर टिकटें खरीदी हैं.

यह उनमें से अधिकांश की एक दिन की आमदनी थी और मिस माधुरी का शो नहीं होता, तो वे इससे चार दिन का खर्चा चला सकते थे. वे परिवार वाले थे और उन्हें अब अपने बच्चों और पत्नियों के आगे बेइज्जत होना पड़ रहा था. उन्हें न ही महेश प्रजापति दिखाई दे रहा था और न ही निर्मल शर्मा. सिपाही अब उन्हें धकेलकर परिसर से बाहर निकालने लगे थे. वे कह रहे थे कि उनकी बात सुनी जाए. उनकी बात नहीं सुनी गई. तभी भीड़ में से एक ग्यारह बारह साल के लड़के ने यूं ही चिल्लाकर कहा कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति स्टेशन पर गए हैं और बाराखंभा एक्सप्रेस से दिल्ली भाग जाने वाले हैं.

पाँच सात मिनट में ही पाँच सौ लोग यह बात जान गए और वे तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ गए. जबकि उनमें से अधिकांश को नहीं पता था कि बाराखंभा एक्सप्रेस कहाँ से आती है और कहाँ को जाती है और उसका वक्त क्या है. वे सब दस बजे तक स्टेशन पहुँचे. वहाँ उन्हें पता लगा कि बाराखंभा एक्सप्रेस के आने का सही वक्त साढ़े चार बजे है, मगर वह सुबह सात बजे तक आएगी. वह अँधेरी रात थी और स्टेशन मास्टर ने अपने जीवन में पहली बार इतने लोग एक साथ देखे थे. उसे लगा कि ये सब लोग कहीं जाना चाहते हैं और वह ख़ुशी के मारे टिकट खिड़की खोलकर बैठ गया. यह जानकर कि ट्रेन सुबह आएगी, भीड़ आधे घंटे में वापस लौट गई.

जाने से पहले उन्होंने सुबह सात बजे से पहले स्टेशन आने का संकल्प लिया और आठ दस लोगों को रात भर वहीं निगरानी के लिए छोड़ दिया. यह बहुत बड़ी बात भी नहीं थी कि दो सौ रुपए पानी में चले गए थे मगर वह तारीख ही ऐसी थी कि बात बड़ी होती जा रही थी. बाद में जब मैंने पागलों की तरह वास्तुशास्त्र पढ़ा तो जाना कि फ़रीदा ऑडिटोरियम और स्टेशन, दोनों के दरवाज़े उनसे ठीक विपरीत दिशाओं में थे, जिनमें उन्हें होना चाहिए था. साथ ही माँ ने उस दिन लाल रंग की स्कर्ट पहनी थी और वह जब शो में आई थी तो उसने पहले बायां पैर स्टेज पर रखा था.

लाल रंग ख़ून का रंग था और यह हम सब भूल गए थे.

वहाँ जो लोग रुके, संयोगवश आरिफ़, इंतख़ाब आलम, नासिर, जब्बार, सुहैल, सरफ़राज़ के पिता, नवाब अली, शौकत और उसका चार साल का बेटा थे. उन्होंने चने खरीदकर खाए और रात में दो दो बार चाय पी. सुबह पौने आठ बजे ट्रेन आई तो नासिर और शौकत को छोड़कर सब बैठे बैठे सो गए थे. रात वाले दस बीस लोग और आ जुटे थे. कुछ बच्चे भी अपने पिताओं के साथ तमाशा देखने आए थे. ज़्यादातर लोग मिस माधुरी का शो भूल चुके थे और बस निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति को मार पीटकर घर लौट जाना चाहते थे. शौकत को उसी दिन अपनी ससुराल से अपनी बीवी को लाना था और अब वह जल्दी पीछा छुड़ाकर घर लौट जाना चाहता था. वह जब पानी पीने के लिए प्याऊ की ओर गया तो जब्बार की बहन सबीना उसे देखकर मुस्कुराई. वह किसी दूसरी ट्रेन से बनारस जा रही थी और सुबह से स्टेशन पर खड़ी थी.

जवाब में शौकत भी मुस्कुराया. फिर वह बिना कुछ बोले प्याऊ की टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीने लगा. तभी मोहनीश अग्रवाल नाम के एक लड़के ने, जो ट्रेन से उतरकर चाय पी रहा था और जिसने नारंगी साफा बाँध रखा था, समझा कि सबीना उसे देखकर मुस्कुराई है. वह सबीना के पास आकर खड़ा हो गया और बोलने लगा कि नम्बर दे दो और आई लव यू. सबीना घबरा गई और उसने शब्बार पुकारा (उसने शौकत से शुरु किया लेकिन घबराहट के बावज़ूद उसे इतना होश था कि अपने भाई को ही पुकारे). बीस पच्चीस लोग, जिन्हें एक स्कूली लड़के ने रात अपने मन से बनाकर कह दिया था कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति बाराखंभा एक्सप्रेस से जाएँगे, पागलों की तरह स्टेशन और ट्रेन के डिब्बे छान रहे थे. तभी उन्हें सबीना की पुकार सुनी.

सबसे पहले शौकत उसके पास पहुँचा और उसने मोहनीश अग्रवाल को एक थप्पड़ मारा. जवाब में मोहनीश अग्रवाल ने भी शौकत को थप्पड़ मारा. चाय पी रहे उसके दो तीन दोस्त भी आगे आ गए. वे और आगे आ ही रहे थे कि भीड़ ने उन्हें घेर लिया. निर्मल शर्मा भी उसी तरह तिलक लगाए रखता था, जिस तरह मोहनीश अग्रवाल ने लगा रखा था. भीड़ के ज़्यादातर लोगों ने उसे टिकट खरीदते हुए बस एक नज़र ही देखा था, इसलिए उन्हें लगा कि यही निर्मल शर्मा है और इसीलिए सबीना चिल्लाई है. कुछ लोग सबीना की दाद देने लगे और बाकी मोहनीश अग्रवाल और उसके साथियों को मारने लगे. बाद में जो हुआ, वह यह था कि मेरे शहर के सैंकड़ों लोग अचानक स्टेशन पर आ गए. उनके पास पैट्रोल के गैलन थे और लाठियाँ भी. बच्चे भी थे, जो ट्रेन पर पत्थर फेंक रहे थे. उनमें से कोई ऐसा नहीं था, जिसने मिस माधुरी के शो का टिकट खरीदा था. टिकट वाली ठगी के शिकार तो मोहनीश अग्रवाल को पीटकर ही पेट भर चुके थे. वे सब हैरान होकर देख रहे थे कि ट्रेन चल पड़ी है और भीड़ ने एक डिब्बे में आग लगा दी है.

मैं नहीं जानता कि सब ख़त्म कर डालने पर आमादा वह भीड़ अचानक कहाँ से आ गई थी, लेकिन मुझे लगता रहा कि मोहनीश अग्रवाल वह हरकत न करता और जब्बार, शौकत और बाकी लोग उस समय स्टेशन पर न होते तो शायद कुछ भी न हुआ होता. मोहनीश दो चार फ़िकरे कसता और अपनी ट्रेन चलने पर उसमें चढ़ जाता. सबीना कुछ देर परेशान रहती और भूल जाती. जब्बार उस समय किसी की साइकिल का पंक्चर लगा रहा होता और दोपहर में अपने घर जाकर खाना खाकर आधा घंटा सोता. लेकिन यह सब नहीं हुआ. आगे बहुत सी हत्याएँ और पुलिसिया प्रताड़नाएँ थीं. ख़ून के कई हफ़्ते और अमावस सी नफ़रत. बहुत से रफा दफा केस, सच्चे बयान- जो इतनी बार बदले जाने थे कि झूठे हो जाते. मेरी माँ मिस माधुरी के फिर से कई स्टेज शो और मेरा कद्दूकस के चलने का इंतजार, जिसके चक्कर में मैंने दो-तीन बार उंगलियाँ छिलवाईं. आगे आपके लिए एक कहानी थी जिसके खत्म होने पर आप उसे भूल जाएंगे.
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- गौरव सोलंकी
लेखक से सम्पर्क : 09971853451 ; aaawarapan@gmail.com

Friday, January 7, 2011

सात सौ सत्तर लोगों की कैद के बारे में

( कविता के सम्पूर्ण वितान को छूने वाला यह आलेख चन्द्रिका का है. इस आलेख का प्रभाव और इसमें शामिल सूचनायें क्रमश: इस कदर घातक और अनिवार्य हैं कि इसकी ‘चन्द लाईनी’ भूमिका लिखने के मेरे सारे प्रयास असफल रहे..)  

पेशा कुछ नहीं है...

बिनायक सेन के बारे में उतना कहा जा चुका है जितना वे निर्दोष हैं और उतना बाकी है जितना सरकार दोषी है. ९२ पेज के फैसले में तीन जिंदगियों को आजीवन कारावास दिया जा चुका है. अन्य दो नाम पियुष गुहा और नारायण सान्याल, जिनका जिक्र इसलिये सुना जा सका कि बिनायक सेन के साथ ही इन्हे भी सजा मुकर्रर हुई, वरना अनसुना रह जाता. पर जिन नामों और संख्याओं का जिक्र नहीं आया वे ७७० हैं, जो बीते बरस के साथ छत्तीसगढ़ की जेलों में कैद कर दी गयी, इनमें हत्याओं और यातनाओं को शामिल नहीं किया गया है. जिनमे अधिकांश आदिवासी हैं पर सब के सब माओवादी. छत्तीसगढ़ का आदिवासी होना थोड़े-बहुत उलट फेर के साथ माओवादी होना है और माओवादी होना अखबारी कतरनों से बनी हमारी आँखों में आतंकवादी होना. यह समीकरण बदलते समय के साथ अब पूरे देश पर लागू हो रहा है.
सच्चाई बारिश की धूप हो चुकी है और हमारा ज़ेहन सरकारी लोकतंत्र का स्टोर रूम. दशकों पहले जिन जंगलों में रोटी, दवा और शिक्षा पहुंचनी थी, वहाँ सरकार ने बारूद और बंदूक पहुंचा दी. बारूद और बंदूक के बारे में बात करते हुए शायद यह कहना राजीव गाँधी की नकल करने जैसा होगा कि जब बारूद जलेगी तो थोड़ी गर्मी पैदा ही होगी. दुनिया की महाशक्ति के रूप में गिने जाने वाले देश की सत्ता से लड़ना शायद और यकीनन आदिवासियों की इच्छा नहीं रही होगी, पर यह जरूरत बन गयी, कि जीने के लिये रोटी और बंदूक साथ लेके चलना और जंगलों की नई पीढ़ियों ने लड़ाईयों के बीच जीने की आदत डाल ली.  

अब तो बस देश की जनता अपनी जरूरतें पूरी कर रही है. मसलन आदिवासियों को जीने के लिये जंगल की जरूरत है और जंगल को पेड़ों की जरूरत, पेड़ों को उस जमीन की जरूरत जिसकी पीठ पर वे खड़े रह सकें, उस पीठ और जमीन की जरूरतें है कि उन्हें बचाया जा सके उखड़ने और खोदे जाने से और इन सारे बचाव व जरूरतों को पूरा करने के लिये के लिये जरूरी है माओवादी हो जाना. कार्पोरेट और सरकार की जुगलबंद संगीत को पहाड़ी और जंगली हवा में न बिखरने देना. सरकार की तनी हुई बंदूक की नली से गोली निकाल लेना, अपनी जरूरतों के लिये जरूरत के मुताबिक जरूरी हथियार उठा लेना. शहर के स्थगन और निस्पन्दन से दूर ऐसी हरकत करना कि दुनिया के बुद्धिजीवियों की किताबों से अक्षर निकलकर जंगलों की पगडंडियों पर चल फिर रहे हों.

इस बिना पर इतिहास की परवाह न करना कि लिखा हुआ इतिहास लैंप पोस्ट के नीचे चलते हुए आदमी की परछाईं भर है, बदलते गाँवों के साथ अपने नाम बदलना और पुलिस के पकड़े जाने तक बगैर नाम के जीना, या मर जाना, कई-कई नामों के साथ. नीली पॉलीथीन और एक किट के साथ जिंदगी को ऐसे चलाना कि समय को गुरिल्ला धक्का देने जैसा हो. उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के विगत वर्षों के संघर्ष, जिनका माओवादियों ने नेतृत्व किया, जीवन जीने के लिये अपनी अस्मिता के साथ खड़े होने के सुबूत हैं. जिसे भावी प्रधानमंत्री की होड़ में या निर्विरोध चुना जाने वाला, सनसनीखेज यात्रायें करता कांग्रेस का युवा नेता हाल के एक बड़े अधिवेशन में एक तरफ उड़ीसा के आदिवासियों की जीत करार देता है और कहता है कि आम आदमी वो है जो व्यवस्था से कटा हुआ है. तो दूसरी तरफ देश की लोकतांत्रिक संरचना उन्हें माओवादी कहकर जेल में या सेना के शिकारी खेल में खत्म कर रही है.

इस पूरी परिघटना के एक विचारक नारायण सान्याल, उर्फ नवीन उर्फ विजय, उर्फ सुबोध भी हैं इसके अलावा इनके और भी नाम हो सकते हैं जिनका पुलिस को पता नहीं भी हो. पोलित ब्यूरो सदस्य माओवादी पार्टी, कोर्ट के दस्तावेज के मुताबिक उम्र ७४ साल और पेशा कुछ नहीं. बगैर पेशे का माओवादी. शायद माओवादियों की भाषा में प्रोफेशनल रिवोल्यूशनरी कहा जाता है और माओवादी होना अपने आप में एक पेशा माना जाता है. उर्फ तमाम नामों के साथ नारायण सान्याल को कोर्ट में पेशी के लिये हर बार ५० से अधिक पुलिस की व्यवस्था करनी पड़ती है. तथ्य यह भी कि नारायण सान्याल किसी जेल में २ माह से ज्यादा रहने पर जेल के अंदर ही संगठन बना लेते हैं. देश के जेलों में बंद कई माओवादियों के ऊपर ये आरोप हैं और उन्हें २ या तीन महीने में जेल बदलनी पड़ती है. बीते २५ दिसम्बर को चन्द्रपुर जेल के सभी माओवादी बंदियों को नागपुर जेल भेजना पड़ा क्योंकि पूरी जेल ही असुरक्षित हो गयी थी. प्रधानमंत्री का कहना है कि पूरा देश ही असुरक्षित है और माओवादी उसके सबसे बड़े कारक हैं.

लिहाजा बिनायक सेन के आजीवन कारावास पर बहस का केन्द्रीय बिन्दु माओवादी हो रहे देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों व बुद्धिजीवियों की भूमिका है. नारायण सान्याल, कोबाद गांधी, अभिषेक मुखर्जी जैसे बुद्धिजीवियों के माओवादी हो जाने का प्रश्न है. कि आखिर तेरह भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का स्कालर छात्र माओवादी क्यों बना? एक मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़ या पश्चिम बंगाल में आज अपनी भूमिका कैसे अदा करे? क्या यह सलवा-जुडुम की सरकारी हिंसा को वैध करके या फिर इसके प्रतिरोध में जन आंदोलन के साथ खड़े होकर. क्या इन जनांदोलनों को इस आधार पर खारिज किया जा सकता है कि यह माओवादियों के नेतृत्व में चल रहे हैं?

यह खारिजनामा ६ लाख छत्तीसगढ़ के आदिवासी विस्थापितों को भी खारिज करना होगा. जिसे रमन सिंह यह कहते हुए पहले ही खारिज कर चुके हैं कि जो सलवा-जुडुम में नहीं है वो सब माओवादी है और अब सलवा-जुडुम कैंप में गिने चुने ही लोग बचे हैं, बाकी आदिवासी जंगलों में लौट चुके हैं.

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