Tuesday, November 30, 2010

निजार कब्बानी की लम्बी कविता

मनोज पटेल ने अनुवाद का जो बीड़ा उठाया है वह तो काबिले गौर है ही पर जिस लगन और रफ्तार से अनुवाद कर रहें हैं वो हैरतअंगेज है. लगभग रोज ही किसी सुघड़ और सुन्दर कविता का अनुवाद कर रहे हैं उसी शृंखला में निजार कब्बानी की यह प्रेम कविता...

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प्यार की किताब


तुम्हारा प्यार
पराकाष्ठा है प्यार की, गूढ़ से गूढ़तम ;
है इबादत अपने आप में.
जन्म और मृत्यु की तरह
नामुमकिन है इसका दुहराव.
* *
सच है सब जो कहते हैं वे मेरे बारे में ;
प्यार में मेरी शोहरत के बारे में
स्त्रियों के साथ के बारे में जो कहते हैं वे
सच है सब,
लेकिन वे नहीं जानते तो बस यह
कि तुम्हारे प्यार में लहूलुहान हूँ मैं
ईसा मसीह की तरह.
* *
फ़िक्र मत करो, सबसे हसीं
हमेशा मौजूद रहोगी तुम मेरे शब्दों में मेरी कविताओं में.
उम्रदराज हो सकती हो तुम समय के साथ
मेरी रचनाओं में रहोगी मगर यूं ही.
* *
काफी नहीं है तुम्हारी पैदाइशी खूबसूरती
मेरी बाँहों से होकर गुजरना था तुम्हें इक रोज
खूबसूरत से भी ज्यादा होने को.
* *
जब सफ़र करता हूँ तुम्हारी आँखों में मेरी जान,
जैसे सवार होता हूँ किसी जादुई कालीन पर.
एक गुलाबी बादल उठा लेता है मुझे
और फिर एक बैगनी बादल.
चक्कर काटता हूँ तुम्हारी आँखों में प्रिय ;
चक्कर काटता हूँ... पृथ्वी की तरह.
* *
कितनी मिलती-जुलती हो तुम एक छोटी सी मछली से,
डरपोक प्यार में... किसी मछली की ही तरह.
लेकिन हज़ारों स्त्रियों को मारकर मेरे भीतर
तुम बन बैठी हो मलिका.
* *
उतार फेंको अपने कपड़े
सदियों से करिश्मा नहीं हुआ कोई इस धरती पर.
उतार फेंको... निर्वस्त्र हो जाओ,
गूंगा हूँ मैं -
और तुम्हारी देंह जानती है दुनिया की सारी भाषाएँ.
* *
जब प्यार करता हूँ मैं
बन जाता हूँ समय
समय से भी परे.
* *
हवा पर लिखा मैंने
नाम अपने प्यार का.
पानी पर लिखा उसका नाम.
जानता कहाँ था मैं
कि हवा बह जाती है बिना सुने,
और पानी में घुल जाते हैं नाम.
* *
तुम अब भी पूछती हो मेरा जन्मदिन
लिख लो इसे,
जान लो ठीक-ठीक
जिस दिन क़ुबूल किया तुमने मेरा प्यार
उसी दिन हुआ मेरा जन्म.
* *
अगर जिन्न कभी आ जाए
बोतल से बाहर और पूछे
"क्या हुक्म है मेरे आका !
एक मिनट में चुन लीजिए
दुनिया के सारे कीमती हीरे-जवाहरात,"
मैं चुनूंगा सिर्फ तुम्हारी आँखें.
* *
अपने प्यार में पिघला दी मैंने सारी कलमें -
नीली... लाल... हरी...
जब तक कि ढल नहीं गए शब्द.
मैंने फाख्तों के कंगन पर जड़ दिया अपना प्यार
जानता नहीं था
कि दोनों उड़कर चले जाएंगे दूर.
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Wednesday, November 24, 2010

मनोज कुमार झा की नई कवितायें

एक ऐसे समय में जब नाखुदाओं ने यह मान लिया हो कि बेरोजगारी जैसी घातक मुश्किलों पर जितना लिखा जा चुका उसका जिक्र भर काफी है या कि उन तकलीफों को दर्ज करने के नये सारे बिम्ब खो चुके हैं वैसे में मनोज की यह कविता.. बिना पैसे के दिन.... मनोज की तीन कवितायें यहाँ सहर्ष प्रस्तुत हैं..

बिन पैसे के दिन

ऐसे ही घूमते रहना काम माँगते धाम बदलते
पॉलीथीन के झोले के तरह नालियों में बहता
कभी किसी पत्थर से टकराता कभी मेढ़क से
इस कोलतार के ड्रम से निकल उस कोलतार के ड्रम में फँसता

कभी नवजात शिशु की मूत्र-ध्वनि सी बोलता
कि आवाज से सामने बाले की मूँछ के बाल न हिले
कभी तीन दिन से भूखे कौए की तरह हाक लगाता
कि कोई पेड़ दो चार पके बेर फेंक दे

पुजारी को तो यहाँ तक कहा कि आप थाल
में मच्छर भगाने की चकरी रखेंगे तो
उसे भी आरती मानूँगा और मनवाने की कोशिश करूँगा
बस एक बार मौका दे दें इस मर्कट को
कसाईवाड़ा गया कि मैं जानवरों की खाल गिन दूँगा
आप जैसे गिनवायेंगे वैसे गिनूँगा आठ के बाद सीधे दस
हुजूर! आप कहेंगे तो मैं अपने पाँच बच्चों को दो गिनूँगा

रोटी मेरे हाथ की रेखाओं पर हँसती है और
सब्जी मुझसे मेरी कीमत पूछती है
मैं क्या कर रहा हूँ !
काम माँग रहा हूँ या भीख
या उस देश में प्रवेश कर गया हूँ
जहाँ दूर देश से आयी भीख का हिस्सा चुराकर कोई मुकुट पहन सकता है
और जिसके घर का छप्पर उड़ गया
वो अगर कुछ माँगे तो उसकी चप्पल छीन ली जाती है।

इतने लोगों से काम माँग चुका हूँ इतने तरीकों से
कि अब माँगने जाता हूँ तो ये लोग ताड़ के पेड़ पर बैठे
गिद्ध की तरह लगते हैं।
जैसे वेश्याओं को एक दिन सारे मर्द
ऊँट की टाँग की तरह दिखने लगते है.
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त्राहि माम

शीशे आकर्षक दीवारें भी
आवजें आकर्षक सारी
चिपका हुआ स्टीकर कि मूल्य भी आकर्षक
पीने का पानी तक आकर्षक
मैं झेल नहीं पा रहा आकर्षणों का ताप
मेरे थर्मामीटर में इतनी दूर की गिनती नहीं

कई सहश्र पीढ़ियों से झूल रहा हूँ ग्रह-नक्षत्रों के आकर्षणों के मध्य
सबसे कड़ा खिंचाव तो इस धरती की ही
जैसे तैसे निभाता कभी बढ़ाता दो डेग तो कभी लगती ठेस
नाचता शहद और नमक के पीछे

आचार्य ! कौन रच रहा है यह ब्यूह
मुझे बस रहने लायक जगह हो
और सहने लायक बाजार
जहाँ से अखंड पनही लिए लौट सकूँ.
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अकारण

क्या रूकेगी नहीं एक क्षण के लिए यह एम्बुलेंस
कि जान लूँ बीमार कितना बीमार
या मृतक कैसा मृतक
वृद्ध हैं तो कितने दाँत साबूत और बच्चा है तो उगे हैं कितने
कौन उसके साथ रो रहे और कौन दबा रहे हैं पाँव

केाई कारण नहीं, नहीं मैं कोई कारण नहीं ढ़ूँढ़ पा रहा
बस यूँ ही मैं भी धरती के इसी टुकड़े का
रहबैयाऔर एक ही रस्ते से गुजर रहे हम दोनों.

Friday, November 19, 2010

श्रीकान्त की दो नई कविताएँ


श्रीकान्त की नई कवितायें. अपनी कविताओं और विशेषकर इन दो कविताओं में ‘स्मृति’ को बतौर शिल्प श्रीकांत ने बखूबी निभाया है. बृहद और कोमल स्मृतियों का शिल्प हमें किस हद तक जीवन से तथा अपनी कला से तटस्थ बनाता हैं, इसका उदाहरण श्रीकांत की ये नई कवितायें हैं..

साइकिल के कैरियर पर बैठ जाने की मेरी पेशकश

जब से डरने लगा हूँ मरने से
तभी से गढने लगा हूँ यह खयाल
कि धरती जैसे घूम घाम कर आ जाती है
फिर फिर ओस, बारिशों और धूप के महीनों के नीचे
लोग हर रोज दफ्तर से लौटकर घर

किसी न किसी ऐसे ही वृत्त की परिधि पर होंगे हमारे जीवन भी
इस बार का हमारा होना भी बार बार के चक्रीय होने के बीच
एक बार का होना होगा
हमारे साथ हमारे साथ की चीजें भी होंगी ऐसे ही कई बार

ऐसे होने की बहुलता में
बस एक बार एक जगह पर कुछ अलग कर देना
ग्यारहवीं की उस देर शाम तक चली अर्थशाश्त्र की कक्षा के बाद
जब तुम जा रही होगी अकेले अपने घर की तरफ के वीरान रास्ते पर
साइकिल के कैरियर पर बैठ जाने की मेरी पेशकश को ठुकराना मत
फिर, अगर हो सके तो कुछ दिन मेरी ही मर्जी से गुजार देना
(दो चार दिन ही सही
कि तुम्हारे पास तो न जाने और कितनी दफा की जिंदगियों के
न जाने और कितने दिन होंगे,
ऐसे में मेरे लिए बस दो ही चार दिन)

आगे, जैसा कि विज्ञान कहता है
सूर्य के चारो ओर बनी अपनी कक्षा से विचलित हो जाने के बाद
पृथ्वी का सबकुछ बदल जाएगा
अगर तुमने कर दिया मेरा बस इतना सा काम
फिर मुझे यकीन है कि हम भी बदल जाएंगे
लेकिन तुम करोगी, इस पर यकीन फिर भी नहीं
फिर भी एक गुजारिश
ठीक वैसे ही, जैसे किया था उस वक्त
कि उधर ही तो जा रहा हूँ
बैठ जाओ पीछे.


बाँस से बनी एक फेंस की याद

अभी अभी बाँस से बनी एक फेंस याद आ रही है
उसके पार से एक घर उसका ओसार
लाचार पितामह और पैरों को
या शायद दर्द को ही
बाँध देने वाली रस्सी याद आ रही है

कडाके की ठंड के नाते विद्यालयों के बंद रहने की घोषणा करता
सुबह के सात बीस का समाचार,
फफूँद और
हथेलियों में भरा जा सकने वाला खरबूज सा चेहरा
याद आ रहा है
नहीं लिखा गया प्रेम पत्र
अनछुई रह गयी छातियाँ
याद आ रही हैं

अनगिन रातों के पीछे से याद आ रही है एक रात
अट्ठानबे और निन्यानबे के वर्षों में
सत्तर और अस्सी के जमाने का होता जिक्र,
रेडियो और
सुरीली लता के गानें
दूरदर्शन पर पहली बार आ रही शोले और
छ्ब्बीस जनवरी की लगभग महत्वपूर्ण तारीख
तिरंगा के सम्वाद कि
‘हम सूरमा नहीं चुराते आंखे ही चुरा लेते है
ताकि सूरमा लगाने की ‘जुरुरत’ ही ना पड़े’
और राजकुमार का मर जाना
राबिन सिंह के भूले संघर्ष याद आ रहे हैं

अभी अभी ली जा रही साँस का आक्सीजन
जैसे इन्हीं में किसी के पास छूट गया है,
अभी अगर नहीं पहुँचा उनमें से किसी के भी पास
तो लगता है मर जाउँगा,
फिलवक्त कोई राह नहीं सूझ रही
और मौत की याद आ रही है...

Monday, November 15, 2010

नाओमी शिहाब न्ये की कवितायेँ


हम जब यह मान कर चल रहे होते है कि ‘अ’ ने जो लिख दिया वो तो अंतिम महान कृति है और उसे ही दुहरा तिहरा के पढ रहे होते है तभी अचानक से कोई एक रचनाकार सामने आता है और चमत्कृत कर देता है..जैसे नाओमी शिहाब न्ये....

1952 में जन्मीं नाओमी शिहाब न्ये फिलीस्तीनी पिता और अमेरिकी माँ की संतान हैं. खुद को घुमंतू कवि मानने वाली नाओमी जार्डन, येरुशलम से होते हुए अब टेक्सास में रह रही हैं. वे Organica पत्रिका की नियमित स्तंभकार और Texas Observer की कविता संपादक भी हैं. इनके कई कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें प्रमुख हैं : 19 Varieties of Gazelle: Poems of the Middle East, A Maze Me: Poems for Girls, Red Suitcase, Words Under the Words, Fuel, and You & Yours...

अनुवाद, जाहिर सी बात है, मनोज पटेल का है..

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निगाहों की जांच


D है हताश.
और B चाहता है छुट्टी
रहना चाहता है किसी विज्ञापन-पट पर,
होकर बड़ा और बहादुर.
E नाराज है R से कि उसने धकेल दिया है उसे मंच से पीछे.
छोटा c बनना चाहता है बड़ा C मुमकिन हो अगर,
और P खोया हुआ है ख़यालों में.


कहानी, कितना बेहतर है कहानी होना.
क्या तुम पढ़ सकती हो मुझे ?


हमें रहना पड़ता है इस सफ़ेद पट पर
साथ-साथ एक -दूसरे के पड़ोस में.
जबकि होना चाहते थे हम किसी बादल की दुम
जहाँ एक हर्फ़ तब्दील होता दूसरे में,
या चाहते थे गुम हो जाना किसी लड़के की जेब में
फाहे की तरह बेडौल,
वही लड़का जो भैंगी आँखों से पढ़ा करता है हमें
लगता है उसे कि हम में छिपा है कोई गूढ़ सन्देश.
काश कि उसके दोस्त बन पाते हम.
आजिज आ चुके हैं इस बेमतलबपन से.


मशहूर


मछली के लिए मशहूर होती है नदी
तेज आवाज़ मशहूर होती है खामोशी के लिए
जिसे पता है कि वह ही वारिस होगी धरती की
इससे पहले कि कोई ऐसा सोचे भी.


चहारदीवारी पर बैठी बिल्ली मशहूर होती है चिड़ियों के लिए
जो देखा करती हैं उसे घोंसले से.


आंसू मशहूर होते हैं गालों के लिए.


तसव्वुर जिसे आप लगाए फिरते हैं अपने सीने से
मशहूर होते हैं आपके सीने के लिए.


जूते मशहूर होते हैं धरती के लिए,
ज्यादा मशहूर बनिस्बत सुन्दर जूतों के,
जो मशहूर होते हैं फकत फर्श के लिए.


उसी के लिए मशहूर होती है वह मुड़ी-तुड़ी तस्वीर
जो उसे लिए फिरता है अपने साथ
उसके लिए तो तनिक भी नहीं जो है उस तस्वीर में.


मैं मशहूर होना चाहती हूँ घिसटते चलते लोगों के लिए
मुस्कराते हैं जो सड़क पार करते,
सौदा-सुलफ के लिए पसीने से लथपथ कतार में लगे बच्चों के लिए,
जवाब में मुस्कराने वाली शख्स के रूप में.


मैं मशहूर होना चाहती हूँ वैसे ही
जैसे मशहूर होती है गरारी,
या एक काज बटन का,
इसलिए नहीं कि इन्होनें कर दिया कोई बड़ा काम,
बल्कि इसलिए कि वे कभी नहीं चूके उससे
जो वे कर सकते थे...


पोशीदा


अगर आप फर्न का एक पौधा
रख दें किसी पत्थर के नीचे
तो अगले ही दिन हो जाएगा यह
तकरीबन गायब
गोया पत्थर निगल गया हो उसे.


अगर आप दबाएँ रखें किसी महबूब का नाम
बिना उचारे अपनी जुबान के नीचे
यह बन जाता है खून
उफ्फ़
वो हल्की खींची गई सांस
पोशीदा
आपके लफ़्ज़ों के नीचे.


कोई कहाँ देख पाता है
वह खुराक जो पोसती है आपको.

Saturday, November 13, 2010

मनोज कुमार झा की तीन कवितायें

युवा कवि मनोज कुमार झा की कविताओं मे यो तो लगभग सारा ही कुछ प्रशंसनीय है परन्तु सर्वाधिक पसंद है - इनका बिम्ब विधान। शोरगुल मे मनोज का यकीन कम है। यहाँ दी जा रही तीनो कविताएं पूर्व प्रकाशित है और जल्द ही हम मनोज की नितांत नई कविताओं को लिए दिए हाजिर होंगे....विज्ञान के छात्र रहे मनोज कविता करने के अलावा समकालीन चिंतको को पढ़ने और उन्हें अनूदित करने का जहीन काम भी लगातार कर रहे है। दरभंगा के एक गाँव शंकरपुर मे रहते हैं। कवि से संपर्क: ०९९७३४१०५४८; ॥">jhamanoj100@gmail.com॥

शुभकामना

यह पार्क सुंदर है सांझ के रोओं में दिन की धूल समेटे
सुंदर है दाने चुग रहे कबूतर
बच्चों की मुट्ठियां खुलती सुंदर, सुंदर खुलती कबूतर की चोंच
मैं भी सुंदर लगता होऊंगा घास पर लेटा हुआ
छुपे होंगे चेहरे के चाकू के निशान

आंख की थकान ट्रक पर सटे डीजल
के इश्तिहार में सुंदरता ढ़ूंढ़ती है
जैसे घिस रहे मन भाग्यफल के
झलफल में ढ़ूंढ़ते हैं सुंदर क्षण
शुभ है कि फिर भी सुंदरता इतनी नहीं
सजी कि कोढ़ियों की त्वचा प्लास्टिक
की लगे
वहां कई जोड़े बैठे हुए और किसी ने नहीं देखी अभी तक घड़ी
उम्मीद है इनके प्रेम की कथा में नहीं शूर्पणखा के कान
अब वहां पक रहे जीवन का उजास है चेहरों को भिगोता
कि हवा लहरी तो सहज हहाए हैं बांस
उम्मीद कि कोई भी चुंबन किसी की हत्या की सहमति का नहीं ।


कि

तो ठीक है पुत्र
चलो काट देते हैं इस वृक्ष को
कि अब तो तुम्हें ही रहना यहाँ
कि इस पर सुसताते पक्षियों के पंख झरते हैं
घुड़साल की छत पर
कि मैं कहीं और किसी वन में ढ़ूंढ़ लूँगा
इसका समगोत्र
कि इस वृक्ष के साथ रहते-रहते मैंने भी
सीख लिया है कंधों पे कोयलों को बिठाना
किन्तु उतरो घोड़े से धरती पर तो एक बात रखूँ
कि पता नहीं तुम सुन रहे कि नहीं
कि घोड़े तो दौड़ते-दौड़ते थककर सो लेते खड़े-खड़े घुड़सवार नहीं
कि कभी-कभी आदमी चाहता है मात्र एक चटाई और अश्वत्थामा मांगता मृत्यु
कि कभी-कभी कुशल धावकों को भी
कठिन हो जाती फेफड़े भर हवा



टूटे तारों की धूल के बीच

मैं कनेर के फूल के लिए आया यहाँ
और कटहल के पत्ते ले जाने गाभिन बकरियों के लिए
और कुछ भी शेष नहीं मेरा इस मसान में

पितामह किस मृत्यु की बात करते हो
जैसा कहते हैं कि लुढ़के पाए गए थे
सूखे कीचड़ से भरी सरकारी नाली में
या लगा था उन्हें भाला जो किसी ने जंगलीसूअर पर फेंका था
या सच है कि उतर गए थे मरे हुए कुँए में भाँग में लथपथ

सौरी से बँधी माँ को क्या पता उन जुड़वे
नौनिहालों
कीउन दोनों की रूलाई टूटी कि तभी टूट गए स्मृति के सूते अनेक
वो मरे शायद पिता न जो फेंकी माँ की पीठ पर
लकड़ी की पुरानी कुर्सी
माँ ने ही खा ली थी चूल्हे की मिट्टी बहुत ज्यादा
या डॉक्टर ने सूई दे दी वही जो वो पड़ोसी के
बीमार बैल के लिए लाया था

विगत यह बार-बार उठता समुद्र
और मैं नमक की एक ढ़ेला कभी फेन में घूमता
तो कभी लोटता तट पर.

Monday, November 8, 2010

निजार कब्बानी की कविता : मैं जानता था


निजार कब्बानी की यह कविता उन खामख्यालियों को सलीके से दुरुस्त करती है जो यह माने बैठे हैं, ना जाने कैसे ki, निजार सदा सर्वदा से प्रेम ke असंभव कोमल और अब तक विलुप्त ही रहे आये पक्ष ke कवि हैं. सुसंयोग ही है ki इस कविता ke अनुवादक मनोज पटेल ने अपने ब्लॉग 'पढ़ते पढ़ते' पर चल रही "उसने कहा thaa" seerij ke अंतर्गत निजार कब्बानी ke ही कोट लगाए हैं...
मैं जानता था : निजार कब्बानी की कविता
मैं जानता था
कि जब हम थे स्टेशन पर
तुम्हें इंतज़ार था किसी और का,
जानता था मैं कि
भले ही ढो रहा हूँ मैं तुम्हारा सामान
तुम करोगी सफ़र किसी गैर के संग,
पता था मुझे
कि इस्तेमाल करके फेंक दिया जाना है मुझे
उस चीनी पंखे की तरह
जो तुम्हें गरमी से बचाये हुए thaa .
पता था यह भी
कि प्रेमपत्र जो मैनें लिखे तुम्हें
वे तुम्हारे घमंड को प्रतिबिंबित करने वाले
आईने से अधिक कुछ नहीं थे .
**
फिर भी मैं ढोऊंगा
सामान तुम्हारा
और तुम्हारे प्रेमी का भी
क्योंकि नहीं जड़ सकता
तमाचा उस औरत को
जो अपने सफ़ेद पर्श में लिए चलती है
मेरी ज़िंदगी के सबसे अच्छे दिन .
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