Tuesday, July 13, 2010

लोर्का की कविता: प्रेसिओसा और हवा का झोंका

फेदेरिको गार्सिया लोर्का: विश्व कविता का अद्वितीय नाम. (5 जून 1898 – 19 अगस्त 1936) जितनी कम उम्र में कविता की 14 किताबें, 18 नाटक और 'ट्रिप टू द मून' फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी. इनकी मृत्यु पर कहने वाले तो बड़ी कला से बहुत कुछ कह जाते हैं पर जिस तरीके से इनकी हत्या हुई, उसे जानकर यह अन्दाजा भी लगाना मुश्किल है कि यह महाकवि उन दिनों कैसे एकांत और निर्वासन में धकेल दिया गया होगा. मैं साथियों से यह निवेदन करूंगा कि इनकी जीवन गाथा एक बार जरूर पढ़ें. अन्धराष्ट्रवाद हमसे क्या क्या छीन लेता है...

मेरे लिये यह बेइंतिहा खुशी की बात है कि इतने महान कवि की कविता अपने ब्लॉग पर लगा रहा हूँ..

1924 – 27 के बीच लिखी इस कविता की नायिका 'प्रेसिओसा' दुनिया के पहले आधुनिक उपन्यासकार कहे जाने वाले 'मिगेल दे सर्वान्तेस' की रचना 'ला गितानिल्या' की एक पात्र है. वह एक किशोर उम्र की खूबसूरत बंजारन है जो एक बुढ़िया के साथ रहती है और उन्मुक्त प्रेम करती है. वैसे 'प्रेसिओसा' का शाब्दिक अर्थ 'बहुमूल्य' भी होता है.



प्रेसिओसा और हवा का झोंका

(दामासो आलोंसो के लिये)

अपनी डफली बजाती हुई
चली आ रही है प्रेसिओसा,
कल्पवृक्षों से सजी,
चमकती रहगुजर से।
दूर उठी बहुत पुरानी कोई धुन और
फैल जाती है खामोशी धुन्ध की मानिन्द
मछलियों की गन्ध से लिपटी रात में
मचलता हुआ समुद्र
गीत गाता है.
पर्वतों की धवल चोटियों की सुरक्षा में
उनींदे वे सिपाही, वहाँ
जहां अंग्रेजों की रहनवारी है।
समुद्री बंजारे
बिताने के लिये
अपना खुश और खाली वक्त
बनाते हैं कुंज,
समुद्री शंख
और चीड़ की हरी टहनियों से।
....................................................................................

अपनी डफली बजाती हुई
आती है प्रेसिओसा।
उसे देखते ही उठ बैठता है
कभी न सोने वाला हवा का आलसी झोंका।

आशिर्वचनओं की बरसात करने वाले,
बांसुरी की मधुर तान में खोये,
नग्न,
संत किस्टोफर,
देखते हैं उसे, अचानक.

"लडकी, मुझे उठाने दे अपने वस्त्र
ताकि देख सकूं तुम्हें।
मेरी बुजुर्ग उंगलियों पर खिल जाने दे
अपने गर्भ का नीला फूल।"

प्रेसिओसा फेंक देती है अपनी डफली
और भागती है बेतहाशा।
हवा का शिकारी झोंका करता है पीछा
जलती तलवार लिये।

समुद्र समेटता है अपनी फुसफुसाहटें।
पीले पड़ जाते हैं जैतून के सदाबहार पेड़।
गाने लगती हैं
परछाईं की बाँसुरी
और बर्फ की सपाट सिल्लियां


प्रेसिओसा,
भाग, प्रेसिओसा
कि तुम्हें धर लेगा हरे रंग का झोंका
भाग, प्रेसिओसा
भाग !
देख, किधर से आया वो
अपनी लपलपाती जीभ के साथ
ढलती उम्र का विलासी संत।

.....................................................................................

प्रेसिओसा
भयभीत,
घुसती है उस घर में,
चीड़ के पेड़ों के पार
जहां रहता है वह अंग्रेजी राजदूत।

उसकी चीख से आतंकित
निकलते हैं तीन रक्षक,
उनके लबादे चुस्त,
टोपियां उनकी मंदिरों जैसी।

अंग्रेज उसे देता है
दूध का गर्म प्याला,
और पैमाने भरा ज़िन
प्रेसिओसा जिसे नहीं पीती।

और जब वह सुना रही होती है रोकर,
उन्हें अपनी दास्तान
हवा का गुस्सैल झोंका,
काटता रहता है
स्लेट की खपरैलें।
.............................

श्रीकांत का आभार जो इस जटिल कविता का सरस अनुवाद किया! यह सूचित करना जरूरी है कि लोर्का की कविताओं का अनुवाद कठिनतम से भी कठिन कार्य है. यहाँ तक कि उन्हे पढ़ना भी. इनके बिम्ब और काव्य संरचना महान कवि नेरुदा की तरह आसान नहीं होती. अभी जो युवा सम्वाद चला उसमें जब श्रीकांत अपनी राय रख रहा था तो कुछ निखट्टू इसे यह सलाह दे दे के मरे जा रहे थे कि सिर्फ और सिर्फ (कुछ निर्जीव) लिखने पढ़ने पर ही ध्यान दो. अब जब यह सकारात्मक सम्वाद करते हुए महफिल लूट लाया और इतनी जटिल कविता का अनुवाद भी कर लाया तब भी वे, सलाहों के देवता, अभी फेसबुक फेसबुक ही खेल रहे हैं. श्रीकांत का अनुवाद कार्य लगातार जारी है.

Thursday, July 8, 2010

‘शापित एकांत’ सीरिज

यह सूरज की कविता है. उसने “शापित एकांत” नाम से कविताओं की यह सीरिज शुरु की है. हालांकि एकांत-वेकांत मुझे भी अच्छे नही लगते पर जो नाम उसने चुना है, वो ही कभी इसे परिभाषित भी करेगा.


अलविदा के लिये


अलविदा के लिये उठते हैं हाथ
थामने हवा में बाकी बची देह-गन्ध
नमक के कर्जदार बनाते पसीने और
याद से भींगे होठों के चूम
(या उनकी भी याद ही)

अलविदा के लिये
तुमसे भी जरूरी हों कई काम
(?)
झूठ है सफेद जो बोले जाने हैं
यादें चींटियों की कतार से लम्बी
भूलना जिन्हे जीवन लक्ष्य
होगा एकसूत्रीय

वापसी की रूखी धुन शामिल होती
हो अलविदा में तो आता है रंग
आती है गूँजती पुकार

सोमवार को धकेल
आने को आतुर रहता है
मेरे जीवन का हर मंगलवार
सारे बुध करते रहते हैं मंगल के
बीतने का बोझिल इंतज़ार

अलविदा, अलविदा

डोलते हाथों और काँपती उंगलियों से पहले
अलविदा के वक्त चाहिये एक मनुष्य
जीवन में शामिल
जिसकी आंखों में बचे रहे मेरे हाथ
बचे रहे कुछ सिलसिले जो उसी से
सम्भव हुए
बचा रहूँ मैं
इंसान की तरह


कवि से सम्पर्क: soorajkaghar@gmail.com

Monday, July 5, 2010

सूरज की नई कविता : पहला सफेद बाल

आज अचानक दिखा
पहला सफेद बाल
जैसे दिखी थी तुम
जीवन के अन्धेरे दिनों में

कुन्देरा नही पंकज आये
याद तुम्हारी मेरी आत्मा में
छूटी हुई, धरी हुई हंसी
पंकज से न मिल पाना
आया याद कितना कुछ

सुगन्धियों से शेष इस जीवन में
मैं खुद को दिखा उन तमन्नाओं की
चौखट फेरते,जो रह गई थीं,
इच्छायें
छूटी हुई, सांस की तरह बजती हुई

कामनाओं की अकूत दौलत लिये देखता हूँ
आईने में खुद को सालों पार
सारे ही सफेद बाल
जीवन जितने कम
यादों जितनी बिखरे
बाल जिन्हे तुमने अपनी उंगलियों मे लिया था
जब मैं पहली बार रोया था तुम्हारे सामने
तुम्हारे बाद
मेरा जीवन मेरी परछाईयों ने जिया
सुख गायब हुए अजीज काले रंग की तरह


पहला सफेद बाल देख चुका हूं
आज ही अनगिन बार
मौजूद थे सारे कारण होने के उदास
पर सफेद बाल ने जिम्मेदारी का सुन्दर
बोझ डाल दिया
पहला यह सफेद बाल ही लाया ख्याल
तुम जहाँ भी रहो सुखी रहो
दुनिया सुन्दर हो जाये
कम हो जाये मेरा गुस्सा
(तुम्हारा भी)

मैं आज धीरे धीरे हंसा
धीरे धीरे ही लिये निवाले
चुस्कियों में बिताई चाय
तुम्हे कई बार सोचा
घर तीन दफे फोन किया
(तुम्हे चार दफे पर नम्बर...)

इस धवल केश ने अकेले ही दम जलाये
आत्मा के उन कमरे के कम रौशन दिये
जहाँ अधूरी ख्वाहिशे लेटी
थी उदास (.....वो भी बाईं करवट)
उनके लिये रोया जरूर
जरा भी नही झल्लाया पर
तुम्हे नही मना सका
उन्हे मनाया पर

अब अधूरी हसरतें ही साथिन
अब अधूरा ही
होउंगा मैं
पूरा.

............

कवि से सम्पर्क: soorajkaghar @gmail.com

कविता की शुरुआती पंक्तियों में क्रमश: मिलान कुन्देरा(गद्य रचनाकार) और पंकज चतुर्वेदी(युवा कवि) का जिक्र है. श्री पंकज जी ने भी इस विषय पर एक सुन्दर कविता रची है.

Friday, July 2, 2010

कुम्भकर्ण का विरोध पत्र

तहलका के पठन पाठन अंक में साहित्यिक संसार के आदरणीय बुजुर्गों ने जिस प्रतिबद्धता और जिस ताकत से समूची युवा उम्र, समूची युवा रचनाशीलता को नकारा है वो दु:खद है. पहले लगा कि जीवन में कुछ भी नही करने वालों की राय मान ले और इन सम्माननीय बुजुर्गों की बातों को दरकिनार कर अपने में मगन रहें. फिर अपना ही मन धिक्कारा कि क्या कोई भी कुछ भी बोल सुन के चला जायेगा और हम अपने व्यस्त और ‘महत्वपूर्ण’ होने के तथाकथित भ्रम के कारण चुप रहेंगे? यही सब सोच विचार कर मैने अपनी यह प्रतिक्रिया ‘तहलका’ को दी है. यह जानते हुए कि यही लोग गुरुजन हैं, इनसे ही सीखा है कि गलत का प्रतिरोध करो. खास कर ज्ञानरंजन जी और काशीनाथ जी की कहानियों से तो पढ़ने लिखने की शुरुआत ही हुई. पर जीवन कभी कभी ऐसे मुहाने पर ला छोड़ता है कि रास्ते चुनने पड़ते हैं. इसलिये ही यह विनम्र विरोध पत्र:

कुम्भकर्ण का विरोध पत्र

तहलका द्वारा साहित्य पर केन्द्रित अंक का स्वागत. साथ ही तहलका का आभार, जिसके जरिये हमें युवा कथाकारों की रचानाओं और रचनाशीलता पर हिन्दी कथाजगत के बुजुर्गों की महत्वपूर्ण राय तथा एक जैसे ‘सुविचार’ जानने को मिले. युवा पीढ़ी की आलोचना होनी चाहिये,अक्सर लोग यही करते हैं, पर क्या उस आलोचना की भाषा की कोई मर्यादा नही होनी चाहिये? बुजुर्गियत की अचूक और कुठाँव मार झेल रहे इन अग्रज कथाकारो की बात और भाषा को सच मान लें तो कोई तर्क नही बचता जिसे आधार बना कर युवा लिखते रहें. अगर दिनेश कुमार द्वारा सम्पादित उस लेख का भरोसा कर लें तो हम युवाओं को अब तक अपने लिखे के अपराध का प्रायश्चित करना होगा. तानाशाह बन जाने की इच्छा पाले इन बुजुर्गों की तमन्ना पूरी करने के लिये क्या कहानी लिखना छोड़ देना ही कामचलाउ सजा होगी या कहानी के इन जमींदारों के महल के आगे हमारे आत्मदाह ही पर्याप्त होंगे – इसे जब तक कोई पता लगाये, तब तक मैं इनके महान विचारों के दूसरे कोने अँतरे खंगालता हूँ.

विश्वनाथ जी का यह कहना कि नये रचनाकार एक जैसे रच रहे हैं, बहुत गहरे आशय देता है. इनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर कहने की हिमाकत तो मैं नही कर सकता पर भैंस का ही उदाहरण लें तो कह सकते हैं सारी भैंसे,अपने झुंड में, हमारे लिये तो एक जैसी ही होती हैं पर जो ग्वाले हैं, जिन्होने अपना जीवन दूध व्यवसाय को समर्पित कर दिया है, जो बीसियों साल से अपनी साईकिल पर दूध के बाल्टे रामनगर से बनारस लाते है, रोज, बिला नागा, वो बन्धु दूर से देख कर ही बता सकते हैं कि अमुक भैस की क्या खासियत है और तमुक की क्या? यह दरअसल ‘इंवॉल्वमेंट’ कहलाता है. जैसा माहौल तैयार हो चुका है उसमें आसानी से त्रिपाठी जी मेरी बात का बुरा मान जायेंगे. उनके चमचे उन्हे मेरे खिलाफ भड़कायेंगे पर वो अगर अपनी आत्मा से बात करें तो पायेंगे कि उन्होने सबकी कहानियाँ पढ़ी ही नही है. और पढ़ी है तो उन्हे बताना था कि यह एक-सा पन किस किस कहानियों में उन्हे मिला.

इनकी ‘नंगातलाई का गॉव’ पढ़ कर खासा प्रभावित हुआ और एक कार्यक्रम में इन्हे सुनने गया. कार्यक्रम हजारी प्रसाद द्विवेदी पर था जो, सुनने में ही भर आता है कि, इनके गुरु थे. हजारी प्रसाद जी के सारे उपन्यास हमने पढ रखे हैं और आज तक यह समझ ही नही पाए कि अपने पूरे जीवन में चालीस से पचास कहानियाँ भी नही लिखने वाले ‘महान’ बुजुर्गों ने हजारी प्रसाद जैसे रचनाकार को किस चालाकी से पूरे परिदृश्य से ही गायब कर दिया है? उम्मीद थी कि त्रिपाठी जी इस चालाकी के खिलाफ बोलेंगे पर वो पूरी गोष्ठी में यही बोलते रह गये कि हजारी प्रसाद जी की धर्मपत्नी द्वारा बनाये गये दाल,भात और चोखे का स्वाद कितना असाधरण होता था. उनके हाथ का अचार कितना अच्छा होता था. तालियाँ, जैसा कि उनके बजने की रवायत है, बजती रहीं.

आप स्वाद में इस कदर उलझे पड़े है सर जी कि आपको पता ही नही - हम उन कहानीकारों की श्रेणी से नही आते जो टारगेट बना कर एक कहानी स्त्री विमर्श पर, अगली कहानी दलित विमर्श पर और फिर अगली कहानी साम्प्रयादियकता पर(जिसमें यह निश्चित है कि वो प्रेम कहानी ही होगी और हिन्दू बहुलता का ख्याल रखते हुए पुरुष पात्र हिन्दू होगा तथा स्त्री माईनॉरिटी ग्रुप से होगी, इसे गदर सिंड्रोम कहते हैं, जिसे पढ़ते हुए हिन्दू और ‘सॉफ्ट हिन्दू’ आँख मूँद मूँद कर यह सोचते और सोच कर खुश हो लेते है कि गनीमत है जो मुसलमान नायक नही है वरना वो हिन्दू की लड़की के साथ यह सब करता...).सर जी, स्त्री हमारी कहानियों में प्रमुखतम पात्र के तौर पर आती है. वह स्त्री अपने सारे निर्णय खुद लेती है. ऐसे ही दलित भी आयेंगे और जब आयेंगे तो सवर्ण कुकर्मियों के लिये विलाप से अलग दूसरा कोई चारा नही बचेगा. आपको हमारे लेखन पर पछताने की जरूरत नही है जैसा कि श्रद्धेय कथाकार काशीनाथ जी इन दिनों लगातार पछता रहे हैं.

डॉक्टर काशीनाथ जी की हालत उस अमीर इंसान की हो गई है जिसकी दी हुई खराब कमीज को उसके गरीब मित्र ने साफ सुथरा कर, इस्त्री लगा पहन लिया था. अब वो दोनो जहाँ भी जायें, लोग गरीब मित्र के कमीज की तारीफ कर दें तब फिर बेचारा अमीर मित्र तुरंत कहता- ये कमीज मैने ही इसे दी है. इनके पछतावे से हम डरे हुए हैं. अगर किसी बुजुर्ग लेखक को अपने लिखे का इस कदर पश्चाताप हो तो हमारा दु:ख जायज है. जिसने पूरा जीवन, कम से कम कहा तो यही जायेगा, रचते हुए गुजार दिया उसे एकाएक अपने लिखे पर शक होने लगे तो उस बेचारे लेखक के लिये कितनी दु:ख की बात है. हम नही चाहते कि आप अपनी दूसरी रचनायें भी दुबारा पढ़े ताकि आपको यही समस्या अपनी कहनियों के बारे में घेर ले. रही बात आपके वागर्थ वाले लेख की तो कहाँ फंसे पड़े हैं महाराज? किसी के लिखने से कोई कहानीकार स्थापित होता है भला! आपके साथ ही ज्ञानरंजन जी भी लिखने वाले थे,पर उन्होने नही लिखा तो क्या हमने लिखना बन्द कर दिया? पर आपको यह जरूर बताना चाहिये कि आप कौन सी विज्ञापन विधि से अपरिचित थे जिससे हम परिचित हो गये हैं? ये कोई अन्धा भी जानता है कि जिस दौर में आप लोग साहित्य साहित्य खेल रहे थे वह हिन्दी साहित्य का स्वर्णिम दौर था और जिसे आप सब ने यों ही बीत जाने दिया. आपके समय पत्रिकाओं की लाख प्रतियाँ छपती थी, दो घंटे की मास्टरी के बाद लिखने के नाम भर पर उस समय के लोगों को कितना अफराद समय मिलता था?

हम पर बाजार का कोई दबाव नहीं है गुरुवर. जब भी यह खबर मिलती है कि हम युवा रचनाकारों की किताबों के तीसरे या चौथे संस्करण आ रहे हैं तो मुझे हैरानी इस बात की होती है कि क्या इतने पाठक हैं? पाठक के कम होते जाने का जो सिलसिला, जाने कैसे, हिन्दी कहानी पर आप लोगों के शासन काल से शुरु हुआ वो बदस्तूर जारी है और इस सच से हम खूब वाकिफ हैं. बाजार का असर तो तब होता जब पाठक बढ़ते. उल्टे इससे हमें यह सबक मिला कि जो भी लिखो ईमानदारी से लिखो क्योंकि जो पाठक ऐसे समय में भी साहित्य के साथ है वो बहुत जेनुईन है, वो समझदार है, उसके कंसर्ंस हवाई नही है. हमारा पाठक दिन में तारे देखना पसन्द नही करता, उसे ठोस सच्चाईयॉ जानने का जुनून है. रही अपनी बात तो अगर हम युवा आपको अपना कलेजा चीर के भी दिखा दें तब भी आपको यकीन नही होगा कि सिर्फ और सिर्फ अच्छी रचना ही हम सबका मकसद है. आपको भरोसा वैसे ही नही होगा जैसे किसी धार्मिक को इसका भरोसा नही होता कि ईश्वर नही है, जैसे किसी अफसर को इस बात का भरोसा नही होता कि घूस लेना अपराध है. मुझे उदय प्रकाश की डिबिया याद आ रही है.

हमारी इस चिंता से जाहिर होता है कि हम मनुष्य विरोधी नही है जैसा कि ज्ञानरंजन जी ने सत्य उद्घाटित करने के अन्दाज में बताया है.. पर ये हमारे इतने प्रिय कथाकार हैं कि एक बार तो ‘बेनेफिट ऑफ डॉऊट’ इन्हे देना ही होगा और इनकी स्थापना माननी होगी कि यह सचमुच की नई और युवा पीढ़ी मनुष्य विरोधी है.. पर इसे मानते ही दु:खद समस्या खड़ी होती है.क्योंकि यह विश्वास करने का कोई कारण नही है कि ज्ञान जी को यह ‘रिवेलेशन’ अचानक से हुआ होगा, पहल जैसी अनोखी पत्रिका के सम्पादक की वैज्ञानिकता पर जायें तो इन्हे ये बात हमारी रचनाओं को इधर उधर पढ़ कर पहले ही मालूम पड़ गई होगी कि यह पीढ़ी हिंसक और मनुष्य विरोधी है. फिर भी आपने हमारी कहानियाँ अपनी पत्रिका पहल में प्रकाशित किया. क्यों? क्यों फिर आपने पहल जैसी नामधारी और प्रतिबद्ध पत्रिका के पाठकों, जिसके पाठक, जिनमें मैं भी एक हूँ, पहल को एक किताब का दर्जा देते हुए उसमें छपी एक एक रचना पढ़ जाते हैं, के साथ ऐसा खिलवाड़ किया?

सर, कहीं ऐसा तो नही कि आपने कहानी प्रकाशित करने से पहले ही उसके मनुष्यविरोधी और क्रूर होने को जान लिया हो और इस उम्मीद में कहानियाँ प्रकाशित किये हो कि लोग हम युवाओं पर हसेंगे, हमारे लिखे का मजाक उड़ायेंगे. पर हो इसका उल्टा गया. लोगों ने उन कहानी में मनुष्यता के सार्थक चिन्ह ढूंढ लिये होंगे. तब हार पीछ कर आपने इस सत्योघाटन का जिम्मा लिया हो. जो भी हो, हम बहुत दु:खी हैं यह जानकर कि पहल जैसी सचमुच की अच्छी पत्रिका में छपने की हमारी क्षमता नही थी. फिर भी आपने...? आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप आगे कि किसी बात चीत को ऐसे तोड़ मरोड़ देंगे जिससे आप, हमें मनुष्यविरोधी घोषित करने के अपने तुर्की फैसले, पर कुछ भी कहने से बचे रहे. आप हमारा यकीन करिये हम आपसे पूछेंगे ही नही कि आखिर हम सब मनुष्य विरोधी कैसे हो गये? हमें खूब पता है कि हम ऐसे हर्गिज नहीं है.

संजीव जी से खौफ खाते हुए, डरते हुए अगर यह मान लिया जाये कि हम विवादस्पद और खराब लोग हैं तो उन्होने ही इस राज का भी सनसनीखेज खुलासा किया है कि ऐसे भी कहानीकार हैं जिन्हें संजीव जी तो जानते हैं पर वो कम चर्चित है या उन सचमुच के अच्छे कहानीकारों का रास्ता हम जैसे विवादास्पद और विज्ञापनबाज (काशीनाथ जी के पछताये शब्दों में) कहानीकारों ने छेंक रखा है. तो फिर आपने ऐसा ‘अपराध’ क्यों कर दिया संजीव जी? आपको तहलका ने मंच दिया. यहाँ से गूंजी आवाज बहुत ज्यादा फैलेगी यह आपको पता तो था फिर आपने भी उन अच्छे युवा रचनाकरों को गुमनाम रहने दिया. आपको यहाँ, तहलका के इस बेहतरीन मंच पर, उनके नामों की घोषणा करनी चाहिये थी ताकि वो आगे आ सके. पर आपने नही किया और बड़ी चालाकी से आपने उन बेहतरीन नगीनो को गुमनामी के अन्धेरे मे डूबे रहने के लिये छोड़ दिया? यह जान बूझ कर किया गया और ज्यादा सघन ‘अपराध’ है संजीव जी जिसके लिये थीसिस फेंकने की भी जरूरत नही पड़ी.कितने चालाक हैं आप! कहीं रवीन्द्र कालिया जी ने आप सबों की गहरे कहीं डूबती नब्ज पर तो हाथ नही रख दिया यह कहते हुए कि- नई पीढ़ी के आने के बाद पुरानी पीढ़ी असुरक्षित हो गई है.

हम युवा लोग तो आप सबकी कहानियों/कविताओं/ उपन्यासों को पढ़ते, दुहराते, तिहराते बड़े हुये हैं. आप सब लोग, कम से कम मेरे लिये, द्रोणाचार्य सरीखे हैं. पर आपकी चाहत ययाति बन जाने की दीख रही है. आपकी बातों से तिरस्कार और बे-ईमानी की बू आ रही है. मेरी प्यारी भोजपुरी में जिसे चोरहथई कहते हैं. इसलिये ही मैं कहना चाहता हूँ कि मोल जीवन और गोल भाषा के आदी हो चुके आप लोगों ने जिस गोल-मोल अन्दाज में सकारात्मक प्रचुर अपवाद का जिक्र किया है मैं उसमे से एक नही होना चाहता.खासकर जैसे अकाट्य सत्यों के पक्ष में आप खड़े हुए हैं उसे जान कर तो हर्गिज नहीं. मुझे यह भी यकीन है कि आप अपने पैने शाब्दिक नाखून लेकर मेरे पीछे पड़ जायेंगे. आपके स्टील, लोहे, चाँदी और नकली सोने के चमचे मुझे उचित-अनुचित तरीकों से नुकसान पहुँचाने मे भिड़ जायेंगे. मेरी भाषा/कहानी में तम्बाकू की अमर गन्ध की तलाश कर उसे खारिज करने में लग जायेंगे पर इन सब के बावजूद अगर आप सब ही हिन्दी के अवधराज हुए तो विभीषण के प्रति सच्ची सहानुभूति रखते हुए भी मैं अपने लिये कुम्भकर्ण का किरदार चुनता हूँ.