Saturday, June 26, 2010

नया

यह सूचना सरीखी एक भली बात है. बहुत पहले, शायद जनवरी की सर्दियों में, मैने आप सब को सूचित किया था कि मैने एक कहानी पूरी की है. शीर्षक है - नया. वो कहानी अभी हाल फिलहाल ही तहलका के पठन पाठन अंक में प्रकाशित हुई है. उस तक पहुंचने का रास्ता नीचे दिये हुए लिन्क पर एक ‘क्लिक’ मात्र से खुलता है.

नया

Thursday, June 24, 2010

आविष्कार और आवश्यकता




अब जब बारिश आ गई है, मौसम के कटीलें रोयें जरा नर्म पड़ गये हैं, तो इस तस्वीर को देख कर लोग बहुत कुछ अवॉट बवॉट सोचेंगे, सोचेंगे कोई नकाबपोश है, सोचेंगे हो न हो कोई आतंकवादी है.. और नही तो कोई पुलिसवाला है जो छुप के कहीं छापा डालने जा रहा है(मेरी भांजी प्राची जब बहुत छोटी थी तो अपना चेहरा अपने ही हाथों से ढँक कर समझती थी कि वो सबसे छुप गई है और बहुत ही प्यारी भोजपुरी बोलते हुए पूछती थी – मामा हम कोईजा बानी (मामा मैं कहाँ हूँ) जबकि होती वो ठीक मेरे सामने थी).

पर यह तस्वीर मई के उन दिनों की है जब तापमान बढ़ कर असीम हो चुका था और हमारे बुजुर्ग कहानीकारों की तरह हमसे बेहद नाराज लू का कहना था कि अभी नहीं तो कभी नहीं. ऐसे में जो मुँह में चांदी का चम्मच लिये नही पैदा हुए है उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. उन्हे यह सहूलियत उप्लब्ध नही होती कि ए.सी ऑफिस से निकले तो सीधा चार पहियों वाली ए.सी. में लैंड किये. हमारा तो इंतज़ार ए.सी. ऑफिस के बाहर गुस्सैल सूरज कर रहा होता है यह कहते हुए कि - मुझे यहाँ धूप में छोड़ खुद ए.सी. की हवा खा-पी रहे थे, अब चखाता हूँ तुम्हे मौसम का असली मजा. घर के उबलते हुए कमरे इंतजार कर रहे होते हैं. घड़े का पानी इंतजार कर रहा होता है जिसे घड़े ने अप्रैल में ही पानी ठंढा करने से इंकार कर दिया था. कहीं यह इंतजार ऑरेंज फ्लेवर का ग्लूकॉन डी भी करता है.

दिन में लू के थपेड़े हमारे चेहरे को झुलसा देतें हैं, पीटते हैं जैसे खूब उंचाई से गिरा हुआ आम. गर्म लू ठीक से सांस भी नही लेने देती. और फिर आप ऐसे अनोखे अनोखे और बेचारे बेचारे किस्म के मासूम इंतजाम करने में लगे रहते हैं जैसे इस तस्वीर में पूजा.

खुद की यह तस्वीर पूजा ने रिक्शे पर बैठे बैठे ही उतारी है और इस समय वो कोई मास्क या नकाब नही डाले हुए है. यह एक टिशू पेपर है जिससे इन्होने अपना चेहरा ढँक रखा है. बहुत तेज लू के खिलाफ एक जिद की तरह यह टिशू पेपर टिका है. फिर वो बात शुरु होती है जिसके लिये यह पीढ़ी मशहूर हुई जा रही है और जो बुजुर्गों को बहुत नागवार गुजर रही है. अगर रोने गाने वाली पीढ़ी ने लू के खिलाफ यह क्षणिक उपाय विचारा होता तो उसका गुण गाते(जाहिर है, रोते हुए ही), उस टिशू पेपर को ताउम्र के लिये, प्रेमपत्र की तरह, बचा रखते. पर पूजा ने ठीक इसका उल्टा किया. यह इतिहास में अमर होने की झूठी आकांक्षा रखने वाली पीढ़ी नही है इसलिये ज्यादा स्वंतत्र है और एक एक पल को जीने मे यकीन रखती है..इसलिये लू के खिलाफ यह टिशू पेपर कितना कारगर हुआ यह तो पता नही पर जैसा की तस्वीर से जाहिर है, पूजा ने टिशू पेपर में दो ऐसी जगहों पर सूराख किये जहाँ आँखे टिक रही है ताकि बाहर का भी जायजा जारी रहे.

बिना बताये समझने वाली बात यह है कि यह उपाय हमेशा हमेशा के लिये नही है और ना ही यह कोई उच्शृंखलता दर्शाती है.. यह बस एक खास समय की मुश्किल से बचने के लिये लिया गया क्षणिक सहारा है. बेहद तात्कालिक और उतना ही जरूरी.

Tuesday, June 22, 2010

जोसे सारामागो नहीं रहे.

यह दुख:द घटना बीते मनहूस शुक्रवार, 18 जून को घटी, जो ना घटती तो कितना अच्छा होता.

रविवार को मैं हिसार था और सेल्स रिव्यू मीटिंग के दौरान मन बेधने वाले सवालो की बौछार से मरा जा रहा था. उसी बीच दिन के ढ़ाई तीन बजे के करीब फेसबुक देखा और मनोज पटेल से वॉल पर यह अत्यंत दुख:द खबर मिली. हाईस्कूल के बाद छुट्टियों में ईलाहाबाद आया था तो पहली बार कोई साहित्यिक पत्रिका देखी- कथादेश. उसमें जितेन्द्र भाटिया द्वारा अनुदित सारामागो की एक कहानी पढ़ी थी.

यह मेरी साहित्य के सामान्य ज्ञान वाली उमर थी. यह वह समय था जब मैं गुनाहों के उस कमाल के रोमांटिक देवता को पढ़ चुका था और साहित्यकारों के बारे मे जानना, उनका नाम तक जानना, अजीब से एहसास से भर देता था. मुझे लगता था कि इन रचनाकारों के नाम भूल जाऊँगा, इसलिये मैं उनके नाम, नाम के आगे डैश लगाकर इनकी किताबों के नाम अपनी डायरी में लिखता था. किताब की दुकानों पर खड़ा होना, देर तक किताबें पलटना पसन्दीदा काम हो गया था. इस हद तक पसन्दीदा कि किताब की दुकान वाला जब पत्रिका छीन कर रख लेता तब भी मुझे बुरा नही लगता था. इन्ही अच्छे दिनों में मेरा परिचय इस महान उपन्यासकार से हुआ. इनका भी नाम, किताबों के नाम सहित, अपनी डायरी में लिख लिया.

जोसे सारामागो से मैने बहुत कुछ सीखा है. ब्लाईंडनेस पढ़ने के बाद तो मैं हर रोज एक उपन्यास लिखने (लिख ही डालने) की योजना बनाता. इंटर में था और कहानी लिखने की सोचते सोचते ही सो जाता था. अब भी, जब नौकरी ने सारा समय सोखना शुरु कर दिया है, तब सारामागो का जीवन दिलासा देता है जिनके लेखन में उनके ही जीवन ने अनेक बाधायें पहुंचाई.

ईयर ऑफ दि डेथ ऑफ रिकार्डो रेईस पढ़ने के बाद सारामागो को समझा. लम्बे लम्बे वाक्यों, कई कई पन्नों तक फैले पैराग्राफ्स से डराने वाले इस लेखक के लेखन में ‘सिमप्लिसिटी’ कमाल की है. इनका गद्य, भोर के हवा की तरह और स्टीफन ज़्विग के गद्य की तरह, सरल और सुरुचिपूर्ण है. जिस शहर को हम प्यार करतें हैं उसका चित्रण करना हो तो आपको हिस्ट्री ऑफ दी सीज ऑफ लिस्बन जरूर पढ़ना होगा. (जो लोग इस्तांबुल की चित्रकथा पर मर मिटें है उनके लिये एक नेक सलाह.) जब लेखक लिस्बन के सड़कों के ढ़लान का जिक्र करता है तब आप उसकी जादूगरी देखिये. और हाँ, यह लेखक जादुई यथार्थवाद के फॉर्मूला युग में भी यथार्थ को तरजीह देता है.

इनकी रचनायें सबसे पहले एक ऐसे सत्य को उद्घाटित करती हैं जो है तो अवश्यम्भावी पर हम उसे देखना नही चाहते, इसलिये उस सत्य को सुनना भी टालते रहते हैं यह कहते हुए कि अरे ये तो भारी झूठ है, गप्प है.. उसके बाद यह रचनाकार अपनी सारा सामर्थ्य उस झूठ दिखते सच के परदे हटाने में लगा देता है. अंत आते आते आप यकीन कर लेते हैं कि ईशा मसीह एक सामान्य इंसान थे, कि कुम्हारों और अन्य देशज कलाकारों का जीवन नष्ट हो ही जायेगा, कि लिस्बन को मुस्लिम सेना अपने कब्जे मे नही ले पाई थी, और यह भी कि दिमाग के जिस अन्धेपन से गुजर रहे हैं वो त्रासदिक है.

इनके शब्द विन्यास पानी की तरह पारदर्शी रहे हैं जिसने ‘विनोद कुमार शुक्लीय’ समय में मेरी बड़ी मदद की. साथ दिया वरना हिन्दी के भतेरे कहानीकारों को पढ़ कर लगने लगा था कि बिना काव्यात्मक और फिजूल विशेषण लगाये संज्ञा, सर्वनाम का इस्तेमाल अपराध है. घोर अपराध है.

मुझे सबसे जरूरी शिक्षा इस लेखक ने (जाहिर है अपनी पुस्तकों के मार्फत) विराम चिन्हों के इस्तेमाल के बारे में दी. इनके शब्द ही बोलते थे. कॉमा या पूर्णविराम के अलावा इन्होने दूसरा कोई चिन्ह, जैसे प्रश्नवाची या विस्मयबोधी या ब्रैकेट या डैश या और भी तमाम, कभी इस्तेमाल ही नही किया. वरना अपने लेखन के शुरुआत में तो मैं बिना विस्यमादिबोधक चिन्ह लगाये रोटी भी नही मांगता था.

हालांकि समय की अपार ताकत और जीवनचक्र के कठोर सच से मैं वाकिफ तो हूँ पर अभी अपने इस प्रिय लेखक से दोएक उपन्यासों की उम्मीद और थी. खासकर दक्षिणी और पूर्वी यूरोप में फैल रहे जहरीले धार्मिक उन्माद और इसी क्षेत्र में फैल रहे नये और खतरनाक दक्षिणपंथ के विषय पर. एक जरूरी बात बताना तो भूल ही रहा था. बहुत कम ऐसे नोबेल पुरस्कार विजेता हैं जिन्होने ‘समकाल’, अपने वर्तमान को अपने लिखने का विषय बनाया. ज्यादातर लेखक/लेखिकायें तो इतिहास के आरामदायक और गर्म ओवरकोट या पेटीकोट में छुपे रहते है. पर सारामागो के साथ ऐसा नही था. उन्होने तात्कालिक राजनीति के चरित्र पर ‘सीइंग’ लिखा. हिन्दी के पुराने पड़ गये कथाकारों के पसन्दीदा विषय ‘बाजार’, जिसकी आड़ ले हिन्दी के ‘महान’ कथाकारों ने अभी तहलका के साहित्य अंक में युवा कथाकारों के खिलाफ ‘सुभाषित’ उगलें हैं, पर ‘दि केव’ लिखा.

मेरे सारे अज़ीज, एक एक कर के, शुक्रवार को एक शनिवार को दूसरा, मुझे छोड़ते जा रहे हैं.

सारामागो या मार्खेज या कुन्देरा या एदुआर्दो मेन्दोसा या अपने ज्ञान जी (ज्ञान जी, हम आपकी ही रचनायें पढ़कर बड़े हुए है. जब सब कुछ सीखा ही जाता है तो इसका भी जबाव आपको ही देना होगा कि अगर यह पीढ़ी, जिस पर आपको नाज होना चाहिये था, आपके अनुसार मनुष्य विरोधी है, तो इसने यह मनुष्य विरोध सीखा कहा से? पर मैं आपको एक राज की बात बताऊँ- हम मनुष्य विरोधी नही हैं.) या उदय – कोई भी हो मेरी कभी इनसे मिलने की इच्छा हुई तो इनकी रचनायें पढ़ लेता हूँ. इन्हे पढ़ना, लिखने से भी अच्छा लगता है.

मैं जोसे सारामागो को अपने सामर्थ्य जितनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ. आप हमेशा हमारे साथ रहोगे.

Friday, June 18, 2010

रावण

मेरे प्यारे बॉलीवुड को कुछ हो गया लगता है. नजर – वजर जैसी तीखी कोई चीज लग गई है. हुआ यों कि आज रावण देखा. बड़े दु:ख के साथ कहूँ कि अच्छी फिल्म नही है. काम चलाऊँ कहना भी मुश्किल हुआ जाता है. मणिरत्नम के नाते इस फिल्म से उम्मीद जैसी बँध गई थी. लगा था- रोजा, बॉम्बे और दिल से जैसी बेहतरीन फिल्म होगी पर यह मणिरत्नम की अब तक की सबसे खराब फिल्म है.

हमारे मिथितास में द्रौपदी के बाद सबसे जटिल चरित्र रावण का ही है. राम, अपनी सारी अच्छाईयों के बावजूद, अपने चरित्र में बेहद ‘मोनोटोनस’ है. किसी शाकाहारी चुटकुले की तरह. जैसे स्कूल का कोई सबसे अच्छा बच्चा जो समय पर हंसता है, ठीक नौ पांच पर किताब खोलता है और ठीक नौ सात पर किताब बन्द भी कर देता है..कुछ कुछ वैसा मोनोटोन लिये हुए है राम का चरित्र. कोई इतना अच्छा इंसान/देवता जिसकी नकल भी कोई नही करना चाहता. पर रावण के साथ ऐसा नही है. और यहीं मणिरत्नम चूक गये हैं. पूरी फिल्म के दौरान अभिषेक बच्चन में रावण की छवि का अंश भी नही उभरा है. अगर आज कोई रामायण बनाना चाहे तो अभिषेक को वो सबसे पहले राम के चरित्र के लिये चुनेगा. क्योंकि ‘एक ही चेहरा’ राम के अभिनय के लिये काफी है. रावण के चरित्र में अभिषेक अत्यंत निष्प्रभावी दिखे हैं.

दूसरे,फिल्मकार द्वारा आँख में ऊँगली डाल डाल कर बताने के कारण ही कहना पड़ रहा है कि नक्सलियों को जैसा चित्रित किया गया है, वो मणिरत्नम की समझ पर शक पैदा करता है. कौन ऐसा इंसान है यार जो दिन रात शरीर में कींचड़ लपेटे रहता है. नकसलियों को एलियन की तरह दिखाने वाली समझ ही परेशानी पैदा करती है. इसेक मामले में मणिरत्नम ‘कांति शाह’ के करीब पहुंच गये हैं. नक्सली हमारे और मणिरत्नम की तरह ही इंसान हैं. नकसलियों की जो तस्वीरे ‘एकपक्षधर’ मीडिया हमें उपलब्ध कराता है उनमे भी वो हमारे जैसे ही दीखते हैं. जाहिर है वे लेवाई’स या किलर के जींस में नही होते, उनका स्वास्थ्य वैसा तगड़ा नही होता जैसा उस तस्वीर उतारने वाले का, या खुद मणिरत्नम का....पर आखिर लड़ाई भी तो उसी ‘गैप’ की है.

गोविन्दा ने हनुमान के चरित्र और विक्रम ने राम का चरित्र जीने की कोशिश की है पर एक बार फिर दिशाहीन कहानी की तेज गति में वो बह गये हैं. ऐश्वर्या राय पूरी फिल्म में सिर्फ ऐश्वर्या राय ही लगी है जैसे शाहरूख को कोई भी चरित्र दे दो वो अपना खास शाहरूखपना दिखाने से बाज नही आते.

पूरी फिल्म में बारिश ही बारिश है.अगर आपको ‘अक्स’ की याद हो तो हू-ब-हू वैसी ही सिनेमैटोग्राफी है. क्लोज-अप्स का कमाल है. रहमान भी चुके चुके से लगते हैं. अलबत्ता एक गाने में ऐश्वर्या राय का नृत्य मन को भाता है.

मणिरत्नम की उन मजबूरियों से पर्दा उठे तो शायद कुछ दिलासा हो जिन मजबूरियों की वजह से उन्होने अभिषेक को बतौर रावण चुना.यह भी कि हमारी भाषा के ‘मास्टर्स’ ने जो ‘लीजेंड’ गढ़ दिये, क्या उसे कोई कभी छू नहीं पायेगा?

Tuesday, June 15, 2010

गौरव सोलंकी की कविता - चार लड़कियाँ भी हैं अकेली लड़कियाँ

गौरव सोलंकी की यह कविता अद्यतन कविता परिदृश्य को समृद्ध करती है. आई.आई.टी रूड़की से पढ़े लिखे गौरव फिलवक्त पत्रकारिता से जुड़े है. बेहद अच्छा और जरूरी कवि. गौरव की बहुत सारी कविताओं के लिये यहाँ क्लिक करें.


यह उजाले की मजबूरी है
कि उसकी आँखें नहीं होतीं
और वह ख़ुद अपने लिए
अँधेरा ही है।
जिस तरह सब लालटेनें अनपढ़ हैं,
सब पंखे गर्मी से बेहाल,
अब आरामदेह गद्दे खुरदरी लकड़ी और नुकीली कीलों के बीच धँसे हैं ,
याहू मैसेंजर का नहीं है कोई दोस्त,
सब एसी कारें सड़कों पर धूप में जल और चल रही हैं,
नंगे हैं महंगे से महंगे कपड़े,
मछलियाँ संसार के किसी भी पानी में डूबकर
आत्महत्या नहीं कर सकतीं,
नहीं है जुबान किसी इस्पात-से गीत के पास भी,
कोई शीशा नहीं देख सकता
किसी शीशे में अपने नैन-नक्श।

चार लड़कियाँ भी हैं अकेली लड़कियाँ
और नौकरी करने वाले दोस्त काम आएँगे,
यह उनकी इच्छा के साथ-साथ
शनिवार और इतवार के होने पर भी निर्भर करता है।

आँखों में काँटे या आग है
इसलिए किताबें और दुखद होती जाती हैं,
फिल्में थोड़ी और काली,
शहर थोड़ा और राख
और इस तरह इस कविता में भी विद्रोह है
जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता था।

Thursday, June 10, 2010

दिल्ली में बच्चे



यह तस्वीर पूजा ने उपलब्ध कराई है.इनके नये मोबाईल – नोकिया 2700 क्लासिक के कैमरे से उतारी गई यह तस्वीर जिस क्षण की है उसके ठीक पहले, जैसा पूजा ने बताया, ये तीनों बहादुर अपनी इस साईकिल पर सवार होकर किसी कार से रेस लगा रहे थे और फिर जो हंसी छूटी कि अब भी मुस्कुरा रहे हैं.

दिल्ली का नाम आते ही कुछ ऐसी जिम्मेदार या फिर क्रूर छवि मन मे उभरती है कि मानो दिल्ली में बच्चे होते ही नही होंगे. और अगर होते भी हों तो शरारते सभ्य शहर के बाहर जाकर करतें होंगे. ऐसी भोली शरारतों के लिये मेरे मन मे धनबाद की जगह सुरक्षित है. मैं आठ और नौ के बीच रहा होउंगा जब पापा के साथ धनबाद एक नातेदारी में गया था. वहाँ एक छोटा बच्चा था, चार या पाँच का, जिसकी तिपहिया साईकिल मैने खूब चलाई थी. मेरे पैर उस खास समय की आवश्यकता से लम्बे थे पर मुझ पर कोई पागल धुन सवार हो गई थी.

अभी देखें तो इन तीनों में से पीछे वाले को छोड़कर किसी की भी उम्र इस साईकिल पर बैठने वाली नही रह गई है पर एक नही, दो नही, तीन तीन सवार इस नन्ही साईकिल पर जमे हैं और जैसे इतना ही काफी नही कि किसी कार से भी रेस लगा चुके हैं तथा इनकी जो मुस्कान है वो नब्बे के दशक का सबसे मशहूर डायलॉग याद दिला रही है.. “ ...जीत कर हारने वाले को बाजीगर कहते हैं.”

इनके पूरे चेहरे पर फैली मुस्कान से मन हरा हो गया. यह चित्र यहाँ दे रहा हूँ इस भली उम्मीद के साथ कि काश ये बच्चा पार्टी अपने जीवन की हर रेस जीते.

Tuesday, June 8, 2010

तस्वीर और तस्वीर

(किसी भी फोटोग्राफर/कैमरा मैन के लिये)

मैं समझता हूँ
पालतू कैमरे को बन्दूक
रंगो को स्याही
अक्षर हैं चेहरे
तस्वीरों के किताबी जीवन में
जीता रहा ज्ज्ज्ज्जूँssssssजीक्क की आवाज में

मैने उतारी है
चुम्बनों में शामिल आवाज की तस्वीर
पानी और हवा में हस्ताक्षर की तस्वीर
मैगी और दोस्ती के स्वाद की तस्वीर
शाम के धूसर एकांत की तस्वीर
भागते पेड़ और रूके समय की तस्वीर

अच्छे वक्तों में प्रेमिका बुरे वक्तों में माँ की तरह
अटूट साथ दिया इस
बगटूट कैमरे ने

मेरी, रिक्शे और रिक्शे वाले की
परछाईयों को आपस में गुंथा देख
कैमरा हो गया खुद-ब-खुद ओन
ज्ज्ज्ज्जजूँsssss के बाद जीक्क्क की
आवाज थी बची हुई जब रिक्शेवाले ने कहा साथी रिक्शेवाले से
“हो मीता पैरवा पीड़ावत हवे”
हे ईश्वर! तू भी नही मांनेगा? पर मेरा कैमरा और मैं
दोनो ही रह गये थे अवाक!
उस दिन तक यह सपाट सच से
थे हम अंजान कि होता है दर्द
रिक्शेवालो को, होते हैं उनके पैर भी
और यह कि रिक्शे और पैर में
कोई सम्बन्ध भी

हारा मैं उतारनी चाही दर्द की तस्वीर
रह गये हम पैरो और पतलून में
उलझ कर मैं और अच्छे दिनों
की प्रेमिका

जबकि भी झुका भी नहीं हूँ मै
संशयात्मा बन कैमरे का लेंस
रहता है घूरता अब
सोचता दिन-ब-दिन
क्या कभी उतार पाउंगा
दर्द की कठिन तस्वीर?


------- सूरज
कवि से सम्पर्क: soorajkaghar@gmail.com

Monday, June 7, 2010

बेहिसाब मौसम के लिये बाबा नागार्जुन की कविता – कल और आज

बाबा नागार्जुन की यह कविता बचपन में पढ़ी थी. उस समय, याद है, इसके शीर्षक में उलझ गया था. मतलब दिमाग यह मानने को तैयार नही होता था कि एक दिन में इतना परिवर्तन कैसे आ सकता है? अभी जब इसे दुबारा पढ़ रहा था तो स्पष्ट हुआ कि ये जो ’कल’ है वो बहुत लम्बा वक्फा है और हू-ब-हू ‘आज’ भी, उतना ही बड़ा. और यह भी कि यह कविता प्रकृति के सर्वाधिक निर्दोष नियम यानी बदलते बदलते बदलने की बात करती है, अचानक से बदलने की नहीं.

फिर आज समय सुकाल ऐसा आया है कि ये कविता मौजूँ बन पड़ी है.

कल और आज

अभी कल तक
गालियॉं देते तुम्हेंर
हताश खेतिहर,
अभी कल तक
धूल में नहाते थे
गोरैयों के झुंड,
अभी कल तक
पथराई हुई थी
धनहर खेतों की माटी,
अभी कल तक
धरती की कोख में
दुबके पेड़ थे मेंढक,
अभी कल तक
उदास और बदरंग था आसमान!

और आज
ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं
तम्हारे तंबू,
और आज
छमका रही है पावस रानी
बूँदा-बूँदियों की अपनी पायल,
और आज
चालू हो गई है
झींगुरो की शहनाई अविराम,
और आज
ज़ोरों से कूक पड़े
नाचते थिरकते मोर,
और आज
आ गई वापस जान
दूब की झुलसी शिराओं के अंदर,
और आज विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म
समेटकर अपने लाव-लश्कर।

Sunday, June 6, 2010

वर्षा ऋतु से..

वह मद्धिम करार भी टूट चुका

वर्षा रानी ये जिद छोड़ो
बादलों की धार फोड़ो

तुम्हारी जल पंखुड़ियाँ धरती को सरोबार जब चूमेंगी
सहसा, तुम्हारी बूँदे निगाह बन उसे ढ़ूँढ़ेंगी
जो अब नही होगी वहाँ
आंगन के पार द्वार
पर तैयार

वर्षों वर्षों तक हमने हथेलियों में थामें हाथ
किया स्वागत तुम्हारा तुमने सहलाया खुश
हो बौछारों से हमें पीटा हम थे कि जी उठे
और अब मैं, उन मीनारों में अकेला
जिससे फूटते रास्ते शाखाओं की तरह पर एक भी
अभागी राह उस ओर की नही

बारिश तुम आना
उसे न पाकर लौट ना जाना
बिन बुलाये मेहमान की तरह ही हो
पर वहाँ जाओ जहाँ जरूरत तुम्हारी हो

तुम्हारी राह देखता मै ही नही इमली के कितने पेड़ जिनके
फलने की राह देखती कितनी माएँ
जो तुम्हारे स्वागत के लिये नई और
सुदृढ़ पीढ़ी जनेंगी

वह मेंढक तुम्हारे रंग में रंगा
गीले मन सहित इस कविता में
छलाँग लगायेगा, बतायेगा मुझे
इस वर्ष जब वो ही नही रही
तब तुम्हारे जल का स्वाद

तुम्हारी बाट खोजती हजारहा फसले जो निवाला बन जाने की
आतुरता लिये मुझसे अनगिन बातें कर रही हैं

नाराज ना हो सौन्दर्य ऋतु
मैं तुम्हे बताउंगा प्रेम के नये
रंगरूटों का पता जो करेंगे
स्वागत तुम्हारा
हमसे भी सुन्दर
हमसे भी बेजोड़

वो भी भूली मुझे
तुम्हे नहीं
तुम्हारे स्वागत में उसने बनाई होगी रंगोली
अँजुरी बनाये थामे होंगे दो मजबूत हाथ

तुम आओ
मेरी स्मृतियों तक आओ
बरसते बरसते थक जाओगी तब
हम भाप के जालों के बीच पीयेंगे
कुल्हड की चाय और तुम मेरी स्मृतियों
की सांकल खोल मिल आना उससे

बारिश, अब तुम आओ.

(सूरज की यह कविता समय(!) पर आई है.)

Saturday, June 5, 2010

निकानोर पार्रा की कविता - मर जाएगी कविता

मर जाएगी कविता

कविता
मर जाएगी
अगर
उसे
तकलीफ न दो


लेकर के
गिरफ्त में, तोड़ना होगा
उसका दर्प सरेआम


फिर दिखेगा
क्या करती है वह।

..........
(मूल स्पेनिश से यह सुन्दर अनुवाद श्रीकांत का है. श्रीकांत को नई बात की ओर से स्नेहिल बधाई कि उनकी एक अच्छी कहानी “धरती के भीतर दिन रात खालीपन से भरा एक आसमान रहता था” नया ज्ञानोदय के जून अंक में प्रकाशित हुई है. नया ज्ञानोदय पत्रिका को इस लिंक http://jnanpith.net/ पर जाकर डाऊनलोड किया जा सकता है.)

मोरा पिया मोसे बोलत नाही.. 2 और राजनीति फिल्म

उमंग के आने से नफा यह हुआ कि आज वर्षों बाद किसी फिल्म का ‘फर्स्ट डे फर्स्ट शो’ देखा. राजनीति.

मनोज वाजपेई रॉक्स!! गज़ब का अभिनय किया है. इस फिल्म मे मनोज का पार्ट दरअसल ड्रामा के विद्यार्थियों के लिये कोचिंग सरीखा है. सम्वाद अदायगी का उत्कृष्ट नमूना पेश किया है. अपने अकेले के दम पर इस काबिल कलाकार ने सबको पीछे छोड़ दिया है. क्या नाना और क्या नसीर और बाकी सब? सबने भला काम किया है पर मनोज सबको खा गया है. मनोज के बाद रणबीर. बहुत प्रभावित किया है रणबीर ने. ये चॉकलेटी रंग रूप का कलाकार इस फिल्म मे और निखर गया है. जब पहली बार वो जनसभा को सम्बोधित कर रहा होता है तब उसे देखिये. अभय देओल के बाद ‘एक्सप्रेशन लेस फेस’ का इस्तेमाल रणवीर ने खूब किया है.

महाभारत के करीब रखने की प्रश्नवाची ज़िद ने फिल्म में जरा ‘तनिकवा’ लगा दिया वरना तो अच्छी फिल्म है. फर्स्ट हाफ मे फिल्म जकड के रखती है. फिल्म देखते हुए आप चाह रहे होते हैं कि हे ईश्वर अब कोई हत्या नही पर तभी एक पर एक हत्याये होती जाती हैं.

अपनी बनावट में प्रकाश ने महाभारत से सट के रहने की कोशिश की है पर फिल्म गॉडफादर के नजदीक चली गई है. या प्रियदर्शन की बेहद अच्छी कृति- विरासत के करीब. महाभारत के करीब तो एक ही फिल्म गई है अभी तक- श्याम बेनेगल की शशि कपूर अभिनीत “कलयुग”!

राजनीति को जहाँ जहाँ महाभारत से को-रिलेट करने की कोशिश की है फिल्म वही और वही कमजोर लगी है. मसलन समर द्वारा सूरज की हत्या, इन्दु को द्रौपदी बनाने का स्पष्टीकरण वाला सीन या भास्कर सान्याल का नाम जान बूझकर भास्कर रखना ताकि इसके पर्यायवाची सूर्य को लोग ना भूले और ना ही सूर्यपुत्र को. वैसे किसी कम्यूनिस्ट किरदार को प्रकाश झा जैसा निर्देशक बेतुका होने की हद तक कमजोर दिखायेगा, इसकी उम्मीद नही थी. कुंती और कर्ण के बीच का मिथैतिहासिक सम्वाद, इस फिल्म का सबसे कमजोर हिस्सा है. अब समर, भास्कर,पृथ्वी, सूरज और इन्दु कौन है ये तो फिल्म देखकर ही जानिये.

प्रकाश झा एक गलती बार बार और हर बार करतें हैं. वो है गर्भ ठहरने की प्रक्रिया. प्रकाश झा यह गलती आज से नही कर रहे है. मुझे पहली याद मृत्युदंड की है. शबाना और ओमपुरी का एक संसर्ग और परिणाम गर्भ और उसी के इर्द गिर्द सारी कहानी. इसके बाद आई थी- दिल क्या करे? इसमे भी वही भूल-गलती. ट्रेन मे औचक मिलते अजय और काजोल, भावना का वही ज्वार, एक दूसरे के नाम पता भी से अंजान,अगली सुबह काजोल मुगलसराय उतर जाती है और कहानी वही- एक संसर्ग और गर्भ, जिसके इर्द गिर्द सारी फिल्म घूमती रहेगी. राजनीति मे भी वही पर यहाँ एक नही तीन तीन जोडो के बीच यही दृश्य.

कैटरीना कैफ ने अपनी तरह की अदाकारी की है, उसके चेहरे से हरेक फिल्म मे बार बार एक ऐसी शक्ल टपकती है जैसे वो ईर्यायस या ठुकराये जाने का शिकार हो, पर इस फिल्म उसे वही किरदार मिला है और उसने बखूबी निभाया है.

अजय देवगण जितना बढिय़ा अपहरण में कर गये थे वैसा हर बार कहाँ सम्भव? कुछ दृश्यों में रामपाल ने जान दी है खासकर जब वो एस.पी. को मारने वाला होता है. दरअसल रामपाल का ही किरदार है कि जब आप हॉल से बाहर आयेंगे तो आपको फिल्म का जो गाना याद रह जायेगा वो है – अंखियाँ मिलाऊँ कभी अंखिया चुराउँ क्या तुने किया जादू..”

फिल्म में कई सारे लूपहोल्स हैं, खासकर स्त्रीपात्र के प्रति निर्देशन टीम का रवैया. द्रौपदी का किरदार रचने के लिये भारी नौटंकी दिखाई गई है. फिल्म में असंख्य हत्याये होती है पर पुलिस गायब है. पुलिस पूरी फिल्म में दो-एक दृश्यों मे ही है वो भी अवांतर प्रसंगो में.अब प्रकाश को कौन बताये कि महाभारत के समय पुलिस भले ना रही हो पर आज तो हत्या होने के ख्याल की भी रिपोर्ट थाने मे दर्ज करानी पड़ती है.

जो भीड़ फिल्म मे दिखाई गई है उसे देख कर सुखद ताज्जुब होता है. और सबसे सुखद है फिल्म के डॉयलॉग्स. मोरा पिया मोसे बोलत नाहीं ..यह गीत आजकल लगभग सभी गुनगुना रहे हैं और मैं उनसे पूछ भी नहे सका कि आखिर तुम क्यों..?

जैसा मैने कहा फिल्म वही वही कमजोर है जहाँ इसे महाभारत के करीब धकेला गया है वरना तो यह फिल्म आपको बतायेगी कि भारत की राजनीतिक पार्टियाँ काम कैसे करती हैं? साजिश, धोखा और धोखे के पक्ष में बयानबाजी, सब है. और हाँ, डर के मारे मैं यह तो कह ही नही सकता कि फिल्म में भारत के हर उस पार्टी का अक्स है जहाँ पर परिवार का राज ही चलता है.अक्स से एक याद- मनोज बाजपेई अपने उसी राघवन के किरदार की उंचाई छूते हैं.

जब आप इसे देखने जायें तो इस बात का ध्यान धर लें कि मनोज बाजपेई को देखने जा रहे हैं.

Friday, June 4, 2010

अनॉनिमस से मदद की माँग

Anonymous said...
एक भ्रम यहां बार-बार फैलाया जा रहा है चंदन जी को बहुत पढ़ा जाता है !!

दूसरी जगहों का तो नहीं पता लेकिन ब्लाग की दुनिया में उनकी हालात काफी खराब है !!

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आप सब की सुविधा के लिए मैं एलेक्सा की अभी की रेटिंग्स को सामने रख दिया है। आप लोग इस रेंटिग्स की तुलना दूसरों की रेटिंग्स से कर लीजिएगा जो साहित्य/पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। जो गंभीर ब्लागर माने जाते हैं।(सस्ती लोकप्रियता वाले ब्लाग को छोड़िए। मैं उससे चंदन जी के संजीदा ब्लाग की तुलना नहीं करना चाहता।)


अनॉनिमस भाई, धन्यवाद. ये सारी तकनीक चीजे बता के आपने मेरी भारी मदद की है. दरअसल ब्लॉग पर पोस्ट करने और यू.आर.एल लिंक देने के अलावा मुझे इसकी कोई तकनीक समझ मे नही आती. मेरे ब्लॉग का जो डिजाईन है वो भी मुझे पसन्द नही है पर उसे चेंज करना मुझे नही आता. पर यार अगर आप इतना कुछ जान रहे हो तो क्या ये बता सकते हो कि इसे ट्रेफिक कैसे करते हैं? या इसे बढ़ाने के कौन कौन से उपाय हैं? मैं इसीलिये इसे पोस्ट की तरह लिख रहा हूँ ताकि आपको इसकी गम्भीरता का अन्दाजा हो. यह भी एक बात है कि इस ब्लॉग पर ठीक ठाक चीजे ही पोस्ट करता हूँ तो आकांक्षा यही होती है कि लोग इसे देखें. ब्लॉग वाणी पर भी कुछ समझ मे नही आता कि ये सब कैसे होता है?

आप प्लीज अपने नाम के साथ या चाहो तो बिना नाम के ही हेल्प मी ऑउट. अगर आपके पास कोई तकनीक मदद हो तो कृपया जरूर करें. आप चाहे तो मेरे gmail account पर ही मुझे बता दें- chandanpandey1@gmail.com . मेरा मानना है कि जो बात आपने बताई है, इस तरह की कोई भी बात आप खुलेआम और खुलेनाम बताईये. क्योंकि रेटिंग वगैरह कम बेस तो चलता रहता है,कभी फेडेक्स(रोजर फेडरर) की रैंकिंग 274 थी. आज देखे रहे हैं कहाँ है वह? अभी कुल छ: महीने ही तो हुए ब्लॉग लिखते हुए. प्लीज अगर आप तकनीक दक्षता रखते हो तो जरूर बताओ कि इसे किस तरह बढ़ाया जाये? प्लीज.

Wednesday, June 2, 2010

मोरा पिया मोसे बोलत नाहीं...

बीते कल से मेरे अनुज उमंग यहाँ करनाल आये हुए हैं। कल ही शाम को हम काईट्स देखने गये और पाया कि आलोचना की अजीब सी बीमारी भारतीय जन मानस मे घर करती जा रही है। आलोचना होनी चाहिये पर एक पैमाने के साथ। यहाँ तो हो यह रहा है कि जो पत्रकार नही बन पाया वो पूरी मीडिया को पानी पी पी के गाली देता है। जो कवि कहानीकार नही बन सकता और जिसने रचनाकार की पीड़ा का एक अंश भी नही बर्दाश्त किया वो साहित्यकारो को चरित्रहीन साबित करने मे लगा रहता है। जो नेता नही बन पाये उनमे से कई ऐसे मिले जो मन ही मन संसद पर हुए हमले से बहुत खुश थे और यह दुष्ट इच्छा भी व्यक्त की कि काश सारे नेता मारे गये होते। जिन्हे पता है कि सिनेमा की दुनिया से उनका कोई वास्ता नही पड़ने वाला, उससे कोई काम नही निकलने वाला उन लोंगो ने ‘काईट्स’ फिल्म को जम के गरिआया।

यह सच है कि काईट्स महान फिल्म नही है। पर ये जो प्रेरक प्रसंग जैसी फिल्मे बन रही हैं जैसे माई नेम इज सुपर खान और ऑल ईडियट्स, वो भी सामान्य और मनोरंजक फिल्म ही बन के रह गई हैं। दोनो ही फिल्मों मे कितने ऐसे दृश्य हैं जिनके बचकानेपन और बनावटी ब्रिलिएंस पर शर्म वाली झुरझुरी फैल जाती है।

यह सच है कि काईट्स महान फिल्म नही है और इस महानता की उम्मीद लगाये लोगो की चालाक मूर्खता पर दो पल के लिये अफसोस कर ले फिर आगे बढ़े। ये वही लोग हैं जो ऑर्नॉल्ड स्वाज्नेगर और जेम्स बॉंड की निरा बेतुकी फिल्मों की तारीफ मे मरे जाते हैं। ऋतिक, शाहरूख आमिर और अमिताभ की फिल्मों को देखते हुए ओमपुरी और नसीर द्वारा अभिनीत दिमाग झनझना देने वाली फिल्मों की अपेक्षा बेमानी है। सिनेमा से सामाजिक अर्थवत्ता की उम्मीद अपनी जगह मह्त्वपूर्ण है पर इसके मनोरंजक पहलू को कम करके ऑकने का काम वही लोग करेंगे जो जीवन से इतना खुश हैं जिन्हे रोने धोने के लिये टी.वी के धारावाहिको की शरण लेनी पड़ती है।

काईट्स की कहानी में वो धीमापन मौजूद है जो प्रेम कहानियों में होता है जैसे ‘ अ वॉक टू रिमेम्बर, फिफ्टी फर्स्ट डेट्स, स्वीट नवम्बर, इत्यादि’। गाने भी सुनने लायक हैं – ‘इंतजार कब तलक हम करेंगे भला’। सिनेमैटोग्राफी बहुत अच्छी है। और सबसे उपर अपना देवदूत – ऋतिक। चाहे वो कंफ्यूज्ड इंसान वाला किरदार हो या अपनी प्रेमिका को तलाशने की व्यग्रता या प्रेम के खूबसूरत पलों की अदाकारी, सबमें ऋतिक ने अच्छा काम किया है।

बारबारा। ब्यूटीफूल!! उन लोगो की चिंता नाजायज नही है जो विदेशी सुन्दरियों के भारतीय सिनेमा मे दखल से डरे सहमें हैं। आज की तारीख में जितनी नई अभिनेत्रियाँ लग के काम कर रही हैं उनमे से गजब की दीपिका को छोड़ दें तो कोई बारबारा के पासंग भी नही ठरने वाली। फिल्म मे एक दृश्य है कि वे दोनो होटल के कमरे मे बैठे हैं। बारबारा नीली जींस के शॉर्ट्स और झक्क उजले टॉप में है, उस एक सीन मे वो जितनी खूबसूरत दिख पड़ी है और उसके बराबर में बैठा मोस्ट हैंडसम ऋतिक! उनके एक साथ होने वाले इस दृश्य मे जो रूहानियत और मासूमियत है उसके लिये अगर भाषा के भदेस का तनिक सहारा लें तो कहेंगे ‘पैसा वसूल’। ऋतिक में अदाकारी और वो फिटनेस है जो उसे एक दिन इंटरनेशनल लेवल तक मशहूरी देगी। उसके लिये एक अर्धवाक्य फिर दूहरा दूँ- देवदूत लगता है।

औसत से अच्छी फिल्म है। सुन्दर प्रेम कहानी। खटकने वाली चीज यह लगी कि जिस तरह से धोखेबाजी और बेवफाई को ‘ग्लोरिफाई’ किया गया है वो गलत है। इसके बरक्स बाबा भारती का किस्सा याद आता है। जिन्होने डाकू मंगल सिंह को उसके धोखे की बात सबसे बताने के लिये मना करते हैं क्योंकि उन्हे डर है कि कल को फिर कोई घुड़सवार किसी जरुरतमन्द राहगीर की मदद नही करेगा। वैसे यही सुर आजकल पूरे जमाने ने साध रखा है तो फिल्म्कार बेचारा क्या करे? और साथ ही यह भी कि अनुराग बसु से हम अनुराग कश्यप होने की अपेक्षा नही रखते।

पूरी फिल्म में ऋतिक ने शानदार अभिनय किया है। एक बार देखने लायक तो है ही है।

रही बात इस पोस्ट के शीर्षक की तो ये गीत मेरे जीवन के इर्द गिर्द इतना ज्यादा बज रहा था कि लगा जैसे कोई बहुत पुराना गीत हो। पर उमंग ने बताया यह आने वाले समय के राजनीति का गीत है।