Sunday, January 31, 2010

पूजा की डायरी: अमिताभ बच्चन हमारे ऑफिस में

(विश्व की तमाम भाषाओं की तरह कितनी सारी विधाये भी लुप्त होती जा रही हैं। जैसे डायरी, रिपोर्ताज इत्यादि। हम सब इनके विलुप्त होते जाने पर सच्चे हृदय से चिंतित होते हैं, पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इस मुश्किल से निकलने के रास्ते हमें नही दिखते। डायरी लिखने वाले भी अक्सर गुरु निकलते हैं जब वो यह सोच कर डायरी लिखते है कि उसे छपवाना है। उसमें भी इतने दिखावे करते है कि पूछिये मत। वैसे में डायरी लेखन के लिये पूजा की डायरी के कुछ पन्नों से इस ब्लॉग पर आगाज करते हैं इस उम्मीद के साथ कि ‘कारवाँ बनता चला जायेगा।‘ अमिताभ बच्चन और उनसे आभासी मुलाकात से जुड़ा यह डायरी अंश इसी अट्ठाईस जनवरी का है।)

नेटवर्क-18 के ऑफिस की हवा में गुरुवार को अलग ही तरह की खुशबू बिखरी हुई थी। मैं भी कहूं कि कोई बात जरूर है। सुबह मदरडेरी से न केवल बस समय पर मिल गई बल्कि कंडक्टर ने बैठने खातिर अपनी सीट भी दे दी। और साथ ही प्यास लगने पर पानी भी पिलाया। लग रहा था आज कुछ अच्छा घटेगा और हुआ क्या ऑफिस पहुँचते ही गार्ड भईया ने बताया कि आज अमिताभ बच्चन आने वाले हैं। अमिताभ बच्चन! हिंदुस्तान में क्या कोई इस नाम से अपरिचित होगा।

मेरे घर में गुरुवार को कोई भी अच्छा काम करने का चलन नहीं है। चाहे वह कितना जरूरी क्यों न हो। या तो एक दिन पहले या बाद में उस जरूरी काम का निपटारा होता है। लेकिन ठीक उलट मेरे लिए यह दिन विशेष रहता है। अक्सर ऐसा होता है कि मेरा अधूरा काम इस दिन पूरा हो जाता है और नया काम शुरू हो जाता है। इस दिन ने मुझे बहुत कुछ दिया है।

ऑफिस में साथी वजह-बेवजह की उत्तेजना में थे। कोई कांप रहा था तो कोई हांफ रहा था। अभी अमित जी आईबीएन-7 के ऑफिस में हैं एक लड़की बगल से चीखती हुई गुजरी है। अमिताभ के आने की बात धीरे-धीरे यह बात ऑफिस के हर उस शख्स ने बताई जो मुझसे परिचित था। फोन पर हर कोई दूसरे को अमिताभ बच्चन के आने की खबर दे रहा था। मैं बहुत उत्साहित थी। मैं जितनी बार अपनी सीट से उठती देखती क्या? - हर कोई गेट की तरफ टकटकी लगाए खड़ा है। ये अभिषेक के पिता एश्वर्या के ससुर या जया के पति के लिए नहीं था। यह हरिवंश राय के बेटे के लिये भी नहीं था। यह था सिर्फ और सिर्फ अमिताभ के लिए।

लंच जाते समय एक बार मन में आया कि कहीं इस बीच अमित जी चले न जाएं। थोड़ा डर भी था। लंच सिर्फ दो मिनट में करके मैं वापस आई, तो जान में जान आई। ग्राउंड फ्लोर खचाखच भरा हुआ था। सुबह 11 बजे से लेकर शाम के 4 बजे तक अमिताभ को देखने वालों का भारी हुजूम खड़ा हो गया था। मैंने जानबूझकर एक दो जनों से पूछा कि इतनी भीड़ क्यों हैं, पहले तो लोगों ने मुझे एक पल देखा और कहा आपको नहीं पता अमिताभ जी आने वाले हैं। लेकिन लगता है कि उन्हे देखने का मौका नहीं मिल पाएगा। मैंने पूछा क्यों? जवाब आया कि सिक्यूरिटी बहुत टाईट है और उन्हें छुपाकर सीधा स्टूडियों तक ले जाया जाएगा। अब अपने काम में मेरी कोई रूचि नहीं बची थी बस पीछे मुड़मुड़कर देख रही थी कि कहीँ अमिताभ आ न गए हो।


चार बजते बजते मैंने एक ऐसे शख्स के चहकने की आवाज सुनी, जो हमेशा सिर्फ गंभीर बातों में ही शामिल रहता है। मनु नाम का यह शख्स बच्चों की तरह उछलते-कूदते हुए बताया: अमिताभ बच्चन आ गए। सभी अपना काम छोड़कर ग्राउंड फ्लोर पर पहुंचे। मैं भी थी। तभी अमित बच्चन की गाड़ी सीधा बेसमेंट में पहुंची और वहां से वे राजदीप के साथ फस्ट फ्लोर पर पहुंचे। राजदीप की चमक फिर भी अलग थी। अपने जादुई अन्दाज के साथ जो मुस्कुराहट राजदीप के चेहरे पर रहती है, वो तब भी थी।

अमिताभ को नही देख पाने के बाद मुझे बहुत गुस्सा आया। मन ही मन सोचती रही कि उन्हें ग्राउंड फ्लोर से उपर ले जाना चाहिए था। मैंने अकेले में सबकों बुरा भला कह रही थी कि तब तक अमिताभ बच्चन उपर हाथ हिलाते दिख गए। मैं खुश हो गई। लेकिन अभी तो और अच्छे से मुझे उन्हें देखना था। नीचे खड़े लोग भी उतने ही खुश नजर आ रहे थे। लगभग बावले हो चुके लोग हाथ हिलाकर अमित जी आई लव यू अमित जी आई लव यू कह रहे थे और सीटी बजा रहे थे। फिर अचानक से अमित जी गायब हो गए। मैं इधर उधर देखने लगी। एकबारगी लगा मेरी जान पहचान का कोई भी वहाँ नहीं है। तभी अरुण दिखा। वह भी इन्ही वजहों से हैरान परेशान! आधी हंसी में मुझसे कहा: चलो अब उपर ही चलते हैं। मैं भी एक अकेली! उसके पीछे चल दी।

उपर भी बहुत भीड़ थी। भीड़ में मनु था। उसके चेहरे की चमक बता रही थी कि वह अमिताभ को देखने और फोटो लेने में सफल हो चुका है। लोग एक दूसरे के उपर चढ़ कर अमिताभ की एक झलक पाने को बेताब थे। मैंने भी संघर्ष किया लेकिन जब असफल रही तो एक किनारे की जगह ले खड़ी हो गई। पर आश्चर्य, पांच मिनट बाद अमिताभ ठीक मेरे बगल में थे! मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं भी उनके साथ तब तक चलती रही जब तक कि वो स्टूडियों के भीतर न पहुंच गए हो। हाथ में एक विजिटिंग कार्ड था और मांगी गई एक पेंसिल कि अगर मौका मिला तो आटोग्राफ लेने में नहीं चूक होगी। लेकिन फिलहाल यह इच्छा तो अधूरी रह गई। वैसे मैंने कहीं पढ़ा है कि जीवन में कुछ इच्छाएं अधूरी रहनी चाहिए, तभी जीवन में आस्था बनी रहती है।

क्या इस गुरुवार को मुझे भगवान से कुछ और भी मांगना चाहिए था?

Saturday, January 30, 2010

अनिल चमड़िया जी, आप डटे रहिये।

परसों रात साढ़े ग्यारह बजे हिसार के होटल में चेक-इन कर रहा था जब चन्द्रिका का फोन आया। उसके मार्फत यह खबर मिली कि अनिल चमड़िया को महात्मा गान्धी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया। इस कुकर्म को चाहे जो नाम दिया जाये, इसके पक्ष में जो तर्क रखे जायें, मैं यही समझ पाया कि अनिल चमड़िया की नौकरी छीन ली गई। कुछ बड़े नामों की एक मीटिंग बुलाई गई और कुछ नियमों का आड़ ले सब के सब उनकी नौकरी खा गये।

हमारे समाज से विरोध का स्वर तो गायब हो ही रहा है, विरोध में उठने वाली आवाजों के समर्थक भी कम हो रहे हैं। यह सरासर गलत हुआ। मेरे पास एक तल्ख उदाहरण है। बचपन की बात है, गाँव में जब हम नंग-धड़ंग बच्चों के बीच कोई साफ सुथरा कपड़ा पहन कर आ जाता था, विशेष कर चरवाही में, तो बड़ी उम्र के लड़के उन बच्चों का मजाक उड़ाते थे और कभी कभी पीट भी देते थे। किसी ना किसी बहाने से,उन बच्चों को जानबूझकर मिट्टी में लथेड़ देते थे। आप समझ गये होंगे मैं कहना क्या चाहता हूँ?
वजहें जो भी हों सच यह है कि अनिल चमड़िया के विशद पत्रकारिता अनुभव से सीखने समझने के लिये विश्वविद्यालय तैयार नही था। वरना जिस कुलपति ने नियुक्ति की, उसी कुलपति को छ: महीने में ऐसा क्या बोध हुआ कि अपने द्वारा की गई एक मात्र सही नियुक्ति को खा गया।(मैं चाहता हूँ कि पिछली पंक्ति मेरे मित्रों को बुरी लगे)। मृणाल पाण्डेय, कृष्ण कुमार, गोकर्ण शर्मा, गंगा प्रसाद विमल और ‘कुछ’ राय साहबों ने अनिल की नियुक्ति का विरोध किया तो इसका निष्कर्ष यही निकलेगा कि पत्रकारिता जगत की उनकी समझ कितनी थोथी है? यह समय की विडम्बना है कि पत्रकारिता जगत में सिर्फ और सिर्फ सम्बन्धो का बोलबाला रह गया है। कितने पत्रकार मित्र ऐसे हैं जो नींद में भी किसी पहुंच वाली हस्ती से बात करते हुए पाये जाते हैं।

आश्चर्य इसका कि कई लोग यह कहते हुए पाये गये: अनिल को विश्वविद्यालय के विपक्ष में बोलने की क्या जरूरत थी। इन गये गुजरे लोगों को यह समझाने की सारी कोशिशे व्यर्थ हैं कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज उठाना कोई ऐसा अपराध नहीं है जिसकी सजा में किसी की नौकरी छिन जाये। वर्धा में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसके खिलाफ सख्त आवाज उठनी चाहिये।

ये हर कोई जानता है कि पात्रता के बजाय सम्बन्धों और ताकत के सहारे चल रही इस दुनिया में विभूति नारायण राय को कोई दोषी नहीं ठहरायेगा। जिस एक्ज्यूटिव काउंसिल के लोगों ने इस धत-कर्म में कुलपति का साथ दिया है उन्हे भी उनका हिस्सा दिया जायेगा। वैसे भी 1995 से अखबार देखता पढ़ता रहा हूँ पर आज तक मृणाल का कोई ऐसा आलेख या कोई ऐसी रिपोर्टिंग नही देखी जिससे लगता हो कि ये पत्रकार हैं या कभी रही हैं। हाँ उदय प्रकाश की एक कहानी में किसी मृणाल का जिक्र आता है जो दिनमान या सारिका में “अचार कैसे डाले” जैसे लेख लिखती है। कुल बात यह कि मृणाल या दूसरे ऐसी पात्रता नही रखते कि वो किसी की नौकरी खा जाये।

अनिल जी, हम लोग कथादेश में तथा अन्य जगहों पर आपके लेख पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। आपसे बहुत कुछ सीखा है। आप एक दफा भी यह बात अपने मन में ना लाना कि आपसे कोई चूक हो गई। आप इस तुगलकी फरमान के खिलाफ लड़ाई जारी रखिये। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप इस लड़ाई में चापलूसों की फौज के सारे तर्क ध्वस्त कर देंगे और ताकतवर जुगाड़ियों को परास्त करेंगे, इस बात का भरोसा है।

Friday, January 29, 2010

कुमार विनोद की कवितायें



कुमार विनोद शहर अम्बाले की पैदाईश। कवि। गज़लसरा। एक कविता संग्रह प्रकाशित। इसी महीने गज़ल संग्रह “बेरंग हैं सब तितलियाँ” आधार प्रकाशन से प्रकाशित। फिलवक्त कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के गणित विभाग में बतौर असोसिएट प्रोफेसर। इनकी गज़लों पर विस्तृत चर्चा के लिये गौतम राजरिशी पर क्लिक। नई बात पर आज इनकी कवितायें। जल्द ही इनकी गज़लों के साथ हाजिर होते हैं।


सफर में

राह में
गर तुम साथ नहीं
तो कोई बात नहीं
बशर्ते कि
अगले पड़ाव पर
फिर से तुम्हारा साथ हो

पत्नी के लिये कवितायें
ऋण


ऋणी बनाने के लिये
क्या माँ ही काफी नही थी
जो तुम
मेरी जिन्दगी में
यूँ चली आई

तुम और मैं

मेरे लिये
तुम
खुशी में
गाया जाने वाला गीत
दु:ख में
की जाने वाली
प्रभु की प्रार्थना

Tuesday, January 26, 2010

हरियाणा के पूर्व प्रधानमंत्री- श्री अटल बिहारी वाजपेयी


गणतंत्र दिवस की शुभकामनाओं वाला यह सन्देश पंजाब केसरी, दैनिक अखबार, के 26 जनवरी 2010 के अंक में है। दरअसल अखबार के इस पृष्ठ पर कुल तीन ऐसे सन्देश है। एक व्यापार प्रकोष्ठ प्रदेश उपाध्यक्ष जगमोहन आनन्द की ओर से, दूसरा भाजपा जिलासचिव दीपक धवन की ओर से और तीसरा जिला प्रधान चन्द्रप्रकाश कथूरिया की ओर से। तीनों में सूचना यही है कि अटल बिहारी बाजपेयी हरियाणा के पूर्व प्रधानमंत्री।
चाहे जितने बड़े मीडिया हाऊस से यह सूचना मिले, यह गलत है। और अगर यह गलत है तो क्या यह एक मामूली चूक है? या अहमन्यता? छपने से पहले यह कितने लोगों की निगाह से गुजरी होगी?







Monday, January 25, 2010

तानाशाह

कुमार अनुपम। उम्र और तेवर से युवा। कुशल चित्रकार।चर्चित हो रहे कवि।बेहतर मित्र। भविष्य में अनुवाद का काम भी करेंगे। अकादमिक परिचय और दो सुन्दर कवितायें यहाँ (अनुनाद) पर।यहाँ ‘तानाशाह’ कविता।

तानाशाह

इस बार आया
तो पूछा इसने कौन बनेगा करोड़पति
दस सरलतम सवाल पूछे
एक सवाल तो यही, तिरंगे में कितने रंग होते हैं
पूछते हुए इसकी वाणी से इतना परोपकार टपक रहा था
जैसे हमें हर हाल में जीतने की मोहलत दी उसने
सही जवाब पर हमारी पीठ ठोंकी
बढ़कर हाथ मिलाया और कुशलतम बुद्धि की
तारीफ की दिल खोलकर

फिर भला किसकी मजाल
जो पूछे उससे
लेकिन तुम क्या मूर्ख हो अव्वल जो इतने सरलतम सवालों पर
दिये दे रहे हो करोड़ों
यहाँ तक कि सन्देह भी नहीं हुआ तनिक उसकी किसी चतुर चाल पर
हमारी अचानक अमीरी की खुशी में वह इस कदर शरीक हुआ
कि नाचने तक लगा हमारे साथ साथ
बल्कि तब अपने निम्न-मध्य रहन-सहन पर हमें लाजवाब लज्जा हुई
हम निहाल होकर उसकी सदाशयता पर सहर्ष सब कुछ हार बैठे

इस बार आया
तो अपने साथ लाया देह-दर्शना विश्वसुन्दरियों का हुजूम
वे इतनी नपी-तुली थीं कि खुद एक ब्रांडेड प्रॉडक्ट लगती थीं
उनकी हँसी और देह और अदाएँ इतनी कामुक
कि हर कीमत उनके लायक बनना हमने ठान लिया मन ही मन
तब गृहस्थी की झुर्रियों और घरेलूपन की मामूलियत
से घिरी अपनी पत्नियों पर हमें एक कृतघ्न घिन-सी आयी
वे शुरू शुरू में किसी लाचारी और आशंका में
अत्यधिक मुलायम शब्दों में प्रार्थना करती हमारे आगे काँपती थीं थरथर
किन्तु इस आपातकाल
से उबरने में उन्होंने गँवाया नहीं अधिक समय
और किसी ईष्र्या के वशीभूत मन ही मन
उन्होंने कुछ जोड़ा कुछ घटाया

और हम एक विचित्र रंगमहल में कूद पड़े साथ साथ

जीवन की तमाम प्राथमिकताओं और पुरखा-विश्वासों
को स्थगित करते हुए हम
अपनी आउटडेटेड परम्पराओं से नजात पाने के लिए दिखने लगे आमादा
यह मानने के बावजूद कि हमारा सारा किया-धरा ब्रांडेड बनावट के बरक्स
बहुत फूहड़ और हमारी औकात क्षेत्रीय फिल्मों के नायक-नायिकाओं से भी गयी-गुजरी
फिर भी एक अजब दम्भ में हम
एक आभासी विश्व की पाने के लिए विश्वसनीयता
सब कुछ करने को तत्पर थे फौरन से पेशतर
हमने अपनी अस्मिता से पाया छुटकारा और जींस पैंट्स और शर्ट की
एक रंग आइडेंटिटी में गुम हो गये हमने खुरच खुरच कर छुड़ा डाले
अपने मस्तिष्क से चिपके एक एक विचार सिवा इस ख्य़ाल के कि अब
हमें सोचना ही नहीं है कुछ
कि हमारे लिए सोचनेवाला
ले चुका है इस धराधाम पर अवतार

अगली बार आया
तो उसके मुखमंडल पर एक दैवीय दारुण्य था
दहशतगर्दी के खिलाफ उसने शुरू किया विश्वव्यापी आन्दोलन जिसे सब
उसी की पैदाइश मानते रहे थे अपने पूर्व पापों के पश्चात्ताप में विगलित उसने
एक देश के ऊर्जा संसाधनों को पूरे विश्व की पूँजी मानने
का सार्वजनीन प्रस्ताव पेश किया विरुद्धों से भी कीं वार्ताएँ सन्धियाँ कीं उसने रातोंरात
और प्राचीन सभ्यताओं की गारे-मिट्टी से बनी रहनवारियों
को नेस्तनाबूत कर डाला यहाँ तक कि हाथ-पंखों और कोनों-अँतरों में छुपती लिपियों
और भाषाओं और नक्काशीदार पतली गर्दनोंवाली सुराहियों को भी कि अगली पीढिय़ों
को मिल न सके उनका एक भी सुराग कि उन्हें शर्मिन्दा न होना पड़े कतई
नये-नवेले उत्तर-आधुनिक विश्व में
उसने कितना तो ध्यान रखा हमारी भावनाओं का


इस बार आया जबकि कहीं गया ही नहीं था
वह यहीं था हमारे ही बीच पिछले टाइप्ड तानाशाहों के किरदारों से मुक्ति की युक्ति
में इतना मशगूल इतना अन्तर्धान कि हमें दिखता नहीं था
पूरी तैयारी के साथ आया इस बार तो उसकी कद-काठी और रंग
बहुत आम लगता था और बहुत अपना-सा
उसने नदी में डगन डालकर धैर्य से मछलियाँ पकड़ीं
उसकी तसवीरें छपती रहीं अखबारों में लगातार
उसने तो सोप-ऑपेरा की औचित्य-अवधारणा में चमत्कारी चेंज ही ला दिया
टीवी पर कई कई दिनों तक उसके फुटेज दिखाए जाते रहे जब वह
हमारी ही तरह अपने बच्चों को स्कूल छोडऩे गया और अपनी दाढ़ी बनवाते हुए
हज्जाम से गाल और गले पर चलवाता रहा उस्तरा
बिना किसी भी आशंका के
उसने कई प्रेम कर डाले और गज़ब तो यह
कि उसने स्वीकार भी किया सरेआम
महाभियोग झेलकर उसने पेश किया प्रेम के प्रति ईमानदार समर्पण का नायाब नमूना
और सबका दिल ही जीत लिया

धीरे धीरे वह ऐसा सेलिब्रिटी दिखने लगा
कि छा गया पूरे ग्लोब पर अपनी मुस्कुराहट के साथ
राष्ट्रों का सबसे बड़ा संघ घबराकर अन्तत:
तय करने लगा अपने कार्यक्रम उसके मन-मुताबिक
तमाम धर्म राजनीति साहित्य दर्शन वगैरह उसकी शैली से प्रभावित दिखने लगे बेतरह

इस तरह तमाम कारनामों के बावजूद
वह इतना शान्त और शालीन दिखता था
कि उसकी इसी एक अदा पर रीझकर
दुनिया के सर्वाधिक प्रतिष्ठित शान्ति पुरस्कार के लिए उसका नाम
सर्व सम्मति से निर्विरोध चुन लिया गया

अब सिरफिरों का क्या किया जाए
सिरफिरे तो सिरफिरे
जाने किस सिरफिरे ने फेंककर मार दिया उसे जूता
जो खेत की मिट्टी से बुरी तरह लिथड़ा हुआ था और जिससे
नकार भरे कदमों की एक प्राचीन गन्ध आती थी।

........................कुमार अनुपम

Saturday, January 23, 2010

होर्खे लुइस बोर्खेस की कविता : अनुपस्थिति

जैसे शमशेर हिन्दी में कवियों के कवि कहे जाते हैं वैसे ही अर्जेंटीना का यह शख्स समूचे विश्व के कवियों का कवि, कथाकारों का कथाकार कहा जाता है। ऐसा रचनाकार जिसके प्रभाव से कोई नासमझ ही बच सकता है। तुर्रा यह कि हिन्दी के साहित्य संसार में कुछ बिल्कुल ही नही लिखने वाले लेखकों ने मौलिकता को लेकर जो काट मार मचा रखी है उनके लिये आईना हैं बोर्खेस, इन्होने हमेशा हमेशा प्राचीन कथाओं का पुनर्लेखन ही किया है। यहाँ उनकी कविता।
अनुपस्थिति

जागना होगा समूचे जीवन, वह जीवन
जो फिलवक्त तक तुम्हारा आईना है:
हर सुबह उसे फिर से होगा जोड़ना।
जब से तुम छोड़ आई उन्हें,
न जाने कितनी जगहें हो चलीं असार
और बेमतलब की, जैसे
दिन में रौशनी।
शामें जो तुम्हारे ख्वाब का ठिकाना हुआ करती थीं,
गीत, जिनमें तुम हमेशा मेरा इंतजार करती थी,
उस वक्त के शब्द को,
लुटाते रहना होगा अपने हाथों से।
किस कंदरा में छुपाउंगा अपनी आत्मा को
ताकि सहनी न हो तुम्हारी अनुपस्थिति
जो प्रचंड धूप सी, बिन सूर्यास्त वाली,
चमकती है कठोर - निर्मम?
तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे घेरती है
जैसे कोई रस्सी गले को,
जैसे समुद्र
जो डुबोता हो।
.........होर्खे लुइस बोर्खेस
(अनुवाद श्रीकांत का। अनुवाद की दुनिया में श्रीकांत ने जर जमा बीस पच्चीस दिन बिताये हैं और पूत के पाँव पालने में दिखा गया की तर्ज पर श्रीकांत के पास तमाम सम्पादको उप सम्पादकों के फोन जा रहे हैं। सभी को उससे रचनायें चाहिये। हाल ही उसके द्वारा अनुदित मार्खेज की कहानी राजस्थान के एक अखबार ‘डेली न्यूज’ में प्रकाशित होने वाली है। शायद आज ही। तुम्हे बधाई, श्रीकांत।)

Friday, January 22, 2010

भाई, ये महाराष्ट्र कोई और देश है क्या?

(‘नई बात’ पर सबकुछ भले ढंग से चल रहा है पर एक चीज की कमी खल रही थी-वो थी समसामयिकी की। साथियों की तैयारी से अब वो भी कमी दूर किये देते हैं। कोई बड़ा दावा करने की जगह हम यह कहेंगे कि हर हफ्ते किसी खबर को अपने तईं देखने समझने की कोशिश करेंगे। यह भी जरुरी नही कि खबर बिल्कुल नई ताजी हो। पुरानी बात को हम बार बार, हजार बार कहेंगे-अगर कहने की जरूरत महसूस हुई तो..। इस बार पूजा सिंह का यह ब्लॉगालेख मुंबई की दु:खद परंतु सनातन समस्या पर...। टैक्सी ड्राईवरी के लाईसेंस खेल पर। पूजा की कविता आप पहले इस ब्लॉग पर पहले पढ़ चुके हैं।)
भाई, ये महाराष्ट्र कोई और देश है क्या?

जहाँ तक मुझे जानकारी है मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है। और शायद महाराष्ट्र भारत का ही एक प्रदेश है। कहा जा सकता है कि मुंबई भारत का प्रवेश द्वार भी है। देश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाली मायानगरी, मुंबई में समृद्धि सिर्फ मराठी वासियों से नहीं आई है बल्कि इसे समृद्ध बनाने में गुजरातियों, दक्षिण भारतीयों तथा यू.पी. बिहार बासियों के साथ अन्य प्रदेश के लोगों की भी अहम भूमिका रही है। मुंबई ने हमेशा से देश के लोगों का ही नहीं बल्कि विदेशियों का भी तहेदिल से स्वागत किया है।

उसी मुंबई में, बाल ठाकरे के बाद एमएनएस के सुप्रीमो राज ठाकरे ने गैर मराठी लोगों को जिस तरह से महाराष्ट्र से बाहर करने का आंदोलन चला रखा है अब उसी को आगे बढ़ाने का काम कांग्रेस कर रही है। केंद्र के साथ-साथ महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस सरकार ने बुधवार को एक फैसले के तहत, राज्य में टैक्सी चालकों के लिए 15 साल के स्थाई निवास के अलावा मराठी भाषा को बोलना, पढ़ना और लिखना अनिवार्य बना दिया है। अब नए टैक्सी चालकों को इन शर्तो को मानना जरूरी होगा अन्यथा उन्हे टैक्सी चलाने का परमिट नहीं दिया जाएगा।

जब इस बात का विरोध हुआ तो माननीय मुख्यमंत्री ने यह कहते हुए अपना बयान बदल लिया है कि मराठी भाषा की जगह उसे(ड्राईवर को) क्षेत्रीय भाषा मराठी, हिन्दी या गुजराती आनी चाहिये। अब इस महान आत्मा को कौन समझाये कि हिन्दी क्षेत्रीय भाषा नही है। विश्व भर में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषाओं मे हमारी हिन्दी का स्थान चौथा है। सबसे दुखद यह है कि क्या मुंबई में सिर्फ हिन्दी भाषी, गुजराती और मराठी ही रहते हैं? दक्षिण भारत का वो विशाल जनसमूह जो मुम्बई में बसा है और अपने श्रम से मुंबई के चहुँमुखी विकास में सहायक है क्या उसे महाराष्ट्र सरकार ने बाहरी आदमी मान कर बाहर भेजने का मन बना लिया है? कोई है जो मुख्यमंत्री के इस बयान को शालीन मानेगा? क्या मुख्यमंत्री को इतने छिछले बयान देने चाहिये?

तुर्रा यह कि अब इस मुद्दे को एक मीडियॉकर नेता, दूसरे की आवाजो की नकल उतार उतार कर अपनी राजनीति चमकाने वाला, ‘वीर’ मराठा राज ठाकरे ने अपने हाथों में ले लिया है। उनका कहना है कि जिन चार हजार नई परमिटों की बात चल रही है, उसमें से अगर एक भी परमिट मराठी मानुस के बजाय किसी और को मिली तो......। इस ‘तो’ का मतलब कौन नही जानता? ...’तो’ यह खानदानी बिगड़ैल, ताकत के नशे में चूर सड़को पर हिंसा का नंगा नाच मचायेगा। आमीन!

देश के सामने इस समय सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद, गरीबी, जनसंख्या और अशिक्षा है न कि मुंबई से गैर-मराठी लोगों का बहिष्कार। और फिर वहां से गैर-मराठी लोग जाएं भी क्यों? हम भारत के नागरिक हैं और वहां रहने का हमारा मूलभूत अधिकार है। जब भारतीय मूल के लोग विदेशों में अच्छे ओहदे पर देखे जाते हैं तो हम अलग ही खुशफहमी में जीते हैं कि अपना आदमी वहां है और वहां की तरक्की में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। फिर भेदभाव सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ ही क्यों जबकि ये कहीं और नहीं अपने देश में रह कर अपना पेट ही तो पाल रहे हैं। सबको पता होना चाहिए कि जब कोई आदमी अपने जड़ के अलग होता है तो किसी दूसरी जगह बसने में उसे कितनी पीड़ा सहनी पड़ी होगी। किसी नए समाज में अपने आपको स्थापित करने में उसे कितना संघर्ष करना पड़ता होगा यह तो उस व्यक्ति विशेष से ही पूछकर जाना जा सकता है।

जबकि संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत देष के नागरिकों को जम्मू कश्मीर को छोड़कर कहीं भी बसने और रोजगार करने का अधिकार मिला हुआ है। फिर सिर्फ राजनीति करने के लिए ऐसी ओछी हरकत क्यों। भारतीय संविधान की प्रस्तावना की वह लाइन ‘’हम भारत के लोग ...’’ मुझमें हमेशा राष्ट्रीयता का संचार करती है। लेकिन देश को तोड़ने जैसी घटनाएं आए दिन घटित हो रहीं हैं, कभी जाति, धर्म तो कभी भाषा को ही आधार बना कर लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है।

तिस पर भी लोकतंत्र के ये पहरुये आम आदमी की मुश्किल बढ़ाने पर लगे हुए हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है, जो मैने पढ़ रखा है, वो यह कि मुख्यमंत्री, मंत्री और सरकारें जनता की भलाई के लिये होती हैं। चाहे चारो तरफ के उदाहरण मेरी जानकारी को गलत ठहरा रहे हो फिर भी प्लीज कोई ये मत कहना कि मैने गलत पढ़ रखा है। कुछ झूठ मुझे अच्छे लगते हैं।


.............................पूजा सिंह

Wednesday, January 20, 2010

सरदर्द

मस्तिष्क के किसी कोने में रखी तुम्हारी
आहटें चींथती हैं, मुर्झायी कोई कील चुभती
है, जैसे छेनी हथौड़ी से सर की हड्डियों
पर कशीदाकारी की जा रही हो कोई
ठक ठक ठक
लगातार
ठक ठक ठक

मृत्यु इच्छा की तरह प्यारी लगती है
अपने अनकिये अपराध खूब याद आते
है समय ठहर जाता है जब सुबह सुबह
आने वाले इस संकट का आभास मुझे
होता है मैं तैयार होने लगता हूँ अपने
आप से लड़ना कठिन है दर्द का ईश्वर
उस पार से मुझे देख मुस्कुराता है मेरी
लुढ़की गर्दन, जिसके हिलने भर से हजार
हजार बिच्छुओं का डंक लगता है, जानती
है दर्द के उस पापी ईश्वर से अलग मेरे
लिये कोई नही, अब कोई भी नहीं

फौरन से पेश्तर मैं जीने की अपनी
असीम आकांक्षा किसी को भी बताना
चाहता हूँ,
ताकि सनद रहे।

........सूरज

Monday, January 18, 2010

गाब्रिएल गार्सिया मार्केस की कहानी- गांव में कुछ बहुत बुरा होने वाला है।

गाब्रिएल गार्सिया मार्केस(गाबो)। जिसे अंग्रेजी में कहते हैं- लिविंग लिजेंड। अपने समय का सबसे बड़ा किस्सागो। यकीन करें, इस रचनाकार का कोई भी परिचय अधूरा रह जायेगा। पर अगर आपको शब्दों पर भरोसा नहीं रहा, अगर साहित्य आपको (कुछ निम्नदर्जे के बुद्धिभोगियों की तरह) बेकार बेजान चीज लगती है, अगर धोखा फरेब को ही दुनियावी मूल्य समझते हैं(और क्या पता करते भी हों) तब आप इस रचनाकार की कोई एक कृति पढ़िये, आपको जीवन से प्यार हो जायेगा।दुनिया सुन्दर लगेगी।
गांव में कुछ बहुत बुरा होने वाला है
एक बहुत छोटे से गांव की सोचिए जहां एक बूढ़ी औरत रहती है, जिसके दो बच्चे हैं, पहला सत्रह साल का और दूसरी चौदह की। वह उन्हें नाश्ता परस रही है और उसके चेहरे पर किसी चिंता की लकीरें स्पष्ट हैं। बच्चे उससे पूछते हैं कि उसे क्या हुआ तो वह बोलती है - मुझे नहीं पता, लेकिन मैं इस
पूर्वाभासके साथ जागी रही हूं कि इस गांव के साथ कुछ बुरा होने वाला है।
दोनों अपनी मां पर हंस देते हैं। कहावत हैं कि जो कुछ भी होता है, बुजुर्गों को उनका पूर्वाभास हो जाता है। लड़का पूल’ खेलने चला जाता है, और अभी वह एक बेहद आसान गोले को जीतने ही वाला होता है कि दूसरा खिलाड़ी बोल पड़ता है- मैं एक पेसो की शर्त लगाता हूं कि तुम इसे नहीं जीत पाओगे।
आस पास का हर कोई हंस देता है। लड़का भी हंसता है। वह गोला खेलता है और जीत नहीं पाता। शर्त का एक पेसो चुकाता है और सब उससे पूछते हैं कि क्या हुआ, कितना तो आसान था उसे जीतना। वह बोलता है-.बेशक, पर मुझे एक बात की फिक्र थी, जो आज सुबह मेरी मां ने यह कहते हुए बताया कि इस गांव के साथ कुछ बहुत बुरा होने वाला है।
सब लोग उस पर हंस देते हैं, और उसका पेसो जीतने वाला शख्स अपने घर लौट आता है, जहां वह अपनी मां, पोती या फिर किसी रिश्तेदार के साथ होता है। अपने पेसो के साथ खुशी खुशी कहता है- मैंने यह पेसो दामासो से बेहद आसानी से जीत लिया क्योंकि वह मूर्ख है।
“और वह मूर्ख क्यों है?”
भई! क्योंकि वह एक सबसे आसान सा गोला अपनी मां के एक एक पूर्वाभास की फिक्र में नहीं जीत पाया, जिसके मुताबिक इस गांव के साथ कुछ बहुत बुरा होने वाला है।
आगे उसकी मां बोलती है-तुम बुजुर्गों के पूर्वाभास की खिल्ली मत उड़ाओ क्योंकि कभी कभार वे सच भी हो जाते हैं।
रिश्तेदार इसे सुनती है और गोश्त खरीदने चली जाती है। वह कसाई से बोलती है-एक पाउंड गोश्त दे दोया ऐसा करो कि जब गोश्त काटा ही जा रहा है तब बेहतर है कि दो पाउंड मुझे कुछ ज्यादा दे दो क्योंकि लोग यह कहते फिर रहे हैं कि गांव के साथ कुछ बहुत बुरा होने वाला है।
कसाई उसे गोश्त थमाता है और जब एक दूसरी महिला एक पाउंड गोश्त खरीदने पहुंचती है, तो उससे बोलता है- आप दो ले जाइए क्योंकि लोग यहां तक कहते फिर रहे हैं कि कुछ बहुत बुरा होने वाला है, और उसके लिए तैयार हो रहे हैं, और सामान खरीद रहे हैं।
वह बूढ़ी महिला जवाब देती है- मेरे कई सारे बच्चे हैं, सुनो, बेहतर है कि तुम मुझे चार पाउंड दे दो।
वह चार पाउंड गोश्त लेकर चली जाती है, और कहानी को लंबा न खींचने के लिहाज से बता देना चाहूंगा कि कसाई का सारा गोश्त अगले आधे घंटे में खत्म हो जाता है, वह एक दूसरी गाय काटता है, उसे भी पूरा का पूरा बेच देता है और अफवाह फैलती चली जाती है। एक वक्त ऐसा जाता है जब उस गांव की समूची दुनिया, कुछ होने का इंतजार करने लगती है। लोगों की हरकतों को जैसे लकवा मार गया होता है कि अकस्मात, दोपहर बाद के दो बजे, हमेशा की ही तरह गर्मी शुरू हो जाती है। कोई बोलता है- किसी ने गौर किया कि कैसी गर्मी है आज?
लेकिन इस गांव में तो हमेशा से गर्मी पड़ती रही है। इतनी गर्मी, जिसमें गांव के ढोलकिये बाजों को टार से छाप कर रखते थे और उन्हें छांव में बजाते थे क्योंकि धूप में बजाने पर वे टपक कर बरबाद हो जाते।
जो भी हो, कोई बोलता है, इस घड़ी इतनी गर्मी पहले कभी नहीं हुई थी।
लेकिन दोपहर बाद के दो बजे ऐसा ही वक्त है जब गर्मी सबसे अधिक हो।
हां, लेकिन इतनी गर्मी भी नहीं जितनी कि अभी है।
वीरान से गांव पर, शांत खुले चौपाल में, अचानक एक छोटी चिड़िया उतरती है और आवाज उठती है- चौपाल में एक चिड़िया है।
और भय से काँपता समूचा गाँव चिड़िया को देखने आ जाती है।
लेकिन सज्जनों, चिड़ियों का उतरना तो हमेशा से ही होता रहा है।
हां, लेकिन इस वक्त पर कभी नहीं।
गांव वासियों के बीच एक ऐसे तनाव का क्षण आ जाता है कि हर कोई वहां से चले जाने को बेसब्र हो उठता है, लेकिन ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाता।
मुझमें है इतनी हिम्मत, कोई चिल्लाता है, मैं तो निकलता हूं।
अपने असबाब, बच्चों और जानवरों को गाड़ी में समेटता है और उस गली के बीच से गुजरने लगता है जहां से लोग यह सब देख रहे होते हैं। इस बीच लोग कहने लगते हैं- अगर यह इतनी हिम्मत दिखा सकता है, तो फिर हम लोग भी चल निकलते हैं।
और लोग सच में धीरे धीरे गांव को खाली करने लगते हैं। अपने साथ सामान, जानवर सब कुछ ले जाते हुए।
जा रहे आखिरी लोगों में से एक, बोलता है- ऐसा न हो कि इस अभिशाप का असर हमारे घर में रह सह गई चीजों पर आ पड़े .और आग लगा देता है .फिर दूसरे भी अपने अपने घरों में आग लगा देते हैं।
एक भयंकर अफरा तफरी के साथ लोग भागते हैं, जैसे कि किसी युद्ध के लिए प्रस्थान हो रहा हो। उन सब के बीच से हौले से पूर्वाभास कर लेने वाली वह महिला भी गुजरती है- मैंने बताया था कि कुछ बहुत बुरा होने जा रहा है, और लोगों ने कहा था कि मैं पागल हूं।
(इस कथा का स्पेनिश मूल से हिन्दी अनुवाद श्रीकांत का है। बाईस वर्ष के इस नौजवान ने एक डिप्लोमा कोर्स और अकूत मेहनत के सहारे स्पेनिश भाषा पर जो पकड़ हासिल की है, काबिले तारीफ है। )

Saturday, January 16, 2010

विदूषक

ब्लॉगी दुनिया के साथियों के रविवार की छुट्टी के दिन यह कहानी। कहानीकार सुशील सिद्धार्थ। उत्तर प्रदेश के एक गाँव में जन्म। हिन्दी साहित्य में पी-एच.डी.। व्यंग्यकार, आलोचक और अब कथाकार। इन्हे अपनी गद्यात्मक तस्वीरें अच्छी लगती हैं। एक प्रकाशन संस्थान में नौकरी।

विदूषक

उस कमरे में तापमान पर पंचमहाभूतों का कोई नियन्त्रण नहीं था। उसमें बैठे लोगों के अनुकूल रहने में ही उसकी भलाई थी। कमरे में आते ही देश और काल का बोध दिवंगत हो जाता था।... ऐसी जगह प्रखर बैठा था। थोड़ा संशोधन करें तो वहाँ पन्द्रह बीस भद्र, सम्भ्रान्त, पूँजीपति, नवाचारी बैठे थे जिनके सामने प्रखर बैठा था। सामने के लोग मदिरापान के मध्यान्तर में थे। चेहरे की त्वचा तनी, आँखें चढ़ी, जुबान विह्वल और लगभग स्थितप्रज्ञ! प्रखर को आने में थोड़ा विलम्ब हो गया था। पता पूछने और बिल्डिंग में आने के बाद भी खुद को सँभालने में समय लगा। जब द्वारपाल के साथ प्रखर घुसा तो कुशल की साँस में साँस जैसी कोई चीज आयी, ''आओ आओ! हम सब कब से तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं। तुम पर यकीन करके हमने आज की शाम किसी और को बुलाया भी नहीं था। शाम बर्बाद हो जाती तो ये बास्टर्ड मुझे तबाह कर डालते!” बास्टर्ड शब्द में इतनी आत्मीयता भरी थी कि सबके चेहरे चमक उठे। प्रखर अपने से कई गुना हैसियत की कुर्सी पर नामाकूल की तरह बैठ गया।

बैठ तो गया, मगर अब उसे असली काम शुरू करना था। तैयारी की कमी और माहौल के हौलनाक असर ने प्रखर को उजबक बना दिया था। वह सोच ही रहा था कि कुछ तो शुरू करूँ कि तभी गंजे सिर वाले ने कहा, ''भाई कुशल ने तुम्हारी बड़ी तारीफ की है... अब दिखाओ अपना आर्ट।“ प्रखर ने घबराकर कुशल की ओर देखा, ''मगर मुझे तो ऐसा कोई लतीफा याद नहीं, मेरे पास ऐसी दिलचस्प बातें नहीं, जिन्हें सुनाकर मैं आपका मनोरंजन कर सकूँ। मुझे ऐसी कोई कहानी याद नहीं पड़ती जिस पर आपको हँसी आ सके। मैं शायद आज की इस शाम को खराब करने के लिए माफी माँगने की तैयारी कर रहा हूँ।“ कुशल का चेहरा उतरने लगा। एक पतले साहब बोले, ''अरे परेशान मत हो। तुम कुछ भी सुनाओ, हम उसमें हँसने का स्पेस तलाश लेंगे। तुम लोगों को अभी आइडिया ही नहीं है कि हम लोग किन किन बातों पर ठहाके लगाते हैं। हमारे कहकहों की हकीकत तुम लोगों को अभी पता कहाँ है!” प्रखर का हौसला स्थिर होने लगा और कुछ-कुछ आत्मविश्वास लौटने लगा। उसने विनम्रता से कहा, ''देखिये, आप लगातार मुझे तुम कहे चले जा रहे हैं। मैं जिस कल्चर का हूँ वहाँ आप कहते हैं। लोग लड़ाई करें गालियाँ दें, बलात्कार करें, दलाली करें... कहते आप ही हैं। आप लोग आप कहेंगे तो अच्छा लगेगा।“
भूरी शर्ट वाला उठा, लडख़ड़ाता, फिर फर्शी सलाम-सा करता बोला, ''आपकी...।“ उसने ऐसी ऐसी गालियाँ देनी शुरू कीं कि प्रखर के कान लाल हो गये। कमरे में मौजूद लोग अब मूड में आ रहे हैं ऐसा उनके लाल हो चुके चेहरे बता रहे थे। भूरी शर्ट वाले ने एक चुनिन्दा गाली को स्वरबद्ध किया और चुटकियाँ बजाकर डाँडिया सा करने लगा... ''आपकी माँ की...”।सारे लोगों को राह दिख गयी। वे भी चुटकियाँ बजाकर सामूहिक रूप से डाँडिया करने लगे। जल्द ही प्रखर बीच में आ गया। उसको गोल घेरे में लेकर लोग चुटकी बजा रहे थे, गुनगुना रहे थे और खिलखिला रहे थे। कुशल भी उनमें शामिल था। प्रखर कुशल के द्वारा सुझाये गये पार्टटाइम काम में घिर चुका था।

''तो यह बात है”। कुशल ने प्रखर की पूरी बात सुनकर इत्मीनान से कहा था।... कुशल ने अपनी रिवाल्विंग चेयर को दाहिने पैर के जोर से नचा दिया। गोल गोल घूमते हुए वह बच्चों की तरह रटने लगा, “काम काम काम।“ लग नहीं रहा था कि कुशल अपने ऑफिस में है। एक विदेशी कम्पनी का दिल्ली स्थित ऑफिस। 'काम’ शब्द जैसे एक बिछड़े दोस्त की तरह उसे मिल गया था। जिसके हाथ पकड़ कर वह नाच रहा था। प्रखर के भीतर समय घूम कर वहाँ पहुँच गया था जहाँ कक्षा आठ के दो विद्यार्थी स्कूल में लगी फिरकनी पर चक्कर खाने का मजा लूट रहे थे। दोनों बी.ए. तक साथ पढ़े। कुशल के पिता का ट्रांसफर हो गया। प्रखर लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए. करता रह गया। कुशल की याद आती तो थी पर कर भी क्या सकता था। वो जमाना मोबाइल क्रान्ति का नहीं था।

यहाँ वहाँ भटकता प्रखर दिल्ली आया। उसे एक प्राइवेट संस्था में काम मिल गया था। सैलरी को गारिमापूर्ण बनाने के लिए उसे 'पैकेज’ कहा जाने लगा था। प्रखर और उस जैसे अगणित इसी पैकेज में जिन्दा थे। कोई सैलरी के बारे में पूछता तो प्रखर अपना सिद्ध वाक्य दुहराता, ''स्त्री से उसकी आयु और पुरुष से उसकी आमदनी नहीं पूछी जाती।“ विद्यार्थी जीवन में प्रखर अपने चुस्त जुमलों के लिए प्रसिद्ध था। लड़कियाँ तारीफ करती थीं और लड़के रश्क। धीरे-धीरे सारे 'सुभाषित’ किसी खस्ताहाल मकान की दीवारों पर टँगे रंगीन बदरंग चित्रों की तरह झूलते गये। प्रखर जिस संस्था में काम करता था, उससे पूरा नहीं पड़ता। जाहिर है तनाव में रहता।

तनाव से भरा और गुस्से से उबलता प्रखर उस दिन आई.टी.ओ. पर खड़ा था। एक ब्लू लाइन बस से उतरा था और दूसरी पकड़ कर लक्ष्मीनगर जाना था। जिस बस से उतरा था उसमें मुर्गों की तरह सवारियाँ भरी थीं। बस से उतरते ही मन किया कि फूट फूट कर रो पड़े। उसके दाहिने घुटने में सूजन थी। जब उसने इसका हवाला देकर पिछली सीट पर बैठे लोगों से छह की जगह सात सवारी एडजस्ट करने की बात कही थी तो एक आदमी ने अजीब-सा अश्लील चेहरा बनाकर कहा कि बैठना है तो बोल... बहाने क्यों बनाता है! यहाँ तो सबका कुछ-न-कुछ सूजा रहता है, किसी का घुटना... किसी की...। प्रखर मारे गुस्से के खड़ा ही रहा। इस वक्त उसके भीतर हिचकियाँ जारी थीं, यह बात और है कि उसकी आँखें गीली होकर शहर के सौन्दर्य को बिगाड़ नहीं रही थीं।... कि तभी सामने से गुजरती एक कार रुकी। उसमें से कोई झाँकता-सा लगा। कार का शीशा ऊपर से नीचे लुप्त हुआ और किसी ने कहा, ''अरे प्रखर तू!” प्रखर ने गौर से देखा। यह कुशल था।

कुशल का दफ्तर पटपडग़ंज की तरफ था। किसी विदेशी कम्पनी ने दिल्ली में दलाली के लिए उसे रख छोड़ा था। दफ्तर ज्यादा बड़ा न था, मगर रौब पड़ता था। औपचारिकताएँ खत्म होते ही कुशल ने गम्भीर होकर कहा, ''तुझे याद है, नवीं क्लास में तूने मुझे एक बार थप्पड़ मारा था!” दरवाजा बन्द था। सहसा प्रखर डर गया! ऐसा तो नहीं कि कुशल उछल कर उसे एक तमाचा रसीद कर दे। ''तू सीरियस हो गया” कुशल मुस्कराया। प्रखर को राहत मिली, ‘अबे नहीं साले।‘ अबे और साले शब्द पर्याप्त सावधानी और सभ्यता से कहे गये थे। दिक्कतों ने सावधानी और सभ्यता के पाठ पढ़ा दिए थे।
प्रखर ने अपनी रामकहानी मुख्तसर में सुनायी तो कुशल ने सिर्फ इतना कहा, ''यार, अब इस सोसाइटी को कुशल की जरूरत है, प्रखर की नहीं। खैर बता मैं क्या कर सकता हूँ तेरे लिए।‘ प्रखर कॉफी पीने के बाद आश्वस्त हो गया था। उसने कहा कि मुझे कुछ पार्टटाइम काम दिला दो। गरीबी की रेखा की तरह एक रेखा भय की भी होती है। मैं आजकल उसी के नीचे रहता हूँ। इतना सुनते ही कुशल 'काम काम काम’ रटता गोल गोल घूमने लगा, कुर्सी पर।

''मिल गया काम” कहते हुए कुशल ने कुर्सी रोक ली। बोला, ''प्रखर, आगे का आगे सोचेंगे... फिलहाल एक काम फौरन हाथ में है।“ प्रखर ने उत्सुकता चेहरे पर एकत्र कर ली तो कुशल ने बताया कि उसका बीस पचीस लोगों का एक ग्रुप है— 'आईडीसी’। मतलब 'आई डोन्ट केयर।‘ ग्रुप के सदस्य अपनी अपनी फील्ड में ऊँचे मकाम पर हैं। राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, बिजनेस मैन वगैरह। हर वीकएंड पर आईडीसी के सदस्य एक खास जगह इकट्ठा होते हैं। खाते-पीते हैं। मनोरंजन के लिए कभी किसी टैरो कार्डरीडर, कभी लाफ्टर चैलेंज के प्रतिभागी, कभी किसी कभी किसी को बुला लेते हैं। वेराइटी का ध्यान रखा जाता है। हैंडसम अमाउंट दिया जाता है। एक बार तो गैंग रेप की शिकार दो लड़कियों को बुलाया था। उन्होंने खूब डिटेल से अपने अनुभव सुनाए थे। मेम्बर्स ने बहुत एंज्वाय किया था। सब रिलैक्स हो गये थे। हमें एक-दूसरे के साथ अपने अनुभव शेयर करने चाहिए। यही तो ग्लोबलाइजेशन है। तुम्हारी कहानी सुनने के बाद ऐसी फील आ रही है कि इसमें एंज्वाय करने की काफी सम्भावना है। तुम्हारे दुख इस काबिल हैं कि उन पर ठहाके लगाये जा सकें। सोचो यार, इस नश्वर दुनिया में रखा ही क्या है। तुम्हारी वजह से हमें आनन्द मिलेगा। कितनी बड़ी बात है। और तुम्हें पार्टटाइम जॉब! यह उससे बड़ी बात है। तुमने खुद को प्रूव कर दिया तो हम तुम्हें विदेश भी भेज सकते हैं। आजकल मसखरी में बड़ी सम्भावनाएँ हैं।... यह लो कार्ड। इस पते पर टाइम से पहुँच जाना।

लोग थोड़ा हाँफने लगे तब डाँडिया रुका। सब अपनी जगह बैठ गये। प्रखर भी। कुशल ने इशारा किया। प्रखर ने शुरू किया, ''आप कहें तो मैं बेतरतीब तरीके से कुछ बातें आपके सामने रखता हूँ। आजकल मुझ पर शब्दकोश देखने का खब्त सवार है। अभी गे कल्चर का मामला उठा तो मैंने एक लेख लिखना चाहा। समलैंगिकता से हटकर शब्द तलाश रहा था तो एक शब्द मिला— 'पुंमैथुन।“ 'पुंमैथुन’ सुनते ही ठहाके लगने लगे। ''और तो सुनिये। एक और शब्द मिला— 'भगभोजी’। इसका मतलब होता है कि वह आदमी जो अपनी पत्नी, बेटी, बहन या किसी अन्य को औरों के सामने पेश कर आजीविका चलाता है।“ प्रखर हँसी की उम्मीद कर रहा था। मगर सब गम्भीर थे। एक ने कहा, ''तुम लोगों की सोच में ही खोट है। तुम सोचते हो कि जो हाई लेबल पर कामयाब हैं वे यही सब करके कामयाब हैं। किसने छापा है यह! बताओ। साले का धन्धा बन्द करवा दूँगा।“ सहसा एक बुजुर्गवार पर प्रखर की निगाह पड़ी। वे मामले को हाथ में लेने के लिए कसमसा रहे थे। बोले, ''शान्त! शान्त!! मैंने सर्विस टाइम में कल्चर, लैंग्वेज, लिटरेचर वगैरह को काफी हैंडल किया है। मैं समझ सकता हूँ। वैसे चिन्ता की कोई बात नहीं। इनके सारे शब्दकोश हमारे अंडकोश के नीचे ही रहते हैं”। अब वाह वाह की आवाजें आने लगीं और हँसी की लहर चल पड़ी।

कुशल के इशारे पर प्रखर ने भी जाम उठा लिया था। अब वह भी मुस्करा रहा था। बुजुर्ग सज्जन को सब अंकल अंकल कह रहे थे। अंकल ने पूछा, ''लेकिन तुम्हें यह सब पढऩे की लत कैसे पड़ी।“ प्रखर पर सुरूर का पहला छींटा पड़ चुका था, ''अपने गुरु की वजह से। वे इतना शुद्ध बोलते थे कि एक बार नक्शा नवीस उनके मकान का नक्शा बनाकर लाया तो बोले, 'क्या इन आकर्षित रेखाओं का अक्षरश: अनुगमन अनिवार्य है!’ उन्होंने ही यह लत डलवाई। मैं उनकी खूब सेवा करता था। उनकी पत्नी बहुत सुन्दर थीं। मेरे ऊपर कृपालु थीं। मैंने दोनों की खूब सेवा की।... मगर अफसोस। मेरी सारी इच्छाएँ अधूरी रह गयीं। काश मुझे अलादीन का चिराग मिल जाता जिसे रगड़ रगड़ कर मैं सारी इच्छाएँ पूरी कर लेता!” अंकल ने अगला जाम उठाया, ''गलत... सरासर गलत। चिराग मिला था तुम्हें। उसे रगड़ रगड़ कर तुम अपना हर काम करवा सकते थे। विश्वविद्यालय में नियुक्ति पा सकते थे। गुरु की पत्नी ही थीं अलादीन का चिराग। सुना मेरे चिरागदीन!” अंकल ने छत फाड़ ठहाका लगाया, सब लोग ताली पीट पीट कर मजा ले रहे थे। शोर-ओ-गुल के बीच अंकल ने एक के कन्धे पर हाथ रखा, ''बेटा डोंट माइंड। मैंने तुम्हारे बारे में कुछ नहीं कहा।“ अब लोग सोफे और कुर्सियों पर उछल रहे थे।

सेवक लोग खाने पीने का सामान चुकने से पहले ही रख जाते थे। कुशल का चेहरा बता रहा था कि उसने प्रखर को यहाँ बुलाकर कोई गलती नहीं की। प्रखर भी सुरूर की गिरफ्त में आ रहा था। उसके दिमाग में पता नहीं क्या क्या गूँजने लगा था। वह गिलासों को देखकर 'आधा भरा या आधा खाली’ की थ्योरी पर चिन्तन कर रहा था। सोच रहा था कि हे चिन्तकों, यह भी सोचो कि जो आधा भरा है वह है क्या। हमारे आधे में संघर्ष ही भरे हैं और खाली में भी यही भरे जाएँगे। प्रखर भीतर यह नि:शब्द बोल रहा कि प्रकट रूप में चिल्ला उठा, ''अपना अपना जीवन है सर! आप लोग मौज कर रहे हैं, हम लोग हड्डी पर कबड्डी खेल रहे हैं!” मोटी तोंद वाले ने खुश होकर कहा, ''क्या स्मार्ट डायलाग है पुत्तर।“ प्रखर लहरों पर चल रहा था, ''और ये हड्डियाँ इस मुल्क के आम आदमी की हैं। देखिएगा, इनसे एक दिन वज्र बनेगा और दुष्टों का संहार होगा।“ प्रखर के सामने एक मोटी चेन वाला मोबाइल पर बात करते-करते आ खड़ा हुआ। वह कह रहा था, ''कुछ देर होल्ड करना।“ फिर प्रखर से मुखातिब हुआ, ''जय लटूरी बाबा की! जो बोल रहे थे फिर से कहना तो।“ प्रखर को लगा कि उसके जुमले हिट हैं। रूपक इसके दिल को छू गया है। उसने शब्दों की नोक पलक सुधार सब दोहरा दिया। रूपक पूरा होते होते मोटी चेन वाले का एक थप्पड़ अनुप्रास अलंकार की तरह प्रखर के गाल पर पड़ा। प्रखर धड़ाम से एक ओर गिर गया। चेन वाला अपनी जींस के उभार की ओर संकेत कर दाँत पीस रहा था, ''असली वज्र है ये, समझे मिस्टर आम आदमी।“

अंकल ने किसी तरह प्रखर को उठाया। कुशल प्रखर की पीठ थपथपा रहा था।, ''डोंट माइंड, यह सब हमारे खेल का हिस्सा है। सुर्खरू होता है इन्साँ ठोकरें खाने के बाद!” अंकल ने लोगों की ओर खास निगाह से देखा। सबने अपनी अपनी जेब से लिफाफे निकाल कर मेज पर रख दिए। अंकल और कुशल ने भी। अंकल ने लिफाफे उठाकर एक पैकेट में रखे। प्रखर को देते हुए बोले, ''ले लो... अरे ले भी लो... अरे आप ले भी लीजिये। तुम तो आर्ट ऑफ लाफिंग के मास्टर हो। हम फिर तुम्हें बुलाएँगे। आये तो बस से होगे जाना टैक्सी में। वरना हमारी इंसल्ट होगी। जब मैं कार में चलते हुए आजू बाजू कीड़े मकोड़ों की तरह बिलबिलाते लोगों को देखता हूँ तो रोना आ जाता है। मन करता है कीड़ों वाली दवाई स्प्रे करता चलूँ और कीड़े मकोड़े पट पट गिरते रहें।“

द्वारपाल ने प्रखर का हाथ पकड़ लिया था। लोग आपस में बातें कर रहे थे। अंकल कुशल से कह रहे थे, ''यह तो अपनी ही तरह का अनूठा विदूषक निकला। तुम्हारे भी परिचय में कैसे कैसे लोग भरे पड़े हैं।“ प्रखर चल पड़ा। लोगों के ठहाके उस पर नये पूँजीवाद की तरह बरस रहे थे।

Thursday, January 14, 2010

लोहड़ी और अपनी भाषा

यह यादगारी मैं चलती कार में लिख रहा हूँ, बॉस लोग सो रहे है और मेरे पास यही भर मौका है। इन दिनों यात्राओं में ऐसा व्यस्त हूँ कि अपने लैपटॉप के पासवर्ड की याद भर है और इतना भी समय नहीं मिल रहा कि पासवर्ड को एक बेहद जरूरी खत लिखूँ। पर इस बीच एक सुनाने लायक बात घटी। हुआ ये कि मैं, मेरा बॉस, मेरी कम्पनी का एक प्रॉडक्ट मैनेजर 13 जनवरी को जम्मु की यात्रा पर थे। कुल 570 किलोमीटर। सुबह सात बजे हम चले। ठंढ यह कह रही थी कि आज नहीं तो कभी नहीं। ये सबको पता था कि रात दस बजे से पहले पहुंचना नही होगा। बॉस का ड्राईवर, यहीं जिक्र कर दूँ, पंजाबी है।

रास्ते भर हमारे पास हैपी लोहड़ी के फोन और सन्देश आते रहे। इनदिनों पंजाब और हरियाणा में खूब सारी व्यवसायिक और आत्मीय मित्र बने हैं। रास्ते में हम जब पैसे और टारगेट की बात करते करते थक जा रहे थे तब लोहड़ी की बात कर ले रहे थे। पंजाब से गुजरते हुये ऐसी रौनके नहीं दीख रही थी जैसी हमने (और आश्चर्य कि हम सबने!) उम्मीद की थी। लोहड़ी पर बाजार बन्द नहीं थे। कार के डेक में सुबह से आरती और भजन बज रहे थे।
शाम ढल रही थी। ड्राईवर बार बार कभी बॉस के, कभी मेरे फोन से अपने घर फोन कर रहा था और लोहड़ी की तैयारियों के बारे में पूछ रहा था। जब कभी उसकी पत्नी फोन पर नही मिल रही थी तो नाराज भी हो ले रहा था। बात बात में पंजाबी गानों का जिक्र छिड़ गया। बड़े मैनेजर और अधिकारियों को ऐसा हमेशा लगता है कि वे दुनिया की सारी बाते जानते हैं। यहाँ भी। इन दिनों मैं पंजाबी गीत संगीत पर कुछ काम कर रहा हूँ और इसी सिलसिले में गुरुदास मान के गानों की एक सीडी मेरे लैपटॉप में पड़ी हुई थी। पंजाबी गीतों की किसी बात पर प्रॉडक्ट मैनेजर ने कोई शर्त मढ़ी थी और मैने वो सीडी निकाल ली। अब इस शर्त को भूल जाईये।
असल में हुआ यह कि गुरुदास मान की सीडी देख ड्राईवर की खुशी का पारावार नहीं रहा। सीडी लगाते ही हमने जो गाना सुना वह था: लाई बेकद्रा नाल यारी, टुट गई तड़क कर के। बेहतरीन गीत। फिर तो सारे पद ओहदे भूल ड्राईवर ने मेरा हाथ पकड़ लिया। उसकी खुशी कैसी थी ये मैं चाहूँ तो भी नहीं बता पाउंगा। उसने करीब चार गाने सुने और चारो बार बॉस से कहा: ‘’चन्दन सर ने मेरी लोहड़ी बना दी।‘’ अपनी भाषा के करीब होने भर से त्यौहार मन गया।

हमने कोई अलाव नहीं जलाया। कोई रेवड़ी ना ही खाई, ना ही जलाई। तिल के लड्डू याद किये। गुरुदास मान के गीत सुने और लोहड़ी मनाई।

Monday, January 11, 2010

जब हम देखते हैं तो क्या देखते हैं?


(कुणाल सिंह के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास का एक और महत्वपूर्ण अंश, तस्वीर भी कुणाल की ही )

हाँ तो सन् 1760 की कथा चल रही थी जब ज़मींदारी खत्म कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के तीन कारिन्दे मालगुजारी के नियमों में हुए बदलाव की घोषणा करने आदिग्राम पहुँचे थे। कहते हैं कि तब यहाँ जंगल का फैलाव मीलों मील था। नलहाटी बाज़ार तो अँग्रेजों के यहाँ आने के बाद बसा, जब जी.टी. रोड से नज़दीकी के कारण वहाँ अनाज मंडी और गोदाम बनाये गये। इधर जहाँ आज रानीरहाट है, वहाँ पहले कुछ मुसलमान घर थे और बाद में रानी रासमणि के नाम पर उस जगह का नाम रानीरहाट पड़ गया। इस पूरे इलाके का ज़मीदार का नाम बाबर था, जिसकी कोठी आदिग्राम में थी। कोठी अब खंडहर में तब्दील हो चुकी है, जहाँ बाघा और दक्खिना ने अपनी गृहस्थी बसा रखी है।

ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरफ से जो तीन कारिन्दे आए थे, उनमें दो गोरे थे और तीसरा काला। काले को साथ में इसलिए रखा गया था क्योंकि वह मूलत: यहीं का रहने वाला था, सो इलाके के भूगोल से भली-भाँति परिचित था। दूसरे, वह गोरे साहबों की भाषा भी जानता था और यहाँ बोली जाने वाली देसी भाषा भी।

आदिग्राम के किसानों ने जब जाना कि अब उनकी ज़मीन उनकी नहीं रही, ईस्ट इंडिया कम्पनी की हो गयी है, और इस पर खेती करने के लिए उन्हें फसल का एक हिस्सा कम्पनी को देना होगा, तो वे मरने-मारने पर उतारू हो गये। एक दिन आदिग्राम के जंगलों में दोनों गोरे अफसरों की लाश पायी गयी। काले को इसलिए जि़न्दा छोड़ दिया गया कि वह जाकर अपने हुक्मरानों को इसकी इत्तेला कर सके। उन दो गोरे अफसरों में हैट और चुरुट वाला, भारत का पहला अँग्रेज कलक्टर था और दूसरा जो उससे थोड़ी कम उम्र का, लेकिन ज़्यादा अनुभवी लगता था, दारोगा था।

आदिग्राम के इतिहास में होने वाला यह पहला कत्ल था, और एक नहीं दो-दो, दोनों ही गोरे अफसर। दूर-दूर से लोग आए थे देखने। छूकर देख रहे थे कि गोरी चमड़ी को छूने में कैसा लगता है। लाशों की मिट्टी काठ की तरह कड़ी हो गयी थी। लोग तय नहीं कर पा रहे थे कि लाशों को हिन्दुओं की तरह जलाया जाए या मुसलमानों की तरह दफ्न किया जाए। हिन्दू तैयार नहीं थे कि जहाँ उनके शवों का दाह किया जाता है वहाँ किसी म्लेच्छ का भी अन्तिम संस्कार हो और दूसरी तरफ मुसलमान भी अपने कब्रिस्तान में उन्हें कोई कब्र देने के लिए राज़ी नहीं हो रहे थे। इलाके के इतिहास में यह पहली बार था जब दो-दो लाशों को यों ही छोड़ दिया गया जंगली जानवरों के हवाले। जंगली जानवरों ने पहली बार इंसानी खून चखा।

दस-पन्द्रह दिन के भीतर आदिग्राम का चप्पा-चप्पा गोरे-काले फौजियों से भर गया। जंगल के सीमान्त प्रदेश में सात-आठ सौ तम्बू लग गये, जगह-जगह तोप, बंकर। लोगों के चेहरे पर भय की काली परछाइयाँ उतरने लगीं। फौज के कमांडर ने गाँव में घूम-घूमकर मुनादी करवा दी कि जो किसान कम्पनी को मालगुजारी देने में आनाकानी करेगा, उसे सरेआम कोड़े से पीटा जाएगा। अगर वह फिर भी राज़ी नहीं हुआ, तो उसे सूली पर टाँग दिया जाएगा। इस प्रकार रातोंरात पूरे इलाके पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज हो गया। सारी ज़मीन एक झटके में कम्पनी की हो गयी। अब किसान अपनी ही ज़मीन पर मजदूरी करेंगे। फसल बोने से पहले उन्हें कम्पनी की इजाज़त लेनी पड़ेगी कि धान रोपें या मान लीजिए अफीम या नील की खेती करें।

इतना होने के बाद, जैसे यह काफी नहीं था, पाँच-छ: साल बाद भीषण अकाल पड़ा। अब तक दर्ज इतिहास में बंगाल पर पडऩे वाला पहला अकाल। लोग दाने-दाने के लिए मोहताज हो गये। चारों तरफ हाहाकार मच गया। लेकिन कम्पनी ने मालगुजारी में कोई रियायत नहीं बरती। खाने को अन्न नहीं, मालगुजारी कहाँ से दे! बच्चे बूढ़े सब पर कोड़े बरसे, औरतों ने अफसरों की सेवा-टहल तक कबूल कर ली, फिर भी मालगुजारी चुक्ता करने भर पैसे इकट्ठा नहीं हुए।

परिमलेन्दु दा बताते हैं कि एक तरफ तो बंगाल के इस इलाके में इतना भीषण अकाल पड़ा था, दूसरी तरफ ईस्ट इंडिया कम्पनी के कारिन्दों का मालगुजारी वसूलने के लिए इतना अमानवीय अत्याचार। धीरे-धीरे अकाल की मार से बचे हुए लोगों में विद्रोह की चिनगारी सुलगने लगी। वे एकजुट होकर छिटपुट हमले करने लगे। कम्पनी के कारिन्दों की लाशें कभी पोखर से तो कभी जंगल से बरामद होतीं। बाद के वर्षों में आदिग्राम में दो और अँग्रेज कलक्टरों की हत्या हुई। इतिहास में इस विद्रोह को 'चुआड़ विद्रोह’ कहा गया। अँग्रेज इस विद्रोह को कुचलने में नाकामयाब हो रहे थे। इलाके के बच्चे-बच्चे तक तीरन्दाज़ी में पारंगत हो चुके थे। जंगलों में गुप्त मीटिंगें होतीं और आगे की कार्रवाई की रूपरेखा तैयार की जाती। 'जान दूँगा, ज़मीन नहीं दूँगा’ जैसे नारे पहली बार इतिहास में तभी गूँजे थे।
लेकिन परिमलेन्दु दा ये किस इतिहास की बात कर रहे हैं? स्कूल के पाठ्यक्रम में इतिहास की जो पुस्तक लगी है, उसमें कहाँ किसी 'चुआड़ आन्दोलन’ और 'जान दूँगा, ज़मीन नहीं दूँगा’ जैसे नारों का जिक्र आता है? कोलकाता से पढ़-लिखकर आए इतिहास के सर भी इस बारे में कुछ नहीं जानते। ...और वह 27 अक्तूबर वाली घटना? बच्चों ने जि़द की कि परिमलेन्दु दा एक बार फिर से 27 अक्तूबर वाली कथा सुनाएँ।

रानी रासमणि ने इलाके की औरतों को बटोरकर एक लड़ाकू वाहिनी तैयार की थी। 27 अक्तूबर, 1770 की घनघोर अँधेरी रात जब कम्पनी के कुछ कारिन्दे नलहाटी बाज़ार से बैलगाडिय़ों पर धान लादकर चले तो उन्हें इस बात का ज़रा भी अन्दाज़ा नहीं था कि उनके साथ क्या होने जा रहा है।

नलहाटी से जी.टी. रोड पकड़कर कलकत्ते की ओर बढ़ें तो बशीरपुर के पास आधेक मील तक रोड जंगल से होकर गुज़रता है। कृष्ण पक्ष की अँधेरी रात। जंगल में चारों तरफ झिंगुरों की चिर्र-चिर्र, साँपों की सिसकारियाँ। जुगनुओं की चौंध उरूज पर थी। धान से लदी चार बैलगाडिय़ाँ थीं, सबके नीचे एक-एक लालटेन लटक रहा था। लालटेन की रोशनी आगे कुछ फलाँग भर पीला उजाला कर रही थी, फिर दूर दृश्य के अँधेरे में बिला जाती थी।
पहली बैलगाड़ी पर एक बन्दूकधारी सिपाही भी बैठा था। बैल सुस्त चाल में चलते-चलते जब एकाएक ठिठक गये तो उसकी नींद में झिपझिपाती आँखें खुलीं। उसने चौंककर गाड़ीवान को देखा। गाड़ीवान के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं, यह उस मद्धिम रोशनी में भी साफ-साफ दिख गया। आँखों की पुतलियाँ स्थिर पड़ गयी थीं, मानो पत्थर की हो गयी हों। वह सामने की तरफ देख रहा था। सिपाही ने उसकी दृष्टि का अनुसरण करते हुए जब सामने की तरफ देखा, उसकी भी घिघ्घी बँध गयी।

पहली नज़र में तो लगा, जंगल के घनघोर अँधेरे में कहीं से दूधिया रोशनी का एक फौव्वारा फूट निकला हो। धीरे-धीरे रोशनी के केन्द्र में एक स्त्री आकृति उद्भासित हुई। सिपाही ने देखा, उस स्त्री की देह पर एक सूत भी कपड़ा नहीं था। बाल खुले हुए पीछे, जैसे घुटनों तक काले पानी का कोई झरना गिर रहा हो। शरीर का हर अंग अनावृत होकर जैसे सम्पूर्ण हो गया हो, और इस दर्प से भरकर दमकने लगा हो। केले के थम्ब जैसी चिकनी जाँघें, पेट के सुडौल खम और निर्दोष गोलाइयों वाले स्तन जैसे दुनिया की नश्वरता और असम्पूर्णता का उपहास उड़ा रहे हों। उसकी देह से छिटकती रोशनी में दुनियावी मिट्टी का कण मात्र नहीं था, वह मानो स्वर्ग से उतरी कोई अप्सरा हो।

सिपाही को काठ मार गया। वह अपनी जगह पर बुत बन गया। कम्पनी का वह जाना-माना बन्दूकची था। सिपाही पद पर नियुक्ति से पहले उसे बन्दूक चलाने की ट्रेनिंग दी गयी थी। उसका निशाना इतना पक्का था कि उड़ती हुई चिडिय़ा के पंख झाड़ देता था। नियुक्तिपूर्व वह हर अभ्यास में अव्वल आया था। उसका कद छ: फुट से ऊपर था। चौरस चेहरा, प्रकांड सिर, घने-घुँघरीले बाल, गलमुच्छे। उसके शरीर में दैत्य का बल था। चलता था तो धरती धम्म-धम्म बजती थी। वह उखड़े हुए अरबी घोड़े की लगाम पकड़कर मिनटों में उस पर काबू पा लेता था। अशर्फी को मुट्ठी में जकड़कर चूरमा बना डालता था। पेड़ को अँकवार में पकड़कर जड़ समेत उखाड़ फेंकता था। पूरा मेमना एक बार में खा जाता था और डकारता भी नहीं था। लोगबाग उसका नाम सुनकर ही काँप जाते थे। लेकिन जीवन में पहली बार डर के मारे उसकी पेशानी पर पसीने की बूँदे चुहचुहा आईं।

रानी रासमणि उसके करीब आई। लालटेन की पीली रोशनी में उसने रासमणि के अंडाकार चेहरे को देखा। भँवों की गोलाई, मछलियों जैसी उसकी आँखें देखीं। गरदन की धारियाँ और नीचे की फीकी त्वचा जहाँ से स्तन उगने शुरू हुए थे, बायीं तरफ एक काला तिल था। सिपाही उस तिल पर जाकर अटक गया। उसे लगा, उसके भीतर के सारे दरवाज़े एकाएक भड़भड़ाकर बन्द पड़ गये हों। उसने अपने घुटनों में हल्की कँपकँपी महसूस की। पेडू में रह-रहकर एक मरोड़-सी उठ रही थी। हलक में मानो काँटे उग आये हों। उसने कई बार अपने होंठ गीले करने की कोशिश की। धड़कनों की रफ्तार इतनी बढ़ गयी थी कि लगता था छाती के पंजरे फट पड़ेंगे। सिपाही पद पर नियुक्ति के वक्त उसे बिल्कुल नहीं सिखाया गया था कि ऐसी स्थिति में उसे क्या करना चाहिए। उसके पास कारतूस से भरा बन्दूक था, लेकिन आज वह एक छोटे-से तिल से हार गया था।

तभी पीछे से कई स्त्रियाँ आईं और बैलगाडिय़ों से धान की बोरियाँ उतारने में लग गयीं। सिपाही समेत सारे गाड़ीवान उन्हें ऐसा करते देखते रहे और अपनी जगह पर बुत बने रहे। बोरियाँ उतारकर उन्होंने एक दूसरे की पीठ पर लादी और जैसे आई थीं, वैसे ही अँधेरे में बिला गयीं। रानी रासमणि ने सिपाही के कन्धे पर हाथ रखा। एकाएक सिपाही के शरीर में रक्त का प्रवाह बढ़ गया। सबसे पहले उसकी नाक से खून की बूँदें निकलीं, टपकने लगीं। दाँतों-मसूढ़ों से खून निकलकर होंठों को रँगने लगा। उँगलियों की पोरें फट गयीं। कनपटी के पीछे से खून की एक झिझकती-सी रेखा निकल पड़ी। हड्डियाँ तिड़कने लगीं। रासमणि के निर्वस्त्र शरीर की आँच से सिपाही झुलसने लगा, उसकी चमड़ी गलने लगी। चारों तरफ मांस जलने की एक चिरचिराती-सी गन्ध फैल गयी। देखते-देखते सिपाही का पूरा शरीर गलकर बहने लगा। सिपाही फना हो गया।

ऐसी रानी रासमणि ने इलाके के ज़मींदार बाबर से शादी क्यों की? कहते हैं कि बाबर अमावस की अँधेरी रात की तरह काला था, उसकी तोंद निकली हुई थी, उसकी एक आँख पत्थर की थी, उसे एक कान से सुनाई नहीं देता था, वह लँगड़ा कर चलता था और उसकी देह से हमेशा पसीने की एक अजीब खट्टी गन्ध आती थी। क्या इन्हीं सब वजहों से इस दुनिया में सिर्फ वही था जो रानी रासमणि से ब्याह कर सकता था?

लेकिन मूल प्रश्न था कि रानी रासमणि ने बाबर में ऐसा क्या देखा जो उससे शादी कर ली! फोटोग्राफर से पूछा जाए कि देखना आखिर कहते किसे हैं! फटिकचन्द्र के बहुत से साथियों को बिलकीस अच्छी नहीं लगती, लेकिन जब फटिक उसे देखता है तो बस देखता ही रह जाता है। वह अक्सर अपने दोस्तों को सफाई देता है कि तुम लोग जिस दिन उसे मेरी नज़र से देखोगे, समझ जाओगे। किसी और की नज़र से भला कैसे देखा जाए! दो लोगों की नज़र में दुनिया दो तरह की दिखती होगी। इज़राइल मियाँ-इस्माइल मियाँ इतने एक जैसे थे कि भले ही उन्हें दुनिया दो तरह की दिखती हो, लेकिन दुनिया उन्हें एक ही नज़र से देखती थी। वे भी चालाकी से अपनी अलग-अलग देखी दुनिया को परस्पर साझा कर लिया करते थे। एक कहता था, भाई याद रखना मैंने बेनी माधव की बहू से मज़ाक किया है और कहा है कि तुम मुझे बहुत सुन्दर लगती हो। उस दिन के बाद से बेनी माधव की बहू दूसरे भाई को भी सुन्दर लगने लगती। मुलाकात होती तो वह भी कहता, तुम मुझे बहुत सुन्दर लगती हो जी! बेनी माधव की बहू कहती, ओहो, कितनी बार कहोगे! इसी तरह जो भाई अपने अब्बा के साथ दुकान पर बैठा, वह नलहाटी बाज़ार में मुंशीगिरी करने के बाद लौटे हुए भाई को यह ज़रूर बता देता कि आज बंशी पोद्दार ने पचास रुपये का बकाया सामान लिया है, ताकि दूसरे दिन अगर उसकी जगह मुंशी भाई दुकान पर बैठे तो बकाया वसूल न सही, कम से कम तगादा तो कर सके। दोनों भाई अपने साथ घटने वाली हर छोटी-बड़ी घटना का जिक्र एक दूसरे से करते। इस प्रकार बाकियों के लिए अगर चौबीस घंटे के दिन-रात हों तो इज़राइल मियाँ-इस्माइल मियाँ के लिए अड़तालीस घंटे के होते थे। यह प्रकृति के शाश्वत नियमों का उल्लंघन था। दुनिया में एक आदमी एक ही वक्त दो-दो जगहों पर मौजूद रहे, यह दुनिया की आँखों में धूल झोंकने जैसा था। इसलिए दुनिया ने षड्यन्त्र रचकर एक देश के दो टुकड़े कर दिए और दोनों को अलग-अलग दो देशों में डाल दिया। बीच में सरहद खींची, बी.एस.एफ. का दस्ता तैनात कर दिया।
जब हम देखते हैं, तो आखिर क्या दिखता है! जो हमें दिखता है, ऐन वही क्या गाय भैंस बकरी को भी दिखता है? गाय भैंस बकरी की नज़र से देखा जाए तो दुनिया घास से भरी हुई एक टोकरी है। उन्हें हर जगह घास ही घास दिखता होगा। अगर कहीं नहीं दिखता तो घास की तलाश में वे पृथ्वी के दूसरे कोने तक चले जाएँगे। पर्वत पठार गुफा समन्दर सब लाँघ जाएँगे, लेकिन जब लौटेंगे तो उनके पास सिर्फ घास के संस्मरण होंगे। वे घास के बारे में बतियाते होंगे, उस पर कविता-कहानी लिखते होंगे, रियलिटी शो और टैलेंट हंट करवाते होंगे और पुरस्कार स्वरूप जीतने वाले के घास-फूस के घर को एक टाल घास से भर देते होंगे।
फोटोग्राफर को जब अपने देखने पर यकीन नहीं होता कि उसने सिटकनी लगायी है या नहीं, तो वह उसे छूकर देख लेता है। लेकिन तारों को देखना हो तो उन्हें कैसे छुआ जाए! किसी तारे को देर तक एकटुक देखते रह जाया जाए जो वह सिहरकर टिमटिमाने लगता है। सूरज की रोशनी या दिन को देखना इतना अदृश्य होता है कि उन्हें अलग से नहीं देखना पड़ता। दोपहर के वक्त किसी पेड़ के दृश्य में दिन की रोशनी का दिखना इतना घुला-मिला होता है जैसे दूध में पानी। हंस को पेड़ का दिखना और दिन का दिखना अलग-अलग दिख जाता होगा। अँधेरे में बिना टॉर्च या लालटेन के चलो तो रास्ता नहीं दिखता, सिर्फ अँधेरा दिखता है। जुगनुओं को दिखने के लिए अँधेरे का इन्तज़ार करना पड़ता है। रात के अँधेरे में कहीं रातरानी खिली हो तो उससे आती खुशबू उसका पता बता देती है। रातरानी कभी नहीं देख पाती कि वह कितनी खूबसूरत है और एक दिन मुरझा कर गिर जाती है। रासमणि और रातरानी में कितनी समानता है! दोनों ही एक दूसरे की तरह अन्धी हैं।

Sunday, January 10, 2010

निज़ार कब्बानी की दो कवितायें


निज़ार कब्बानी (1923-1998) अरब जगत में प्रेम , ऐंद्रिकता , दैहिकता और इहलौकिकता के कवि अपनी कविता के बल पर बहुत लोकप्रिय नामचीन गायकों ने उनके काव्य को वाणी दी है. साहित्यिक संस्कारों वाले एक व्यवसायी परिवार में जन्में निज़ार ने दमिश्क विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि प्राप्त करने के बाद दुनिया के कई इलाकों में राजनयिक के रूप में अपनी सेवायें दीं जिनसे उनकी दृष्टि को व्यापकता मिली. उनके अंतरंग अनुभव जगत के निर्माण में स्त्रियों की एक खास भूमिका रही है ; चाहे वह बहन की आत्महत्या हो या बम धमाके में पत्नी की मौत. परिचय साभार कबाड़खाना. यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी दो कवितायें.


जब जब मैं तुम्हे चूमता हूँ


हर लम्बी जुदाई के बाद
जब मैं तुम्हे चूमता हूँ
मुझे महसूस होता है
किसी लाल पोस्टबॉक्स में
कोई प्रेम पत्र छोड़ रहा होऊँ


गर्मियों में


गर्मियों में
मैं समुद्र किनारे पड़ा रहता हूँ
और तुम्हारे बारे में सोचता हूँ
तुम्हे लेकर मैं क्या महसूसियत रखता हूँ
अगर यह कभी मैं समुद्र को बता देता
तब ये समुद्र अपने कूल-किनारे
अपने घोंघो
अपनी मछलियों को छोड़
मेरे पीछे चला आया होता

Wednesday, January 6, 2010

मार्ती - निकोलस गियेन की कविता

निकोलस गियेन: क्यूबा के ‘राष्ट्रीय कवि’। ‘ब्लैक पोयट्री’ के प्रतिनिधि कवि। पूरा नाम निकोलस क्रिस्तोबाल गियेन बतिस्ता। क्यूबा के कामाग्वे में जन्म (1902-1989)। कवि, पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता।यह कविता क्यूबा के पूर्वोत्तर में स्थित एक शहर मार्ती पर है।

मार्ती

ओह!
मत सोचो कि उसकी आवाज
एक आह है! जिसके पास है
परछाईं के हाथ
और धुँधली दृष्टि हैं बूँदे जैसे
ठंड से काँपती कोई तिल किसी
गुलाब पर
उसकी आवाज
दरार डाल दे चट्टान में, उसके हाथ
दरका दे लोहे, उसकी आंखे
पहुंच जायें जलती हुई रात के जंगलों तक,
रात के काले जंगल

उसे छेड़ो: पाओगे कि जलाता है तुम्हे
उसे हाथ दो: देखोगे उसकी खुली बाहें
जिसमे समा जाये समूचा क्यूबा
जैसे तूफान में मजबूत पंखो वाली
चमकदार तोमेगिन।

पर जरा रात में चलो इसके पीछे:
आह! क्यों खींचती हैं तुम्हे स्वच्छ राहें
उसकी रौशनी किसी रात में।

मार्ती: क्यूबा के पूर्वोत्तर का शहर।
तोमेगिन: सुरीली आवाज में गाने वाला फिन्च समुदाय का पक्षी।

(श्रीकांत दुबे ने इस कविता का अनुवाद स्पानी भाषा से किया है। उनकी कविताओं से पूर्व परिचित हम जैसो के लिये यह सुखद है कि वो अनुवाद के बहुतेरे काम कर रहें है जो इस ब्लॉग पर समय-दर-समय आती रहेंगी। सूचनार्थ: ये मार्खेज की कुछ ऐसी रचनाओं का अनुवाद कर रहे हैं जो अंग्रेजी में भी उप्लब्ध नहीं हैं। )

Tuesday, January 5, 2010

रूपक अलंकार का बहुत उदास उदाहरण

मैं सरो-सामान से लैस सफर पर निकला
हर भले आदमी के रेल की तरह मेरी रेल
भी आई, मैने रोटी खाई ठंढा पानी पिया
खुशी की चादर बिछाई, अटूट नींद सोया
इस उम्मीद से कि अगली सुबह मंजिल
पर हूँगा, मेरा खास सफर पूरा हो जायेगा

सुबह हुई और लोग
मेरे हाल पर हंसे
रेल पूरी रात वहीं
उसी स्टेशन पर
खड़ी रह गई थी

वजहें मौजूद थीं
जो ढूंढ ली गईं


तुम्हारे बगैर मैं
वही रेल हूँ
मंजिल से दूर वही
अभागा हूँ
मैं कहीं नहीं पहुँच पाउंगा
मैं तो जी भी नहीं पाउंगा
तुम्हारे बगैर।


..........................सूरज
कवि से सम्पर्क-soorajkaghar@gmail.com

Saturday, January 2, 2010

मिर्जा ग़ालिब की शाइरी पर लेखमाला, लेखक डॉ. कृष्णमोहन।

मिर्ज़ा ग़ालिब। दुनिया के महानतम काव्य विभूतियों में से एक। या शायद सर्वोत्तम।

डॉ. कृष्णमोहन। हिन्दी आलोचना के सशक्त हस्ताक्षर। मुक्तिबोध की प्रमुख कविताओं पर किताब। साहित्यालोचना पर आपकी किताब “आधुनिकता और उपनिवेश”। हिन्दी कथा साहित्य की विशद पड़ताल करती आलोचना पुस्तक “कथा समय” शीघ्रातिशीघ्र प्रकाश्य। हिन्दुस्तानी कविता पर महत्वपूर्ण काम। पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन। ग़ालिब पर यह लेखमाला किश्तों में चलेगी। सम्प्रति, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर।

अय आफ़ियत किनारा कर अय इंतिज़ाम चल

ग़ालिब की शाइरी के सामाजिक राजनीतिक आशयों को लेकर कई तरह के भ्रम हैं। पिछले दिनों 1857 के सन्दर्भ में बात करते हुए अनेक अध्येताओं ने उन्हे नये सिरे से व्यक्त किया है। कविता की सामाजिक भूमिका की गलत समझ और भारतीय काव्य-परम्परा की अवहेलना के कारण यह समस्या पैद हुई है। हम यहाँ संक्षेप में इन्हीं पहलुओं पर विचार करेंगे।

ग़ालिब की एक अपेक्षाकृत कम उद्धृत की गई ग़ज़ल के चन्द शेर हैं-

गुलशन में बंदोबस्त बरंगे–दिगर है आज
कुमरी का तौक हल्का-ए-बेरूने-दर है आज

आता है एक पारा-ए-दिल हर फुग़ां के साथ

तारे-नफस कमंदे-शिकारे-असर है आज

अय आफ़ियत किनारा कर अय इंतिज़ाम चल
सैलाबे-गिरिया दर पै-ए-दीवारो-दर है आज

पहले शेर का आशय है कि बग़ीचे का इंतज़ाम आज दूसरे ढंग का हो गया है। पहले जो फंदा चिड़िया के गले के इर्द-गिर्द था, अब वह दरवाजे का दायरा बन गया है। ऊपरी तौर पर तो चिड़िया अपना गीत गाने के लिए तो आजाद है, लेकिन यह आज़ादी एक बड़े कैदखाने के अन्दर की आज़ादी है। आबो-हवा में उन्मुक्तता की जगह घुटन भर गई है, और पूरा माहौल प्रदूषित हो गया है। यह फ़र्क शासकवर्गीय कठोरता और उदारता का है। 19वीं सदी में अंग्रेजों ने इन हथकंडों का बखूबी इस्तेमाल किया था। हमारे मौजूदा शासक भी अक्सर इसका स्वांग भरते दिख जाते हैं। यहाँ ‘दूसरे (दिगर) ढंग का इंतज़ाम’ की बात में व्यंग्य और विडंबना है। अव्वल तो वह पहले से अलग है नहीं, और फिर उसे आज़ाद करने वाला समझा जा रहा है जबकि वह गुलामी को ही और गहराई देता है।

दूसरे और तीसरे शेर में इसी परिस्थिति से उपजी मन:स्थिति का बयान है। इस स्थिति में हर कराह के साथ दिल का एक टुकड़ा बाहर आ जाता है। इससे प्रभावित व्यक्ति की सांस का हर तार मानो कमान बन गया है, जिससे छूटने वाला तीर उसके दिल में पैबस्त हो जाता है।

‘ऐ दिल की शांति तू अपनी राह ले और ऐ व्यवस्था तू चलती रह। आंसुओं की बाढ़ आज घरबार को ढा देने पर उतारू है।‘

ग़ालिब के अधिकांश आधुनिक अध्येताओं के साथ समस्या यह है कि वे उन्हें वास्तविक सन्दर्भों से काटकर पढ़ते हैं। नतीजा यह निकलता है कि उनके शेर शाब्दिक अर्थ तक सीमित हो जाते हैं और उनकी व्यंजना खो जाती है।....(जारी..)


Friday, January 1, 2010

युवा कथाकार कुणाल सिंह का पहला उपन्यास – "आदिग्राम उपाख्यान"

अप्रतिम युवा कथाकार कुणाल सिंह। अभिनव भाषा, बेहतरीन गद्य और नई सूझ बूझ से लैस कथाकार। ‘सनातन बाबू का दामपत्य’ कथा संग्रह खूब चर्चित। पारम्परिक किस्म के आलोचकों की पहली (ना)पसन्द। बावजूद इसके, लोग इनकी रचनाओं का इंतजार करते हैं। पच्चीस तक की उम्र कलकत्ते में गुजारी और अब पिछले तीन सालों से दिल्ली में। यह पहला उपन्यास- ‘आदिग्राम उपाख्यान’। आज की तारीख में बेहद मौजूँ विषय वस्तु।
इस उपन्यास के अंश नितांत पहली बार कहीं भी प्रकाशित हो रहे..नववर्ष के पहले पहल दिन पर...। उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य।


किस बाबरनामे में आदिग्राम का जिक्र आता है?

परिमलेन्दु दा ने बच्चों को जिस रानी रासमणि की कथा सुनाई थी, वह कोई सचमुच की रानी नहीं थी। वह एक गरीब चासी (किसान) की बेटी थी, जिसकी मौत बंगाल के अकाल में चावल की खुशबू से हुई थी। बंगाल में अकाल कब पड़ा था, पूछने से इतिहास के सर बताते हैं कि सन् तैंतालीस की बात है। रानी रासमणि की शादी बाबर से कब हुई थी, पूछा जाए तो परिमलेन्दु दा कहेंगे कि सन् 1760 की बात है जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस पूरे इलाके को गोरे-काले फौजियों और तोपचियों से भर दिया था। बाबर कौन था, यहाँ कहाँ से आया था, पूछने से इतिहास के सर बताते हैं...। यह सब क्या गोलमाल है! परिमलेन्दु दा एक साथ कितनी कहानियों को जोड़-गूँथ देते हैं।


अच्छा, बाबर मतलब तो मुस्लिम, फिर उसकी शादी रानी रासमणि से क्योंकर हुई! होती है क्या? फटिकचन्द्र पूछना चाहता है कि इज़राइल मियाँ-इस्माइल मियाँ की बेटी बिलकीस से वह चाहे तो ब्याह कर सकता है क्या! पिछले बरस गौरांग पूजा के टाइम उसने बिलकीस को एक हेयरबैंड और रोटोमैक की कलम दी थी। लिखते-लिखते लव हो जाए। बिलकीस ने मुस्कराकर कहा था— आईलवयू।

इज़राइल मियाँ-इस्माइल मियाँ दोनों जुड़वाँ भाई थे। बचपन से ही वे दोनों इतने एक जैसे थे कि उनके अम्मी-अब्बा भी उन्हें सही-सही नाम से पहचानने में धोखा खा जाते थे। जब तक दोनों ने होश सम्भाला, तब तक किसका नाम इज़राइल है और किसका इस्माइल, यह पता कर पाना मुश्किल था। हो सकता है बचपन में कई बार इनके नामों में अदला-बदली भी हुई हो। अन्तत: लोगों ने इसका समाधान ऐसे निकाला कि जब भी किसी एक से काम पड़ता, वे दोनों का ही नाम लेकर पुकारते। जब वे स्कूल जाने जितने बड़े हुए, आर्थिक तंगी के कारण उनके अब्बा ने स्कूल में दोनों में से एक को ही दाखिला दिलवाया— इज़राइल हसन। लेकिन गुप्त बात यह थी कि कभी इज़राइल स्कूल चला जाता तो कभी इस्माइल। इस तरह गाँव वालों को बहुत मुश्किल से दोनों को अलग-अलग पहचानने का एक नुस्खा मिला कि दोनों में से जो भी स्कूल जाए वह इज़राइल, और जो न जाए तत्काल के लिए वह इस्माइल। स्कूल के रजिस्टर की मानें तो इज़राइल हसन ही पढ़ा-लिखा है और इस्माइल हसन काला अक्षर भैंस बराबर है। इस प्रकार 'इज़राइल हसन’ नाम ने छठी दर्जा पास कर लिया और 'इस्माइल हसन’ नाम अब्बा के साथ हाइवे के पास जड़ी-बूटियों और मसालों की दुकान पर बैठने लगा। बाद में जब उनकी दाढ़ी-मूँछ आ जाए जितने वे बड़े हो गये तो लोगों ने सुझाया कि एक को दाढ़ी और दूसरे को मूँछ रख लेनी चाहिए। कुछ दिनों तक उन्होंने ऐसा किया भी। लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। लोग भूल जाते कि दाढ़ी वाला इज़राइल है या इस्माइल।


चूँकि अब्बा ने स्कूल में सिर्फ एक लड़के की फीस भरी थी, इसलिए उनका एक ही लड़का छठी पास कहा जा सकता था और दूसरे को अनिवार्यत: अनपढ़ होना होगा। उन्होंने एक पतलून-कमीज़ सिलवा दी ताकि पढ़े-लिखे इज़राइल को नलहाटी बाज़ार में कोई ठीक-ठाक काम मिल सके। पतलून-कमीज़ वाले लड़के को एक आढ़त में मुंशी के काम पर रख लिया गया। पतलून-कमीज़ पहनकर मुंशीगिरी करने कभी इज़राइल चला जाता तो कभी इस्माइल। दूसरा जो रह जाता, लुंगी-बनियान पहनकर मसालों की दुकान पर बैठ जाता। एक दिन पास के गाँव से पढ़े-लिखे इज़राइल के लिए एक रिश्ता आया। पहले यह सोचा गया था कि इज़राइल और इस्माइल की शादी एक ही साथ किन्हीं दो बहनों से की जाएगी। लेकिन अब्बा को दहेज़ में अच्छी-खासी रकम मिल रही थी, सो इंकार न कर सके। अच्छा, लड़की अगर दो बहन होती तो भी क्या उसका बाप दूसरी लड़की की शादी 'अनपढ़’ इस्माइल से करने के लिए राज़ी हो पाता? बहरहाल, लड़की इकलौती थी और सुनने में आ रहा था, बहुत सुन्दर थी।

ऐन शादी के दिन क्या हुआ कि इज़राइल को दस्त लग गयी। शादी की तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं, बारात निकल पडऩे को तैयार थी और इधर इज़राइल ने खाट पकड़ ली। लोगों को कुछ सूझ नहीं रहा था। अचानक इज़राइल तैयार होकर घर से बाहर आया और बोला कि अब उसकी तबीयत बिल्कुल ठीक हो चुकी है और बदले में इस्माइल की तबीयत बिगड़ गयी है। लोगों ने कुछ नहीं कहा। इज़राइल ने निकाह पढ़ी। शादी हो गयी। दुल्हन घर आई। साल भर बाद बिलकीस का जन्म हुआ।


बिलकीस का जन्म 6 दिसम्बर, 1992 को हुआ था। उसके जन्म के दिन देश भर में एक ज़लज़ला आया था, आदिग्राम में भी। लोगों के घर धू-धू कर जलने लगे थे। कई लोग मारे गये। कुछ मुसलमान बांग्लादेश भाग गये और कुछ हिन्दू वहाँ से भागकर यहाँ आ बसे। इज़राइल-इस्माइल की जोड़ी भी उसी साल टूटी। इनमें से एक के बारे में कहा जाता है कि वह बांग्लादेश भाग गया। कुछ लोग कहते हैं कि दरअसल वह कहीं नहीं गया, सचाई यह थी कि वही बिल्कीस का असली बाप था, इसलिए इज़राइल-इस्माइल में से दूसरे ने उसे मारकर कहीं दफ्ना दिया। अन्त के दिनों में कुछ लोगों ने उसे बाघा की पत्नी मयना के साथ भी देखा था और वे मानते हैं कि अफरा-तफरी का फायदा उठाकर वह मयना के साथ बांग्लादेश भाग गया। बाघा भी ऐसा ही सोचता है।

यह बहुत पहले की बात है जब बिलकीस पैदा हुई थी। जिस दिन बिलकीस पैदा हुई थी, उसी दिन बाबरी मस्जिद का ढाँचा ढहाया गया था। इतिहास के सर बताते हैं कि बाबर दिल्ली का...। लेकिन रानी रासमणि तो आदिग्राम की थी। ...इज़राइल मियाँ-इस्माइल मियाँ की तरह इतिहास में दो-दो बाबर हुए थे क्या? या दोनों दो इतिहास में अलग-अलग हुए। कौन से इतिहास में आदिग्राम का जिक्र आता है?

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रानी रासमणि का जन्म एक गरीब किसान के घर हुआ था। रासमणि जब पैदा हुई, उसे देखकर उसका बाप डर गया। रासमणि की माँ ने समझा कि उसके पति का चेहरा सहसा इसलिए बुझ गया है कि वह मन ही मन बेटे की आस लगाये होगा। उसने डरते-डरते कहा, ''लेकिन तुम तो कहते थे कि बेटा हो या बेटी, भगवान का दिया सर-आँखों पर! बेटी को भी वही दर्जा दोगे जो, मान लो कि बेटा होता, तो उसे देते’’।

''लेकिन इतनी सुन्दर लड़की! हमलोग गरीब हैं। आखिर क्या गलती हुई जो हम गरीब को ऊपरवाले ने इतनी सुन्दर लड़की दी!”


रासमणि की माँ ने नवजात को देखा, उसकी छोटी-सी देह से जैसे रोशनी की धारें फूटती हों।''हम इसे कहाँ छिपा के रखेंगे!” बाप ने कहा और डर गया।

कहते हैं जिस दिन वह पैदा हुई, एकाएक उसके बाप की उमर दुगनी हो गयी। बाल आधे से ज़्यादा झड़ गये और जो बचे उस पर चाँदी का पानी चढ़ गया। चेहरा झुर्रियों से भर गया, सारे दाँत गिर गये, आँखों में मोतिया के छल्ले पड़ गये। वह दिन-दिन भर खाँसने और कमर के दर्द के मारे झुककर चलने लगा। वह इतना कमज़ोर हो गया कि साँस लेने में भी उसे काफी मशक्कत करनी पड़ती और चलते वक्त अक्सर उसका दायाँ पैर सन्तुलन खोकर घिसटने लग पड़ता था।


जैसे-जैसे रासमणि बड़ी होती गयी, उसकी सुन्दरता की कीर्ति फैलती गयी। वह जहाँ कहीं जाती, एक पवित्र उजाले से उसका आसपास भर उठता। अँधेरे में भी रासमणि की देह से रोशनी फूटती होती। लोग दूर-दूर से उसे देखने आते और कहीं किसी आड़ से देखते, लौट जाते। दुनिया में यह कहने-सुनने का प्रचलन होता था कि रासमणि की सुन्दरता में ऐसी गैबी ताकत है कि जो कोई भी उसे सीधे-सीधे, बिना किसी ओट के देखता, फिर उसमें कुछ और देखने की लालसा हमेशा के लिए मर जाती। उसका कोई अंग विक्षत हो जाता, एक आँख की रोशनी चली जाती, एक पैर में फालिज मार जाता, एक हाथ बेकाम हो जाता, वह गूँगा-बहरा हो जाता। इस संसार से उसका जी उचाट हो जाता, मन में वैराग्य घर कर जाता, घर-द्वार पत्नी-बच्चे बूढ़े माँ-बाप को छोड़कर वह साधू-संन्यासी हो जाता, जंगल-जंगल पर्वत-पर्वत घूमता-बउआता रहता, एक दिन आत्महत्या कर लेता।

रानी रासमणि जब अठारह साल की हुई तो बंगाल में फिर दूसरा अकाल पड़ा। तब तक ईस्ट इंडिया कम्पनी नलहाटी बाज़ार में अनाज की आढ़त और गोदाम बनवा चुकी थी। यहाँ से अनाज बैलगाडिय़ों में लादकर कलकत्ते पहुँचाये जाते। कहा जाता है कि जब दूसरा अकाल पड़ा, कम्पनी के गोदामों में कोई एक लाख मन धान जमा रखे हुए थे। रानी रासमणि का बूढ़ा बाप अब तक इतना कमज़ोर पड़ चुका था जैसे कोई पुराना ज़र्द कागज़। उसकी देह की चमड़ी छिपकली की तरह सिकुड़ गई थी। कहते हैं कि जिस दिन वह मरा, उस दिन अँग्रेजों की कोठी में बासमती चावल पकाया जा रहा था। चूल्हे पर चढ़ाई गयी चावल की हाँड़ी से गरम-गुदाज खदबदाहट की आवाज़ निकल रही थी।


पकते हुए चावल की खुशबू हाँड़ी से निकलकर कोठी की सेहन तक जब पहुँची, सुबह के सवा दस बज रहे थे। सेहन में दो काले पहरेदार रात भर के जागरण के बाद अभी अधनींदे बैठे थे। वहीं एक खाज खाया कुत्ता गुटिआया हुआ पड़ा था। कुत्ते ने अपनी थूथन उठाकर खुशबू को देखा और इशारा किया। खुशबू, इसकी भरपूर कोशिश करते हुए कि उसके पैरों की आहट पहरेदारों को न मिले, सेहन से उतरकर बाहर चली आई।कुत्ते ने जिस रास्ते की ओर इशारा किया था, उस पर कदम रखते ही चावल की खुशबू के होश उड़ गये। चारों तरफ, जहाँ तक नज़र जाती, लाश ही लाश पड़ी थीं। कुछ लाशों को गिद्ध-सियारों ने बुरी तरह नोंच डाला था। उनके खुले हुए पेट से आँतों की बद्धियाँ दूर-दूर तक खिंची हुई थीं। एक बच्चे की साँसें अभी तक चल रही थीं। दो कौव्वे उसकी आँखों पर चोंच मार रहे थे। बच्चे के शरीर में इतनी सकत भी नहीं बची थी कि वह उन्हें उड़ा पाता। खून और कीचड़ से सनी पृथ्वी पर बेशुमार घोंघे और केंचुए रेंग रहे थे। साँपों से धरती पट गयी थी।

चावल की सोंधी खुशबू ने अपने पाँयचे उठा लिए और खून के चहबच्चों को पार करने लगी। जैसे ही वह बच्चे के पास से गुज़री, न जाने कहाँ से ताकत बटोरकर बच्चे ने उसके एक पैर को कस के जकड़ लिया। खुशबू डरकर चीख पड़ी। बच्चे की आँखें कौव्वों की चोंच के प्रहार से बाहर निकलकर किसी पतली शिरा के सहारे लटक रही थीं। बच्चे का मुँह बार-बार खुलता बन्द हो रहा था, लेकिन कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी। थोड़ी देर बाद बच्चे की पकड़ ढीली हो गयी और उसका आधा उठा हुआ शरीर वापस ज़मीन पर धम्म-से गिर पड़ा।


खुशबू ने ठिठककर इधर-उधर देखा कि कहीं उसकी चीख सुनकर पहरेदार तो नहीं दौड़े आ रहे हैं! ...नहीं, कोई नहीं। वह जल्दी-जल्दी रानी रासमणि की झोंपड़ी तक पहुँची। दरवाज़ा जैसा जो कुछ था, खुला हुआ था। भीतर चटाई पर लेटा रासमणि का बूढ़ा बाप भूख से बिलबिला रहा था। खुशबू ने राहत की एक लम्बी साँस ली कि उसे यहाँ आते किसी ने देखा नहीं। उसकी साँस की आवाज़ बूढ़े तक पहुँची तो उसने पूछा, ''आ गयी तू?”खुशबू ने कहा, ''हाँ!”
अपरिचित आवाज़ से बूढ़ा चौंका। पूछा, ''रासमणि? ...कौन?”
''मैं, चावल की खुशबू!”
बूढ़ा बाहर आया। उसे चावल की खुशबू की लू लग गयी। वह मर गया।