Friday, November 27, 2009

सत्येन्द्र दुबे का भांजा होने का भार और 27 नवम्बर

सत्येन्द्र दुबे। मसखरी राजनीति ने शहीद और इंकलाब जैसे मूल्यवान शब्दों को मजाक बना कर रख दिया है वरना आज मैं सत्येन्द्र के लिये इस शब्द का प्रयोग जरूर करता। जानने वाले जानते है कि एक बेहद बूढ़े प्रधानमंत्री की स्वप्निल सड़क परियोजना से अगर किसी को सर्वाधिक नुकसान हुआ तो वे सत्येन्द्र दुबे जी थे। इक्कतीस साल की कुल उम्र उन्हे मिली, जिसमे उन्होने आदर्श जीवन जिया। परिवहन मन्त्रालय की जिस परियोजना मे सतेन्द्र दुबे ‘’प्रोजेक्ट डाईरेक्टर” थे और जिस धोखाधड़ी के खुलासे करने के कारण उनकी गया(बिहार) में 27 नवम्बर 2003 को सरेराह हत्या हुई उनदिनों कहने भर का एक फौजी, परिवहन मंत्री था जो बाद मे मुख्यमंत्री भी बना। मेरे पिता को उनकी हत्या के बाद भी लगता रहा कि वो हत्यारों को सजा दिलवा देंगे। मुझे उनकी मासूमियत के लिये घोर अफसोस है।

सत्येन्द्र दुबे मेरे मामा लगते थे। चाची के भाई। ऐसे मे मेरा बचपन अजीब सी तुलनाओं मे बीता। मामा के बारे मे किस्से थे जो खूब मशहूर थे – सत्येन्द्र 20 से 22 घंटे पढ़ता है(ऐसा अक्सर मुझे सुना कर कहा जाता था)। मुझे गिल्ली डण्डा खेलते देख गाँव का कोई भी शुभचिंतक मुझे सुना देता था – इस उम्र मे सत्येन्द्र को पढ़ते रहने से चश्मा लग गया था। यह सुन कर मैं खेलना छोड़ देता था। मुझे रजाई मे देख चाचा कहते थे – सत्येन्द्र तो तकिया भी नहीं लगाता है। यह तब की बात है जब मामा ने आई.आई.टी की परीक्षा पास कर ली थी। बाद उम्र में आई.ई.एस हुए। आई.ए.एस भी क्वालिफाई किया और यह आज भी रहस्य है कि फिर भी उन्होने आई.ई.एस ही क्यों चुना?

उनकी लगन इतनी मशहूर थी कि हम कभी यह अपेक्षा भी नहीं करते थे-वो हमारे घर आयेंगे। उनके तो उनके, हमारे गाँव के कितने ही भोले लोग इस इंतज़ार मे थे कि जब सत्येन्द्र की नौकरी लगेगी तो वो उन सबका भी उद्धार करेंगे। इस बीच जब भी कभी वो हमारे गाँव आये मैं उन्हे छुप के देखता था – ऐसा क्या है इनमे जो लोग इनसे मेरी तुलना करते हैं।

बात तब की है, जब मैं साहित्य से जुड़ चुका था। जानता तो किसी को नहीं था पर पढ़ता खूब था। साहित्य से पहला परिचय ही यह बता गया कि यही मेरा उद्देश्य होने वाला है। साहित्य तथा दोस्तो का प्यार मुझे इस बात का दिलासा देता रहा कि मैं भी जीवन में कुछ कर सकता हूँ। मैं अपनी पहली कहानी लिख रहा था और कहीं ना कहीं मेरी निगाह सत्येन्द्र मामा पर भी थी। मुझे लगता था कि किस्से कहानी मुझे इतना बड़ा कद देंगे जितना कि खुद मामा का सामाजिक कद।


तभी वो हादसा हुआ।

मैं अपनी पहली कहानी पूरी करने वाला था कि एक सुबह तड़के पापा आये। उनकी आवाज में डरावनी उदासी थी। इससे पहले पापा को मैने आज तक उदास नहीं देखा था। उन्होने कहा तो कुछ भी नहीं, हिन्दुस्तान अखबार का पटना संसकरण और इंडियन एक्सप्रेस का अखबार मेरी ओर बढ़ा दिया। वहीं यह मामा की हत्या की दुखद खबर छपी थी। अम्मा बहुत रोई थी। बहुत। कुछ मामा के लिए, कुछ बूढ़े नाना नानी के लिए और दूसरे आश्रितों के लिये। नाना ने उनकी पढ़ाई के लिये अपनी दुकान तक बेच दी थी।
मैने अपनी कहानी स्थगित कर दी थी। साल भर बाद मेरी नितांत पहली कहानी लिखी गई।

अगर प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश से कुछ उधार लूँ तो बड़ी उम्मीद से कहना चाहूँगा कि मामा आप अभी है। हमारे आस पास। बस घर के किसी कोने मे आप, नेल कटर की तरह, खो गये हैं जो ढूढ़ने से भी नहीं मिल रहा।




Thursday, November 26, 2009

मैं सूर्य की प्रेमिका हूँ

लीशू और सूरज के बाद अब पूजा। पूजा सिंह। Network 18 से जुड़ी पूजा की इस कविता में अनोखी उर्जा है, आत्मविश्वास है। इनका व्यक्तित्व इतना शानदार और गजब कि अगर रिश्ते निभाने और 'गुस्सा होने' की प्रतियोगितायें हो तो दोनो में ही प्रथम आयेंगी। गोरखपुर के धुर देहात से निकल, पत्रकारिता की पढाई - नौकरी। दु:खद यह कि शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र मे जगह बनाने के लिये जो संघर्ष करना पड़ा उसमे कविता ही जाती रही। स्नातक की पढ़ाई के दिनों मे लिखी कुछ में से यह कविता इस लिये भी महत्वपूर्ण है कि इसके जरिये हम देखेंगे: समय का दबाव कितना गहरा है और अपने आप को व्यवस्थित करने की जो लड़ाई हम लड़ रहे है उसमे कैसी कैसी प्रतिभायें अपने रोयेंदार पँख समेट लेने पर विवश हैं।

समय के दबाव मे प्रतिभाओं के छिप जाने के किस्से तो हमने बहुत सुने थे, पर पहली बार आंखो देखी। मै पूजा को भरपूर जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि उनके ‘कंसर्न’ और ‘कमिटमेंट’ मे कहीं कोई कमी नहीं है। ऐसे मे क्या यह पड़ताल नहीं होनी चाहिये कि आखिर इस बारूद समय मे ऐसा क्या है जो हमें हमारी असल राह भुलाने में ही यकीन रखता है, ऐसा क्या है जो हमारे संघर्षों के बदले हमारे कोमल मन पर कब्जा जमा लेता है? क्या पूजा को और से और कवितायें नहीं लिखनी चाहिये?


मैं सूर्य की प्रेमिका हूँ

मैं सूर्य की प्रेमिका हूँ
जिसका करती हूँ नित्य दर्शन
फिर भी नहीं होती
पूरी मन की तृष्णा


कभी लगता एक अबोध बालक सा
कभी हो जाता इतना ज्ञानी जो
सारे जग को प्रकाशित करने में
सामर्थ्यवान .....लेकिन
अस्तिव खो जाने के भय में जीती
इधर मैं


जबकि मैं हूँ उसकी प्रेमिका
आखिर मैं हूँ उसका हिस्सा
अभिन्न
फिर क्यों मुझे भुलाकर
पीछे छोड़कर
चलता चला जाता है वह
अपनी अजब गति से और
छोड़ जाता है एक जिजिविषा
एक विश्वास

है वह मेरा
इस तरह स्पर्श करेगा वह
मेरा कल, क्योंकि मैं हूँ
उसकी,
अपने सूर्य की प्रेमिका।

-पूजा सिंह

Tuesday, November 24, 2009

सूरज कवितायें लिखता है

इत्तफाक से मेरे मित्रों मे ऐसों की भरमार है जो छपने से घबराते है। कुछ दिनों पहले मैने लीशू की कवितायें आप तक पहुंचाई, इस बार सूरज की कवितायें।

मैं और सूरज बचपन से एक दूसरे को जानते हैं। वो चुप्पा लेकिन शानदार इंसान है और मुझे उसकी कवितायें बेहद पसन्द है।इस बात पर कहता है कि दोस्त होने के नाते मैं ऐसा कहता हूँ। उसने आजतक कोई कविता कहीं नहीं छपाई। कहीं किसी पत्रिका को अपनी कवितायें भेजता तक नहीं है जबकि शर्माने की उमर से बहुत आगे निकल आया है। ये कवितायें मैने उसे सूचित कर उसकी डायरी से ली हैं। देर तक नखरे करते रहने के बाद राजी हुआ(या क्या पता सच में शर्माया हो) और मुझे भी लगा, ये कवितायें पाठकों तक पहुंचनी चाहिये। आप बताइये, मैं ‘बस’ सही हूँ या बिल्कुल सही हूँ?

हवा से करार

दूरियों से मुझे हल्का गुस्सा है।
तुम ना हो तो दूरी का क्या,
होना। और न होना


मैं गाता हूँ प्रेम का सिनेमाई, पर जान लेवा गीत
और ये दूरी है जो तुम्हे मेरी चुप्पी बता आती है

ऐसा करो मेरी जान, तुम हवाओं पर दौड़ती हुई
चली आओ
मुझसे मिल जाओ
नहीं, ऐसा नहीं, दूरियों से मैं घबराया नहीं
(परेशान जरूर हूँ)
बेताबी है, पर ऐसी जैसे सुलग रहा हो कोई
चेहरा
चूल्हा
कान की लवें। बुझने की बात ही क्या?

तुम जिस गति से आओगी
तुम जिस गति से ‘मुझसे’ मिलने आओगी
मुझे मालूम है
पृथ्वी को भी मालूम है

पृथ्वी तुम्हे भरपूर मदद करेगी / तुम जहाँ पैर रखोगी जमीन ढीली हो जायेगी / तुरंत के पूरे किये प्रेम के बाद के जोड़े की तरह / फिर भी दूरी तो दूरी है / चोट आयेगी / तुम्हारे पैरों से निकला एक बूँद रक्त पृथ्वी की सारी खामोशी मिटा देगा / पृथ्वी उदास हो जायेगी / उसके झरने, फूल, बारिश, तुमसे कम उंचे पहाड़, तुमसे कम गहरे समुद्र उदास हो जायेंगे

मैने हवाओं के ड्राईवर से बात चला रखी है
वो तुम्हे ख्यालों के खूबसूरत सूटकेस की तरह ले आयेंगे

यदि कर सका मैं अग्रिम भुगतान
हवा भेजती रहेगी मुझे पल प्रतिपल तुम्हारी
बेजोड़ परछाईंयों के रंगीन लिफाफे।

Monday, November 23, 2009

क्या हम ऐसे ही देश के वासी हैं?



कोई सुने तो शायद ही विश्वास करे कि भारत के सबसे अग्रणी विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ इतना अमानवीय सलूक किया गया। एक मामूली विवाद जिसमे जेनयू के छात्रों का एक जरा भी दोष नहीं था, पुलिस ने अपराधियों को बचाने के लिये निर्दोष छात्रों पर लाठी चार्ज किया जिसमे पचास से उपर छात्र घायल हुए है। पन्द्रह की हालत गम्भीर है। सबसे पहले हम निर्दोष छात्रों के स्वस्थ होने की प्रार्थना करेंगे फिर आगे की बात।
घटना कुछ यों घटी: चार बिगड़ैल रईसजादे, जिन्हें उनके घर आंगन से नीचता और बुराई की शिक्षा ही मिली हुई है, जेनयू आये। 24×7 ढाबे पर शराब पिया(जाहिर है कुछ खाया भी होगा)। फिर शराब और ताकत के नशे मे चूर होकर छात्रों से बद्तमीजी किया। छात्र जो आजकल सेमेस्टर परीक्षाओं की तैयारी मे लगे है, पहले तो इनकी “तमीजदार” हरकतों पर ध्यान नहीं दिया पर जब वे एकजुट होकर इसका विरोध किये तो ये चार गुंडे भाग निकले।

गुंडों के पास कार थी इसलिये इनकी रफ्तार के नीचे आने से बाल बाल बचे लोगों ने विश्वविद्यालय सुरक्षा को फोन मिलाये। जेनयू मेन गेट पर जब सुरक्षाकर्मियों ने इन्हे रोका तब इन चार गुंडों मे से एक ने पिस्टल दिखाया। पिस्टल देखते ही बड़ा दरवाजा बन्द करा दिया क्योंकि मेन गेट पर एक नहीं दस पन्द्रह सुरक्षाकर्मी रहते है। जैसे ही मेन गेट बन्द हुआ एक अंतहीन कहानी शुरु हो गयी जिसमे, अगर अब तक के इतिहास को देखें तो कल के दिन से मीडिया और मीडिया के जरिये समाज के दूसरे लोग छात्रों को ही गलत साबित करेंगे।

चूकि विश्वविद्यालय सुरक्षा अजेंसी निजी कम्पनी के हाथ मे है इसलिये इनके सारे अधिकार दिल्ली पुलिस के पास गिरवी हैं। इन्होने तुरंत दिल्ली पुलिस को बुला लिया और “महान” दिल्ली पुलिस ने आते ही अपना काम शुरु कर दिया – उन चार गुंडों को बचाने का काम। खबर है कि चारो बेहद शक्तिशाली घराने से हैं। दिल्ली पुलिस कितनी ताकतवर है या दिल्ली पुलिस का एक हाईस्कूल पास सिपाही(साथ मे अधिकारी भी थे) कितना ताकतवर है इसका अन्दाजा इस बात से लगा सकते है कि छात्रों तथा सुरक्षाकर्मियों के लाख आग्रह के बावजूद दिल्ली पुलिस की महान सत्त्ता ने एफ.आई.आर मे पिस्टल को पिस्टल नहीं लिखा। कभी उसे खिलौना बन्दूक लिखा तो कभी लाईटर लिखा तो कभी कुछ लिखा।

बहरहाल छात्रों की मांग बस इतनी थी कि इन चार गुंडों की शिनाख्त हो। पता तो चले कि ये हैं कौन जिनके अमीर खानदान की गुलामी दिल्ली पुलिस तक कर रही है, जो आराम से जेनयू मे बन्दूकें लहराते दिखाई पड़ते हैं? पर दिल्ली पुलिस ने यह नहीं होने दिया। और अंतत: जो हुआ वो यह कि सैकड़ो निर्दोष छात्र, अपनी मामूली मांग के बदले, पुलिस की बेरहम लाठियों से पीटे गये। आंसू गैस के गोले छोड़े गये। हवाई फायर हुआ। खबर यह भी है कि कुछ छात्र गोली का शिकार हुए हैं। मैं चाहूंगा कि ये खबर अफवाह बन जाये। नौजवानों की मृत्यु की खबर से वीभत्स कोई दूसरी खबर नहीं होती है।
उन चार गुंडों को बचाने मे लगी पुलिस इस कदर मुस्तैद थी कि घटना स्थल पर तीन वैन लाठी-बन्दूक से लैस पुलिस पहले ही बुला ली गयी फिर दो वैन आर.ए.एफ (rapid action force) भी बुला लिया गया। जहॉ पुलिस अपने सारे काम शातिरपने के साथ पूरी कर रही थी, वहीं छात्र अपनी बात किसी तक पहुंचा नहीं पा रहे थे, मसलन “ताकतवर” मीडिया भी घटना स्थल पर सात बजे के बाद पहुंची है, जबकि छात्र कुछ गुंडों के शिनाख्त की यह लड़ाई दिन के दो बजे से लड़ रहे थे।

विश्वविद्यालय के नख दंत विहीन सुरक्षाकर्मियों के पास हथियार की जगह वॉकी-टॉकी है। ऐसे मे छात्रों के पास बस एक ही हथियार था कि वो मेन गेट खुलने ना दें। पुलिस का सारा जोर इसी पर था कि मेन गेट खुले और दिल्ली पुलिस (ए.सी.पी. रैंक तक के अधिकारी घटना स्थल पर थे) अपने मालिकों के मुस्टंडे बच्चों को लेकर भाग निकले, कुछ रिश्वत पानी का इंतज़ाम हो, कोई प्रोन्नति मिले।
उन चारो को पुलिस की गाड़ी, जो मेन गेट के अन्दर थी, मे रखा गया था। आप छात्रों के अनुशासित और मानवोचित विरोध का अन्दाजा इस बात से लगा सकते है कि वो चारो मेन गेट के इस पार थे जहॉ छात्रों की तादाद पांच सौ से उपर थी, फिर भी कोई शारीरिक क्षति उन गुंडों को छात्रों ने नहीं पहुंचाई।

पुलिस की मुस्तैदी का दूसरा नमूना यह निकला कि मीडियाकर्मियों तक को उन चार “बहादुरों” की तस्वीर उतारने की इजाजत नहीं दी गई। छात्रों के पास शाम के आठ बजे तक कोई नेता तक नहीं था। हालांकि जो खबरे, अभी रात के दो बजे तक आई है कि जिस नेता से उम्मीदें थी, जब वो सामने आया तो छात्र अपनी लड़ाई और मनोबल दोनो हार गये।क्या आपको लगता है कि ऐसे लोगो का नाम लेना जरूरी है?

अभी निहत्थे छात्र अपनी मांग मनवाने की कोशिश कर ही रहे थे कि अचानक से मेन गेट खुल गया और लाठी चार्ज का आदेश हो गया। पिटने वाले तो अपनी पूरी उम्र इसे बतायेंगे पर जिन्होने ने दूसरो को पिटते हुए देखा उनका कहना है कि एक-एक छात्र को पाँच-पाँच पुलिस वाले पीट रहे थे। छात्राओं तक को नहीं बख्शा गया है। खबरों के अनुसार पचास से उपर छात्र जख्मी हुए हैं। उन चार गुंडों को पुलिस ने इसी बीच बाहर निकाल लिया। कल से उन गुंडों के पक्ष मे दलीले मिलनी शुरु हो जायेंगी। जो कुछ नहीं कहेगा वो भी इतना तो कहेगा ही कि – जेनयू के लड़को को ऐसा करने की क्या जरूरत थी? कुछ लोग देश के इन बेहतरीन विद्यार्थियों को पढ़ने और पढ़ते रहने की सलाह देंगे। विश्वविद्यालय के सुरक्षा नियम कुछ और कड़े हो जायेंगे जो कि छात्रों को ही परेशान करेंगे।

अब जबकि उन चार अमीर गुंडों की पहचान नहीं हो पाई है तो कायदे से सरकारी महकमा इस पूरे वारदात को झूठा भी करार दे सकता है। मीडिया को सरकारी विज्ञापन पाने का बेहतरीन मौका छात्रों ने खुद लाठी खाकर दिया है। खुद के शरीर पर लाठी खा कर पुलिस वालों को प्रोन्नति पाने के काबिल बनाने वाले छात्रों के प्रति आप क्या सोचते हैं? मैं घटना स्थल पर निहायत निजी कारणों से मौजूद था, अपने जीवन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभिलाषा को असफल होते देख अब मेरे पास लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था, पर जब जेनयू के मेन गेट का नजारा देखा तो निजी दुख को कुछेक पल के लिये किनारे कर वहा मौजूद छात्रों से मिला, सुरक्षाकर्मियों से मिला, पुलिसवालों से बात की। पाया कि छात्रों की मांग बिल्कुल जायज थी।

Tuesday, November 10, 2009

ब्लाईंड लव्स: एक फिल्म जो मुझे नहीं देखने दिया गया।

दिल्ली से मैं चार घंटे की दूरी पर रहता हूँ और मन की कहूँ तो बड़ी उम्मीद से मैं स्लोवाक फिल्मोत्सव के बहाने दिल्ली आया। फिल्म के नाम ने आकर्षित किया था: ब्लाईंड लव्स। करनाल से चलते हुए मैं सोचता रहा, काश फिल्म की कहानी प्रेम के तमाम गुत्थियों से उलझी पुलझी हो। जैसे दीवानापन, त्याग, ईर्ष्या, धोखा, तमाम। एक जगह रास्ते मे जब बस देर तक रुकी रही तो मैने बस ड्राईवर से भी कहा: जल्दी चलो, भाई, प्रेम कहानी छूट जायेगी। उसी दिन भारत आस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच भी दिल्ली मे हो रहा था, और सड़क इतनी जाम थी कि कोई ना पूछो।

ऑटोरिक्शा वाला मनभर किराया लेकर तैयार हुआ। शीरीफोर्ट के रास्ते मे जहाँ भी जाम मिलता, वो रिक्शे वाला, मेरा यार, दस रूपये किराया बढ़ा दे रहा था। मैने भी सोचा – चलो आज यही सही और एक शानदार फिल्म के लिये इतना खर्च किया जा सकता था। हालाँकि कुछ जगहो पर हम किसी बहाने से ही जा पाते है। सामने वाले को आप सीधे सीधे आने का प्रयोजन भी नहीं बता सकते, वो लोगो को पसन्द नहीं आता, लोगो को बोझ लगता है, और मैं सिर्फ फिल्म देखने आया था।
फिल्म का समय हो चुका था जब मैं सेक्योरिटी चेक के लिये खड़ा था। मेरा बैग देखकर गार्ड ने कहा: लैप टॉप ‘अलाउ’ नहीं है। मैने कहा: दिमाग ठिकाने है तुम्हारा या लगाना पड़ेगा? अपनी बात कहते कहते मुझे हंसी आ गई। ये भी कोई बात हुई भला? मैने उससे कहा: अन्दर जाने दो यार, इस फिल्म को देखने मैं करनाल से आया हूँ। उसने कहा: आप लैपटॉप गाड़ी मे रख दे, अगर अन्दर किसी ने देख लिया तो मेरी नौकरी छिन जायेगी। मेरे पास गाड़ी कहाँ थी जो मैं लैपटॉप रख आता! फिर भी मुझे लगता रहा कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि लैपटॉप के होने से फिल्म ना देखने दिया जाये। उस गार्ड की नौकरी बची रहे इस खातिर मैने उसके अधिकारियों से बात की। उन्होनें मामले को बेहद आसानी से निपटाया: कुछ भी हो जाये, आप लैपटॉप लेकर अन्दर नहीं जाओगे। उन्होने उस बेचारे गार्ड जितना भी समय नहीं लिया।

मैं देखता रहा। मेरे सामने लोग अन्दर जा रहे थे। मैं इस तर्क को समझ नहीं पा रहा था। अगर लैपटॉप लेकर अन्दर नहीं जा सकता तो कोई एक जगह ऐसी बनाई जानी चाहिये थी जहॉ इस लैपटॉप महाशय को रखा जा सके। समय इतना कम था कि मैं कहीं दूसरी जगह भी नहीं जा सकता था। अंतत: मुझे बिना सिनेमा देखे लौटना पड़ा। अपने तमाम गुस्से के साथ मैं बाहर आया। बाहर आकर मैनें मन ही मन यह इच्छा जाहिर की कि काश यह एक सामान्य फिल्म निकल जाये। इस फिल्म मे वह सब वहो ही नहीं जिसकी इच्छा लिये मैं एक सौ चालीस – पचास किलोमीटर आया था। मैं सोचता रहा कि काश यह डॉक्युमेंट्री फिल्म निकल जाये। काश सीरी फोर्ट मे अजीबोगरीब नियम लगाने वाले का लैपटॉप खो जाये, तमाम।

ऐसे निराशा के पल कठिन होते हैं और इनसे उबरना भी। मैं वहाँ कुछ भी नहीं कर सकता था। अशक्त, निरुपाय। मुझे इस बात का बेहद दुख है।

.......पर अगर विषयांतर की इजाजत हो और थोड़ा कहने पर ज्यादा समझने के लिये आप राजी हों तो एक बात कहता हूँ ...... फिर ‘अलादीन’ के चिराग ने हमारी शाम को रौशन कर दिया। कोई ना कोई फिल्म देखने के लिये ही हमने अलादीन देखी।

Monday, November 2, 2009

पढ़ने की बात करना, किसी अनहोनी पर बात करना तो नहीं है?

नई बात के पहले सर्वे के लिये अपनी कीमती राय और वोट के लिये आप सबको धन्यवाद। इस बार का प्रश्न था; आप महीने मे कितनी पत्रिकायें पढ़ते हैं? जो जवाब आये उनसे स्थिति बेहद आशाजनक दिखती है। पैंसठ फीसदी लोगों ने कहा कि वे पाँच या उससे अधिक पत्रिकायें एक महीने मे पढ़ते हैं जबकि दस फीसदी लोगों ने अपना वोट क्रमश: एक, तीन और चार पत्रिकाओं के पक्ष मे रखा। वहीं पांच फीसदी लोगो ने कहा, वे महीने मे एक पत्रिका ही पढ़ पाते हैं। इन परिणामों के बाकायदा विश्लेषण को आप पर छोड़ते हुए एक महीन सी बात रखना चाहूँगा कि इस सवाल को पढ कर जिन मित्रो ने फोन पर बात चीत की उन्होने यह स्वीकार किया कि वे “पढ़ने, ना पढ़ने, क्या पढ़े,” जैसे मूलभूत सवालों से दो चार हुए। एक मित्र ने यह भी कहा, “ मुझे तो कोई पत्रिका देखे भी महीना हो गया है”।
अगले हफ्ते का सवाल है : आप दिन के चौबीस घंटों मे से कितना समय फोन/मोबाईल पर बिताते है?