Wednesday, May 24, 2017

काव्यशास्त्रविनोद-११: लोग सिर्फ़ लोग हैं,तमाम लोग,मार तमाम लोग (रघुवीर सहाय)

रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता "रामदास" का विषय भी आम लोगों का आचरण है। ये लोग न केवल खुलेआम हुई हत्या के निष्क्रिय दर्शक हैं, बल्कि कविता के अंत तक आते-आते इस हत्या की अनिवार्यता के उत्साही समर्थक हो जाते हैं। कविता की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें---
"सधे क़दम रख कर के आये/लोग सिमटकर आँख गड़ाये/ लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी/ निकल गली से तब हत्यारा/ आया उसने नाम पुकारा/ हाथ तौलकर चाकू मारा/ छूटा लोहू का फ़व्वारा/ कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी/ भीड़ ठेलकर लौट गया वह/ मरा पड़ा है रामदास यह/ देखो-देखो बार-बार कह/ लोग निडर उस जगह खड़े रह/ लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।"
यहाँ पहले तो हत्या का तमाशा देखते लोग हत्या होने के बाद मानो राहत की साँस लेते हैं, और उसकी अनिवार्यता का बखान करते हैं---कहा नहीं था......। इसके बाद वे इसका उत्सव-सा मनाने लगते हैं। हत्यारे के चले जाने के बाद बार-बार एक दूसरे को मृत रामदास का शव दिखाकर उसकी मौत का भरोसा दिलाते हैं। इतना ही नहीं वे उन लोगों को शर्मिंदा करने के लिए खोजते हैं, जिन्हें हत्या की अनिवार्यता में संदेह था। ज़ाहिर है वे इस रीत-नीत से असहमत लोग रहे होंगे। लेकिन वे भी गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब हैं। उन्हें खोजना उतना ही मुश्किल हो रहा है जितना आदतन ख़ुशामद न करने वालों को खोजना था। कवि जैसे कह रहा हो कि कहीं से ले आओ वह दिमाग़ जिसे हत्यारे की कामयाबी पर शक न हो।
दूसरी तरफ़, आम लोगों के रवैये में किसी प्रकार के अफ़सोस की झलक तक नहीं है। कवि का रुख़ भी उनके प्रति उतना ही निष्करुण है। वह लोगों के वहां खड़े रह जाने को उनकी "निडरता" की संज्ञा देकर उन पर अत्यधिक कठोर व्यंग्य करता है। लोगों की कमज़ोरियों या उनके पतन को वह मानो उनका चुनाव मानता है,और ख़ुद मनुष्यता का लबादा ओढ़कर कहीं ऊँचाई पर खड़ा रहता है।
इसका अर्थ यह क़तई नहीं कि लोग ऐसी कमज़ोरियों का प्रदर्शन नहीं करते। हत्यारे का सामना होने की आत्यंतिक स्थिति को छोड़ भी दें तो किसी की जान बचाने के लिए कई बार उन्हें अपनी मामूली सुविधाओं को छोड़ने में भी परेशानी होती है। आए दिन ऐसा देखने में आता है कि दुर्घटना का शिकार कोई व्यक्ति सड़क पर छटपटाता रहता है और लोग उसके पास से गुज़र जाते हैं। यही लोग दंगाइयों और अपराधियों को चुनाव भी जिताते हैं। लेकिन क्या यह सिक्के का सिर्फ़ एक पहलू नहीं है? यही आम लोग दूसरों के लिए जान भी देते हैं, ग़रीब और मासूम लोगों के इंसाफ के लिए लड़ते हैं, और मनुष्यता की नई से नई नज़ीर पेश करते हैं। यह बात और है कि हमारी व्यवस्था और ख़ासकर मीडिया की दिलचस्पी ऐसी चीज़ों में नहीं है इसलिए इनकी कहानियाँ कम सुनाई पड़ती हैं, लेकिन ये हर कहीं होते हैं। इसीलिए जब कोई कवि इनके होने से इनकार करता है तो वह जाने-अनजाने सत्ता और व्यवस्था की हाँ में हाँ मिला रहा होता है।
यह सच है कि हमारे देश के आम लोग ग़ुलामी, बंटवारे और आज़ादी के बाद भी जारी लूटतंत्र के इस क़दर सताए हुए हैं कि अनेक बार वे सामान्य मानवीय भावनाओं से भी वंचित जान पड़ते हैं। न्यूनतम मानवीय गरिमा से वंचित अपने देशवासियों को देखकर कवि उनसे प्रेम के कारण उनकी आलोचना करे और उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलाए, यह तो स्वाभाविक है। लेकिन अगर वह जनसमुदाय के पतन से अछूता रह जाने के जोश में मानवता को आभिजात्य की तरह धारण करता है और बाक़ी लोगों को लताड़ लगाता है तो उसे जनपक्षधर कवि कहना मुश्किल है। आइए देखें मुक्तिबोध ऐसी स्थिति का सामना होने पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं:
" ओ मेरे आदर्शवादी मन,/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,/ अब तक क्या किया?/ जीवन क्या जिया!!/उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,/ भूतों की शादी में कनात से तन गए,/ किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,"
आलोचना यहाँ भी सख़्त है, लेकिन आलोचना करने वाला ख़ुद को भी अपने देशवासियों के पतन का भागीदार और ज़िम्मेदार पाता है। अपने मन को सम्बोधित करके यह सब कहने का यही अभिप्राय है। अपने देशवासियों की नियति से आज़ाद होकर उसने शुद्धता का कोई बाना नहीं ओढ़ रखा है। "अँधेरे में" नामक इस कविता में अन्यत्र भी इस आशय के वक्तव्य हैं,मसलन:
"मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानो मेरे ही कारण दुर्घट हुई यह घटना"।
असल में, रघुवीर सहाय की चेतना में जनता एक अचेतन समुदाय की तरह आती है जिसे कुछ ज्ञानवान लोग सही रास्ता दिखाते हैं। उनकी यह धारणा इतनी मज़बूत है कि उनके अपने समय में चलने वाले जनसंघर्ष भी इस पर खरोंच नहीं डाल पाते। जनता की शक्ति और उसकी भूमिका की समझ से कटी हुई यह चेतना किसी दौर में सीमित रूप से जनपक्षधर भूमिका भले ही निभा ले, वर्तमान संक्रमणकालीन दौर की लोकतांत्रिक चेतना से नहीं जुड़ पाती। जनता की भूमिका का अवमूल्यन करने वाली उनकी चेतना की एक और बानगी देखते चलें:
"जब एक महान संकट से गुज़र रहे हों/ पढ़े-लिखे जीवित लोग/ एक अधमरी अपढ़ जाति के संकट को दिशा देते हुए/ तब/आप समझ सकते हैं कि एक मरे हुए आदमी को/ मसखरी कितनी पसंद है"
(आज का पाठ है)
इस श्रृंखला में हमनेे जानबूझकर अब तक रघुवीर सहाय के एक परिपक्व संग्रह की सबसे चर्चित और प्रशंसित कविताओं का विश्लेषण किया है ताकि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं से ही उनकी सीमा भी प्रकट हो। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर इस मूल्यांकन की प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती थी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की जनता के प्रति अवमानना भरा रुख़ उनके किसी ख़ास दौर की विशेषता है।दरअसल, यह उनकी चेतना का ट्रेडमार्क है। इस बात को समझने के लिए हम उनके आरम्भिक और परवर्ती दौर की एक -एक कविता पर ग़ौर करेंगे। पहले एक शुरूअाती कविता "दुनिया"(1957) की अंतिम पंक्तियों पर नज़र डालें:
"लोग कुछ नहीं करते जो करना चाहिए तो लोग करते क्या हैं/ यही तो सवाल है कि लोग करते क्या हैं अगर कुछ करते हैं/ लोग सिर्फ़ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग/ लोग ही लोग हैं चारों तरफ़ लोग, लोग, लोग/ मुँह बाये हुए लोग और आँख चुंधियाते हुए लोग/ कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग/ खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग/ दुनिया एक बजबजाती हुई चीज़ हो गई है।"
ये पंक्तियां अपनी मिसाल आप हैं और इनपर कुछ भी कहना ग़ैरज़रूरी है। कवि की परवर्ती दौर की एक छोटी सी कविता "जब उसको गोली मारी गयी"(1984) देखें:
"जब उसको गोली मारी गयी/ फ़ोटो से जाना क्या पकता था चूल्हे पर/बेटे ने बैठकर अपना मुँह दिखलाया/ लाश का ढँका था मुँह।"
जैसा कि स्पष्ट है इस कविता में एक हत्या के बाद खिंची हुई तस्वीर के माध्यम से बात की गई है। चूल्हे पर पकता खाना और मृतक के बेटे का चेहरा भी तस्वीर में आ गया है। वैसे तो यह विवरण तथ्यपरक और मार्मिक हो सकता था, लेकिन कवि को संभवतः विश्वास नहीं है कि किसी की हत्या का शोक उसके यानी स्वयं कवि के अलावा किसी और को हो सकता है चाहे वह मृतक का अपना बेटा ही क्यों न हो। "बैठकर अपना मुँह दिखलाने" की बात से लगता है कि फ़ोटो में अपना चेहरा ठीक से आए इसके लिए प्रयास किया गया है, ख़ास तौर पर तब जब मृतक का चेहरा ढँका है। शव के चेहरे को ढँकना अत्यंत सामान्य प्रथा है और उसकी फोटो में उसके किसी प्रियजन की तस्वीर आ जाना भी उतनी ही सामान्य बात। ग़ौरतलब यह है कि कवि इस तकलीफ़देह परिस्थिति में भी चीजों को देखने का कौन सा कोण खोज लाता है। उसके संयोजन में यह सब मृत व्यक्ति के प्रति उपेक्षा और किंचित विश्वासघात की तरह प्रकट होता है। इस कविता में "रामदास" की संवेदना की निरंतरता को आसानी पहचाना जा सकता है, बस समय के साथ तमाशा देखते लोगों की भीड़ में रामदास का बेटा भी न केवल शामिल हो गया है बल्कि अपना दयनीय चेहरा दिखाकर उसने संभवतः "निर्धनता के बदले कुछ मांगने" का कारोबार भी शुरू कर दिया है।
कवि के मनोजगत की बुनावट को समझने के लिए इससे बेहतर साक्ष्य मिलना मुश्किल है।

काव्यशास्त्रविनोद-१०: एक मेरी मुश्किल है जनता (रघुवीर सहाय)

(१) एक दिन इसी तरह आयेगा---- रमेश
कि किसी की कोई राय न रह जायेगी-----रमेश
क्रोध होगा पर विरोध न होगा
अर्जियों के सिवाय-----रमेश
ख़तरा होगा ख़तरे की घंटी होगी
और उसे बादशाह बजायेगा-----रमेश
(आने वाला ख़तरा)
(२) कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताक़त ही ताक़त होगी
और चीख़ न होगी
(बड़ी हो रही है लड़की)
(३) हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही है
...................…................................
हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो
सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय
(हँसो हँसो जल्दी हँसो)
ये तीनों उद्धरण रघुवीर सहाय के कविता संग्रह "हँसो हँसो जल्दी हँसो"(१९७०-७५) से लिए गए हैं। इन अंशों में दो बातें प्रमुखता से दिखाई पड़ती हैं। एक तो भारतीय लोकतंत्र की फ़ासिस्ट तानाशाही की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति, और दूसरी इस प्रवृत्ति का विरोध करने वाली शक्तियों की अत्यंत निराशाजनक अनुपस्थिति। अगर हम इन कविताओं के रचनाकाल पर ग़ौर करें तो पाएंगे कि एक तरफ़ यह दौर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में तानाशाही शक्तियों के उभार का है तो दूसरी तरफ़ नक्सलबाड़ी आंदोलन के बर्बर दमन और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जबरदस्त छात्र-युवा आंदोलन का भी है। इन्हीं प्रक्रियाओं की परिणति इमर्जेंसी में हुई थी। साफ़ दिखता है कि ऊपर उल्लिखित कविताओं में सत्ता की पहचान तो अचूक है लेकिन जनता के संघर्षों को इनमे पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। नतीजे के तौर पर इन कविताओं में घनघोर निराशावाद और भविष्यहीनता का माहौल दिखाई पड़ता है। सवाल यह है कि रघुवीर सहाय जिन्होंने स्वयं भी दिनमान के संपादक के रूप में उस दौर में महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका निभाई थी, अपनी कविता में कैसे जनता की शक्ति और उसके संघर्षों से पूरी तरह ग़ाफ़िल हो गए। यह सवाल इसलिए निर्णायक है कि इसके जवाब से उनके निराशावाद के स्रोत और उसकी वैधता का पता चलेगा। इसका जवाब ढूंढने के लिए हम उस दौर की उनकी कुछ और कविताओं के माध्यम से उनके भावजगत में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं।
उनकी प्रसिद्ध कविता "आने वाला ख़तरा" की आरंभिक पंक्तियां हैं:
"इस लज्जित और पराजित युग में/ कहीं से ले आओ वह दिमाग़/ जो ख़ुशामद आदतन नहीं करता/कहीं से ले आओ निर्धनता/जो अपने बदले में कुछ नहीं माँगती/और उसे एक बार आँख से आँख मिलाने दो....."
आम लोगों में पाई जाने वाली कमज़ोरियाँ ही इस कविता का प्रतिपक्ष है। इस बात के लिए निस्संदेह रघुवीर सहाय की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने सस्ती लोकप्रियता के लिए लोगों को अच्छी लगने वाली बातें कहने का आसान रास्ता न अपनाकर जनता को उसकी कमज़ोरियों की याद दिलाने की कोशिश की। अफ़सोस यह है कि यह आलोचना उन्होंने जनता का एक सदस्य अथवा हमसफ़र बनकर नहीं, नैतिकता के ऊंचे पायदान पर खड़े अभियोजक के रूप में की। कबीर ने गुरु की जो कल्पना की है उसमें सच्चे आलोचक के भी दर्शन होते हैं:
गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट
अंतर हाथ सहार दै बाहर मारै चोट
प्रेमचन्द ने गोदान के पहले ही पेज पर होरी से कहलवाया था कि "जब दूसरे के पांवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पांवों को सहलाने में ही कुसल है"। लेकिन रघुवीर सहाय को लोग अपनी किसी परिस्थिति के कारण नहीं, "आदतन" ख़ुशामद करते दीख पड़ते हैं। वह भी इतने सर्वव्यापी ढंग से कि ऐसा न करने वाले को मानो दिन में चिराग़ लेकर ढूँढना पड़ता है। मुक्तिबोध भी आम लोगों की कमज़ोरियों को चिह्नित करते हैं लेकिन वे लोग उनकी आत्मा के अंश से गढ़े जाते हैं इसलिए वे कभी अकेले नहीं छूटते। "अँधेरे में" का यह अंश देखें:
"अब तक क्या किया,/जीवन क्या जिया!!/ बताओ तो किस- किस के लिए तुम दौड़ गए/करुणा के दृश्यों से हाय मुँह मोड़ गए,/ बन गए पत्थर;/ बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,/ दिया बहुत-बहुत कम,/ मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!"
आलोचना मुक्तिबोध की भी पर्याप्त कठोर है लेकिन वे अपने लोगों से मुख़ातिब होते हैं, उनसे संवाद करते हैं, और उनकी लानत-मलामत करते हुए भी अफ़सोस और दुख महसूस करते हैं।इसीलिए वे अपने पाठकों को रूपांतरण की राह में आगे बढ़ने को प्रेरित कर पाते हैं।
इधर रघुवीर सहाय की कविता में "निर्धनता" है जो "अपने बदले में" कुछ न कुछ मांगती रहती है। ज़ाहिर है, यह शिकायत ग़रीबों से है जो बक़ौल कवि मानो अपना पेट बजाकर हमेशा कुछ मांगा ही करते हैं। बदले में एक बार फिर हमारा कवि ऐसा न करने वालों को "कहीं से" ढूंढ कर लाने की मांग करता है और आत्मसम्मान के सबूत के रूप में उन्हें "एक बार" आंख से आंख मिलाने को कहता है। यह नाज़ुक मसला ग़रीब और दुखी लोगों के प्रति नज़रिए से जुड़ा हुआ है। हर संवेदनशील कवि को इसका सामना करना पड़ता है। लेकिन प्रत्येक कवि इस पर एक जैसी प्रतिक्रिया नहीं देता। यहां हम आधुनिक हिंदी कविता के दो निर्माता कवियों की इसी विषय पर लिखी कविता उद्धृत करके उनकी संवेदना के बीच मौजूद फांक का अनुभव करेंगे। पहली कविता निराला की "भिक्षुक" है और दूसरी पंत की "वह बुड्ढा"। आइए पहले निराला की कविता का आरंभिक अंश देखें:
"वह आता------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता/ पथ पर आता।/ पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,/ चल रहा लकुटिया टेक,/ मुट्ठी भर दाने को----- भूख मिटाने को/ मुँंह फटी पुरानी झोली का फैलाता-------/ दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।"
अब पंत की कविता "वह बुड्ढा" की अंतिम पंक्तियों पर ग़ौर करें:
"बैठ , टेक धरती पर माथा,/ वह सलाम करता है झुककर,/ उस धरती से पांव उठा लेने को/ जी करता है क्षणभर।...................गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,/ लुंगी से ढाँपे तन,/ नंगी देह भारी बालों से,/ वनमानुष सा लगता वह जन/ भूखा है: पैसे पा, कुछ गुनमुना,/ खड़ा हो, जाता वह नर,/ पिछले पैरों के बल उठ/ जैसे कोई चल रहा जानवर!/ काली नारकीय छाया निज/ छोड़ गया वह मेरे भीतर,/ पैशाचिक-सा कुछ दुखों से/ मनुज गया शायद उसमें मर!"
सम्भव है पन्त की कविता उस गरीब बुड्ढे व्यक्ति के प्रति हमदर्दी से शुरू हुई हो, लेकिन तुरन्त ही उनका आभिजात्य उनके मन में उसके प्रति नफ़रत भर देता है, और अंततःउसे जानवर के स्तर तक गिरा देता है। जबकि निराला की कविता में, भीख मांगने की मजबूरी में भी एक मनुष्य की भावनाओं का आलोड़न और उसको देखने वाले के मन में उसकी प्रतिक्रिया का मार्मिक अंकन हुआ है। यह जनसमुदाय से आत्मिक और भावनात्मक रूप से जुड़े हुए कवि की संवेदना और जनता के प्रति सहानुभूति के बनावटी आग्रह के बीच का फ़र्क़ है। दूसरी श्रेणी के कवि जनता का पक्ष चुनने के अपने निर्णय को इतना अधिक महत्व देते हैं कि मनमाफ़िक परिवर्तन न होने पर वे जनता पर ही खीज और झल्लाहट उतारने लगते हैं। रघुवीर सहाय की कविताएं उनको इसी श्रेणी में ले जाती हैं।
निर्धनता का अपने बदले में कुछ मांगना मूलतः "आत्मदया" की प्रवृत्ति है, यानी अपनी दुरवस्था का प्रदर्शन करके पूरी दुनिया से प्रेम, सहानुभूति वगैरह की अपेक्षा रखना। हमारे समाज की यह एक गहरी समस्या है जिसका सामना हमारे अनेक कवियों ने किया है। इनमे से रघुवीर सहाय से किंचित वरिष्ठ दो कवियों मुक्तिबोध और त्रिलोचन का एक-एक उद्धरण देखते हैं:
"दुखों के दाग़ों को तमगों-सा पहना,/अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,/ असंग बुद्धि व अकेले में सहना,/ ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गई तलघर,/ अब तक क्या किया,/ जीवन क्या जिया!!" (मुक्तिबोध,"अंधेरे में")
"जिस समाज मे तुम रहते हो/यदि उसकी करुणा ही करुणा/ तुमको यह जीवन देती है/ जैसे दुर्निवार निर्धनता/ बिल्कुल टूटा-फूटा बर्तन घर किसान के रक्खे रहती/ तो यह जीवन की भाषा में/ तिरस्कार से पूर्ण मरण है।" (त्रिलोचन, "जिस समाज में तुम रहते हो")
इन दोनों कविताओं में लोगों की आत्महीनता और आत्मदया की प्रवृत्ति को पहचानकर उसका प्रतिवाद किया गया है, लेकिन इस प्रवृत्ति के शिकार लोगों के प्रति हमदर्दी के साथ। यह हमदर्दी इस समझ से आती है कि ये कमज़ोरियाँ आम लोगों में उनकी परिस्थितियों के चलते आती हैं और मानव समाज के एक सदस्य के रूप में कहीं न कहीं हम भी उन परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन कमज़ोरियों में साझा करते हैं। मुक्तिबोध की कविता का पात्र "दुखों के दाग़ों को तमगे सा" पहनता है लेकिन समाज से कटे होने के कारण (असंग बुद्धि ) अपने मानसिक उद्वेलन को अकेले में सहता है जिससे उसकी ज़िन्दगी तहख़ाने में बदल जाती है।
त्रिलोचन की कविता में समाज की करुणा पर पूरी तरह से आश्रित व्यक्ति का जीवन भी "मरण" के ही समान माना गया है। लेकिन ऐसी परिस्थिति के शिकार व्यक्ति पर कोई आक्षेप न करते हुए उसे सहारा देकर सचाई बताने का यत्न किया गया है। इधर रघुवीर सहाय की कविता में जो मनोवृत्ति सक्रिय है उसे ग़रीबों और भिखारियों में कोई फ़र्क़ नहीं मालूम पड़ता। ग़रीबों से सिर्फ़ एक बार आंख मिलाने की मांग कुछ इस तरह की गई है जैसे आजकल कुछ लोग मुसलमानों से देशभक्ति प्रदर्शित करने का आग्रह करते हैं। अच्छा! तो आप ग़रीब होने के बावजूद आत्मसम्मान रखते हैं। ठीक है, एक बार आंख से आंख मिलाकर दिखाइए।
दरअसल, ये अतिसरलीकरण के दोष से ग्रस्त वक्तव्य हैं, जिनकी वास्तविक चोट उन्हीं लोगों पर पड़ती है जिनकी तरफ़दारी का दम कवि भरता है। यह कहने पर कि लोगों में शर्म, ग़ैरत और प्रतिरोध जैसे गुणों का ख़ात्मा हो गया है, चोट उन्हीं पर पड़ती है जो इन मानवीय गुणों को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे होते हैं। जो सचमुच बेग़ैरत और चाटुकार हैं उन्हें तो इस विचार से राहत ही मिलती है कि हम्माम में सभी नंगे हैं। जिस तरह सभी भारतीयों को भ्रष्ट कहने पर भ्रष्टाचारी की तो बांछें खिल जाती हैं और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जो व्यक्ति इन प्रलोभनों से परहेज कर रहा है, वह अपने को अकारण लांछित होता हुआ पाता है। इसी तरह आमलोगों को आदतन ख़ुशामद करने वाला, ग़रीबी का सौदा करने वाला, और आत्मसम्मान से हीन कहने पर जनसमुदाय में व्याप्त इन प्रवृत्तियों को बच निकलने की राह मिल जाती है-----जब सभी ऐसे ही हैं तो कोई क्या कर सकता है-----और इन प्रवृत्तियों से जूझने वाले लोग अन्यायपूर्ण ढंग से ख़ुद को कटघरे में खड़ा पाते हैं। इस प्रकार तमाम सदिच्छा के बावजूद ऐसे अतिसरलीकृत वक्तव्यों के निहितार्थ जनविरोधी होते हैं।
इस संबंध में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि आम लोगों में व्याप्त "ख़ुशामद" की जिस कमज़ोरी को यह कविता अपना निशाना बनाती है, उसके एक निकृष्ट रूप "आदतन ख़ुशामद" को अपने प्रतिपक्ष के रूप में चुनती है। यह चुनाव ही तय कर देता है कि कविता कोई नई ऊंचाई नहीं पा सकेगी। ख़ुशामद करने का आदी होने का अर्थ है, उसीमें संतुष्टि व सुख पाना, ग़ुलामी की मानसिकता में रच-बस जाना। ऐसे लोग भला किस सम्मान के योग्य होंगे? इस तरह अपने प्रतिपक्ष के हीनतर रूप को हमले के लिए चुनकर कविता अपने पतन की राह ख़ुद चुन लेती है।
(जारी)

काव्यशास्त्रविनोद-९: बहस की लोकतांत्रिक संस्कृति के पक्ष में

प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना कहा था।इसका एक अभिप्राय यह भी है कि साहित्य जीवन के तमाम पहलुओं के बारे में कुछ कहता है। इन पहलुओं का एक वर्गीकरण "आत्म" और "पर" के रूप में भी हो सकता है, यानी "अपने" और "दूसरों" के बारे में कुछ कहना। अपने बारे में बात करने के अपने ख़तरे हैं। आत्मदया, आत्मश्लाघा और आत्ममोह तक इनमें से तमाम ख़तरों की पहचान की जा चुकी है। फ़िलहाल हम यहां दूसरों के बारे में कही जाने वाली बात यानी परचर्चा की कुछ विशेषताओं पर ध्यान देंगे ताकि ऐसा करने वालों का ख़ुद का मूल्यांकन हो सके।
जब हम दूसरों के बारे में कुछ कहते हैं तो दूसरों से अधिक अपने बारे में बता रहे होते हैं। दूसरों के बारे में हम जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके बारे में हमारी राय होती है। इस राय के पीछे हमारा दृष्टिकोण होता है और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा होती है। हमारी राय किसी के बारे में पूरी तरह ग़लत भी हो सकती है, लेकिन उस राय में निहित हमारा दृष्टिकोण और उसे व्यक्त करने वाली हमारी भाषा हमारी असलियत को उजागर करने वाले प्रामाणिक और विश्वसनीय माध्यम होते हैं। कौवा और कोयल एक जैसे लगते हैं लेकिन जैसे ही मुँह खोलते है अपनी पहचान करा देते हैं।
इससे पहले "प्रतिपक्ष का सकारात्मक निषेध" के प्रसंग में हमने ज़िक्र किया था कि जब हम किसी की आलोचना करते हैं तो उस समय हमारी अपनी शक्ति की भी परीक्षा होती है। अगर हम किसी सबल प्रतिपक्षी को मनमाने तर्कों से अत्यधिक कमज़ोर,हास्यास्पद अथवा अप्रासंगिक बताने लगते हैं तो इससे यही पता चलता है कि हमारी अपनी सामर्थ्य विरोधी के घुटनों तक ही पहुंच पाने की है इसलिए हम उसके पूरे क़द का अंदाज़ा न पाकर उसके घुटनों पर ही वार कर रहे हैं।
इस नज़रिये का रिश्ता हमारे लोकतांत्रिक रवैये से भी है। किसी वैचारिक संघर्ष में जब हम अपने विरोधी को उसकी समस्त शक्ति और संभावना के साथ देखते हैं तो उसके दृष्टिकोण में स्थित यत्किंचित सकारात्मकता को पहचानने और उसकी सराहना करने में सक्षम होते हैं।यहां तक कि इस दौरान कभी हम विरोधी के विचारों से प्रभावित होकर अपने दृष्टिकोण को बदलने को भी प्रेरित हो सकते हैं।यही वैचारिक बहस की ख़ूबसूरती है।अगर हम दोनों में से किसी भी एक पक्ष के रूपांतरण की संभावना को सिद्धांत रूप में स्वीकार नहीं करते तो सार्थक और ईमानदार बहस नहीं कर सकते। दूसरी तरफ़ अगर हम प्रतिपक्षी के संभावित प्रबलतम पक्ष से टकराते हुए उसका निषेध करने में सफल होते हैं तो उसका समूल विनाश हो जाता है। पुराने शत्रु की वापसी असंभव हो जाती है और संस्कृति के क्षेत्र में संघर्ष अगले चरण में पहुंच जाता है।
हिंदी कविता का इस दृष्टि से अध्ययन करने पर कुछ रोचक नतीजे निकलते हैं। अब तक रचनाकार के बयान के आधार पर ही उसके उद्देश्य और उसकी पक्षधरता की पहचान की जाती रही है। फिर इसी आधार पर बड़ी आसानी से रचना की अंतर्वस्तु खोज ली जाती है। उस अंतर्वस्तु की समाज में क्या भूमिका है यह पता लगाकर रचना की सामाजिक भूमिका की पड़ताल भी पूरी हो जाती है। दूसरे शब्दों में, अब तक हिंदी आलोचना ने रचना के अपने बारे में दिए गए वक्तव्य यानी रचनाकार की मंशा को एकांगी रूप से अत्यधिक महत्व दिया है। अगर हम रचना में दूसरों के प्रति व्यक्त किये गए नज़रियों, ख़ासकर विरोधी प्रवृत्तियों से संघर्ष के तौर-तरीक़ों पर ध्यान केंद्रित करें तो कई चौंकाने वाले परिणाम मिलते हैं। "काव्यशास्त्रविनोद" की आगामी कड़ियों में यही छानबीन की जाएगी।

काव्यशास्त्रविनोद-८: मुख़्तार साहब का सपना

(अमरकांत की कहानी "डिप्टी कलेक्टरी" पर कुछ विचार)

अमरकांत की कहानी डिप्टी कलेक्टरी हिंदी की कथा परम्परा में लगभग एक प्रतिमान की हैसियत पा चुकी है। शायद ही कोई आलोचक हो जिसने कभी न कभी इस पर विचार न किया हो। नामवर सिंह समेत लगभग सभी आलोचकों ने एक स्वर से इस कहानी को आज़ादी के बाद बनी व्यवस्था में सामान्य भारतीयों की आकान्क्षाओं की पूर्ति न हो पाने के चलते व्यवस्था से मोहभंग की कथा माना है। इसकी वजह कहानी में शकलदीप बाबू की अपने बेटे को डिप्टी कलेक्टर बनाने उत्कंठा; इसके लिए लम्बी प्रतीक्षा; और अंततः निराशा है।
ये शकलदीप बाबू कचहरी में काम करने वाले वही मुख़्तार साहब हैं जो कहानी शुरू होते ही पत्नी के सामने बेटे पर आगबबूला होते हैं क्योंकि वह बेरोज़गार है। दो बार इम्तेहान में असफल हो चुका है। पत्नी के विपरीत उनका मानना है कि तीसरी बार एग्ज़ाम देने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि "अगर सभी कुक्कुर काशी ही सेवेंगे तो हंडिया कौन चाटेगा?" बहरहाल वे शीघ्र ही चेत जाते हैं; पैसे की व्यवस्था करके खुद पूजा अर्चना में डूब जाते हैं। जिस दिन उनके बेटे को एग्जाम देने जाना है;स्टेशन पर आकर चलती गाड़ी में उसे प्रसाद देते हैं और किसी के पूछने पर बताते हैं कि पैसे दिए हैं। परिणाम आने से पहले ही वे रोज़ भोर में बेटे के चुन लिए जाने का सपना देखते हैं; जी भरकर मन के लड्डू खाते हैं और घूम घूम कर शेखी मारते हैं। परिणाम जब उल्टा निकलता है तो सकते में आकर चिन्तित होते हैं कि बेटा इस सदमे को कैसे झेलेगा। बेटे को सोता हुआ पाकर और उसकी साँस चलती हुई देख वे राहत की साँस लेते हैं।
हमारे समाज में डिप्टी क्लेक्टरी का एकमात्रअर्थ है अचानक अपने बराबर वालों से बहुत ऊपर उठ जाना। साहब बहादुर बन जाना। ब्रिटिश ब्यूरोक्रेसी का चरित्र ऐसा ही था लेकिन आज़ादी के बाद भी ये रवैया बदस्तूर क़ायम है। कहानी में इसी मानसिकता का पर्दाफाश किया गया है। नारायण के डिप्टी कलेक्टर होने की आशंका मात्र पर मानो पूरा शहर शकलदीप बाबू को बधाई देने उमड़ पड़ता है। कहानी की मनोरचना औपनिवेशिक है पर यह बाक़ायदा सूचना देकर आज़ादी के बाद घटती है। हमारी आज़ादी की यही विडंबना इस कहानी का मूल कथ्य है। यह किसी प्रतिक्षा या मोहभंग की कहानी नहीं है।
यह किसी पीढ़ी की कहानी भी नहीं है। ये संस्कार पूरे समाज के थे और आज भी बनेे हुए हैं। भीष्म साहनी की कहानी "चीफ की दावत" में शामनाथ बाबू युवा पीढ़ी के हैं। वे नौकरी में प्रमोशन के लिए अपनी माँ का और माँ जैसी ही लोक परम्परा का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ शकलदीप बाबू बेटे का इस्तेमाल करते हैं। नारायण नामका यह नौजवान पूरी कहानी में एक शब्द भी नहीं बोलता। न ही वह कहीं सामने आता है। उसके बारे में हर सूचना उसके माँ बाप की बातों और गतिविधियों से मिलती है। बेकारी में वो बाप की गालियाँ सुनता है;इम्तेहान की तैयारी करता है और असफल होकर सो जाता है। ज़ाहिर है की उसका चित्रण पिता की इच्छापूर्ति के साधन के रूप में हुआ है। अतीत के हाथों भविष्य के दुरूपयोग का यह चित्र जितना उदघाटक है उतना ही त्रासद।
डिप्टी कलेक्टरी का यह सपना शकलदीप बाबू ने कचहरी में मुख्तारी करते हुए पाला था। मुख्तारी के दाव पेंच का इस्तेमाल घर में करने से वे कतई नहीं चूकते। उनके सारे फैसले सफलता असफलता की संभावना से तय होते हैं। सफलता की उम्मीद में उन्होंने ज़मीं आसमान एक कर दिया था। असफल होने के बाद वे फिर कहेंगे---सभी कुक्कुर। नारायण इसे जानता है इसीलिये उसने इस बार जी जान लगा दिया था। कहानी में नारायण की मुक़म्मल ख़ामोशी और रिजल्ट के बाद पिता की बेचैनी के बरक्स शान्तिपूर्वक सोना इस बात का पर्याप्त सबूत है की यह अभियान उसका नहीं था। आलोचक इसे नोट नहीं कर सके क्योंकि उनकी संवेदना नारायण की अपेक्षा शकलदीप बाबू के निकट पड़ती थी।

काव्यशास्त्रविनोद-७: संकल्पधर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर

मुक्तिबोध की एक अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध कविता "गुंथे तुमसे, बिंधे तुमसे" में वाचक की अंतरात्मा उसे यह चेतावनी देती है:
निष्कर्ष निर्झर लहर प्राकृत वन्य और असभ्य है
वह मान्य ड्राइंगरूम संस्कृति से तुम्हें हटवायेगी
वह कान पकड़ेगी, उठाकर फेंक देगी
अजनबी मैदान में
घर बार सब छुड़वायेगी
तुमको अजाने देश में
गिरि कंदरा में जंगलों में सब जगह
भटकायेगी।
प्रसंग वाचक के सत्य की राह में दीक्षित होने का है।आगे चलकर वाचक के अंतरतम से सिक्के का दूसरा पहलू भी उभरता है:
अतः आदेश उसके मान
यदि तुम निकल जाओ
वह जहाँ भी जाय
तो तुम पाओगे अभिप्रेत
संकट कष्ट के चट्टान के भीतर फँसा हीरा
निकल दमकायेगा चेहरा तुम्हारा श्याम
किन्तु यदि माना नहीं आदेश,
स्वयं निष्कर्ष तुमको रगड़ देंगे
नष्ट कर देंगे
जहाँ रुक जाओगे।
तय नहीं आधे किये जाते रास्ते
इस रास्ते पर धरमशाला डाकबंगला भी नहीं है
सत्य को अनुभूत करना सहज है
मुश्किल बहुत
उसके कठिन निष्कर्ष मार्गों पर चले चलना
क्रान्तिकारी और मध्यमार्गी चेतना के बीच एक बुनियादी अंतर यह होता है कि क्रांतिकारी चेतना अपने उद्देश्य की तार्किक परिणति को समझती है, और वहां तक पहुंचे बिना उसे सफलता का बोध नहीं होता। वह उद्देश्य कैसा भी अव्यावहारिक, अप्राप्य अथवा ख़तरनाक बताया जाता हो, वह अंतिम सांस तक उसके लिए प्रयत्न करती है। उसे अपने लक्ष्य में पूरा भरोसा होता है, और किसी निश्चित समय में उसे हासिल करने की ज़िद भी नहीं होती। व्यापक उद्देश्य पूरे समाज की ज़रूरत होते हैं और उन्हें पाने में कई पीढियां खप जाती हैं। इसलिए विषम परिस्थिति में निराशा उसमें घर नहीं कर पाती, विफलता के क्षण में वो नए रास्तों की खोज करती है। जबकि मध्यमार्गी-उदारवादी चेतना कई बार सामान्य मानवीय आवश्यकताओं और उद्देश्यों को भी अतिवादी और सैद्धांतिक मान लेती है। अपने उदारवादी लक्ष्यों की पूर्ति की राह में भी कई बार वह बीच में ही थक हार कर बैठ जाती है, और जो कुछ थोड़ा बहुत हासिल हुआ उसी को गनीमत मान लेती है।
बहरहाल, मध्यमार्ग की भी समाज में अपनी सकारात्मक भूमिका है, लेकिन फ़िलहाल यहाँ वह विचारणीय नहीं है। क्रांतिकारी उद्देश्यों को अधबीच में छोड़ने वाली कोई संस्था, संगठन या व्यक्ति इस सकारात्मकता का दावा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में इनके अंदर पाखंड और लफ़्फ़ाजी का बोलबाला हो जाता है, जो इन्हें पतन की अंधी सुरंग की ओर ले जाता है। इससे समाज में भी दिग्भ्रम, निराशा और पराजय की धारा बलवती होती है। हमारे समाज में चौतरफ़ा इसके साक्ष्य मिल सकते हैं। इसलिए विचार के अनुरूप व्यवहार अथवा ज्ञान के अनुरूप कर्म, जो मुक्तिबोध का सबसे पहला और सबसे बढ़कर सरोकार है, पर खरा उतरने की चेतावनी वाचक को उसके मन मस्तिष्क से ही मिलती है। व्यक्ति के अंतर्जगत की इस भूमिका को मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष या आत्मालोचन कहते थे, लेकिन आजकल मंगलेश डबराल जैसे उनके कुछ अन्यतम प्रशंसक इसे आत्मग्लानि और अपराधबोध कहते हैं। ऐसा वे बाक़ायदा ग्राम्शी को कोट करते हुए करते हैं कि ग्राम्शी ने ग्लानि और अपराधबोध को क्रांतिकारी भाव कहा था। हमारा यह कहना है कि ग्राम्शी ने किस सन्दर्भ में क्या कहा था यह देखना होगा, लेकिन एक बात तय है कि न तो उन्होंने यह सब मुक्तिबोध के बारे में कहा था और न ही ग्लानि और अपराधबोध के अलावा और किसी क्रान्तिकारी भाव के होने से इंकार किया था। ऐसे में इन सबको मुक्तिबोध के मत्थे मढ़ने का क्या तुक है। यह आपत्तिजनक इसलिए भी है कि मुक्तिबोध के विचारों के अनुसार, समझौतापरस्ती की राह चुनने वालों को अपराधबोध के सहारे क्रांतिकारी तो क्या सचाई का दावेदार भी मानना मुश्किल है, जैसा कि उपरोक्त काव्यांशों से स्पष्ट होता है।